पिचकारी
पिचकारी
होली से दो दिन पहले राहुल की मम्मी वसुंधरा ने अपने कंजूस पति रामाधर त्यागी से लड़-झगड़कर किसी तरह एक बड़ी और सुंदर पिचकारी अपने बेटे को दिलाई। राहुल बड़ा खुश था। उसके पैर मानों धरती पर नहीं पड़ रहे थे। आव देखा न ताव, वह तुरंत घर से बाहर निकल गया और पूरी सोसायटी में इधर-उधर घूम-घूमकर अपनी पिचकारी सभी को दिखलाने लगा। सोसायटी के एक दूसरे बच्चे गौरव ने उससे पिचकारी देखने को माँगी। वह पिचकारी उसे अच्छी लगी या खराब, यह तो उसका मन ही जाने। मगर प्रकटतः उसने राहुल का दिल तोड़ते और उसे जमीन पर लाते हुए कहा, “ अरे राहुल…तेरे पापा ने तुम्हें ठग दिया है। तुम्हें लोकल पिचकारी दिला दी है।”
आजकल बच्चे खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई से अधिक ब्रांड और विज्ञापन की बात करने लग गए हैं। किसी सामान की उपयोगिता और खूबसूरती से पहले वे उसका ‘प्राइस टैग’ देखने लगे हैं। राहुल के स्वाभिमान को गौरव की इस बात से काफी ठेस पहुँची। दोनों में कुछ कहासुनी हुई। कहासुनी कब धक्कामुक्की में बदली, यह पता ही नहीं चला। देखते ही देखते गौरव ने राहुल से हठात पिचकारी छिनकर गुस्से में उसे दूर फेंक दिया।
पार्क की फेंसिंग लोहे की जालियों से की गई थी। उनसे लगे मेंहदी के पौधे थे। लोहे की जालियों से भिड़कर पिचकारी की हैंडल एक जगह से मुड़ गई। राहुल रुआँसा हो आया। पिचकारी निकालते वक्त मेंहदी की झाड़ियों से उसके हाथ छिल गए। पिचकारी भी उनसे ऐसी उलझी कि नन्हें हाथों को उसे निकालने में काफी मेहनत करनी पड़ी। जब पिचकारी को उसने वापस अपने हाथ में लिया, तो पिचकारी के मुड़े हुए हैंडल को देखकर उसका मन निराश हो गया। ऊँचे गगन में अठखेलियाँ करती पतंग की किसी ने मानों डोर काट दी हो और वह नीचे की ओर हवा में इधर-उधर भटकती हुई गिरती चली जा रही हो। राहुल के उत्साह रूपी गुब्बारे में किसी ने सुई चुभो दी थी। उसका गला रुँध गया और रोते सिसकते हुए वह अपने घर की ओर भागा।
टूटी हुई पिचकारी देखकर राहुल की मम्मी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह अपने बेटे को नीचे गौरव को बुला लाने को भेजी। मगर वह तो पहले ही रफ़ूचक्कर हो गया था। निराश राहुल वापस अपना मुँह लटकाये घर लौट आया।
अब जो करना था, वसुंधरा को करना था। उसे याद आया...किस तरह गौरव की मम्मी सरोज तनेजा ने अपने बेटे गौरव को उसके पास बॉल के पैसे के लिए भेजा था। और गौरव भी उस दिन उससे किस तरह बातें कर रहा था...“आंटी, देखो ना! राहुल ने मेरा बॉल खो दिया।”
‘कैसे’, वसुंधरा ने तुनककर पूछा।
गौरव पर मानों उसके तुनकने का कोई प्रभाव ही न पड़ा हो। बोला, “ हम सभी क्रिकेट खेल रहे थे। राहुल ने काफी जोर से बैटिंग की। और बॉल अपने कैंपस से बाहर बगल वाली कॉलोनी में चला गया।”
‘तो जाकर पता करवा लेते!’, वसुंधरा कहाँ हार माननेवाली थी।
“हमलोग गए थे आँटी। अव्वल तो उनके गार्ड ने हमें अंदर जाने ही नहीं दिया। फिर काफी हिल-हुज्जत के बाद अकेले मुझे अंदर भेजने को तैयार हुआ। बॉल कूड़े के ढेर में गिरी थी। जितना हो सकता था, मैंने उस ढेर में देखा। बॉल मुझे नहीं मिली। हो सकता है, बॉल के गिरने के बाद कुछ लोगों ने उसपर अनजाने में कूड़ा फेंक दिया हो। मैं निराश लौटकर आ गया।”
“आंटी, मेरा बॉल नया था। मुझे उसके पैसे चाहिए।”
“ऐं,यह क्या बात हुई! खेल-खेल में किसी से बॉल गुम होगा तो क्या तुम उससे पैसे माँगते रहोगे? कभी तुम्हारा बॉल राहुल से गुम होगा तो कभी राहुल का बॉल तुमसे। यह तो चलता ही रहता है बेटा।” वसुंधरा किसी तरह गौरव को समझाने का प्रयास कर रही थी। मगर गौरव था कि टस से मस नहीं हो रहा था। वह अपनी ढीठ और भूरी आँखों से बस वसुंधरा को देखता चला जा रहा था।
“बेटे...तुम्हारी मम्मी क्या कहॆंगी! उन्हॆं यह जानकर कितना बुरा लगेगा कि उनका बेटा इस तरह बॉल के गुम हो जाने का पैसा मुझसे माँग रहा था।”
तभी ‘बी’ ब्लॉक में रहनेवाली मनजीत चोपड़ा का बॆटा राघव बोल पड़ा, “अरे आंटी...इसकी मम्मी ने ही इसे यहाँ भेजा है।”
यह एक चौंकानेवाली खबर थी। वसुंधरा के पैरों के नीचे से मानो वसुधा हट गई। वह किसी गर्त में गिरती जा रही थी। यह हमारी सीधी-सादी और समृद्ध परंपरा के बरक्स जाने कैसे घोर आत्मकेंद्रण का वक़्त आ गया है! क्या गाँवों और कस्बों के लोग शहरीकरण की चकाचौंध में शहर आकर हमसे यही सब सीखेंगे! क्या हम अपने पीछे अपने बच्चों को यही सब सिखाकर छोड़ जाएंगे! उस पल वसुंधरा के मन में जाने कैसे कैसे सवाल उभरते चले गए और उनमें से किसी का जवाब उसके पास न था।
वह तेजी से अंदर गई और गौरव द्वारा बताए गए बीस रुपए लाकर उसकी हथेली पर रख दिया। वह गौरव की माँ सरोज के बारे में सोचती रही। सरोज के सुंदर सलोने चेहरे के पीछे उसका यह एक नया चेहरा था, जो वसुंधरा के लिए चौंकानेवाला था।
वसुंधरा मन ही मन अपन गुस्सा पीकर रह गई। वह जिस सोसायटी में रह रही थी, उसके ठीक बगल में जनता कॉलोनी थी। दोनों की दीवार एक ही थी। जब भी वह सुबह-सुबह राहुल को स्कूल छोड़ने अपनी सोसायटी के गॆट पर जाती, तो ठीक उससे लगी जनता कॉलोनी के कूड़े की असहनीय गंध उसके नसिका-पुटों तक आती। बच्चे बेचारे सुबह सुबह तैयार होकर अनमने भाव से अपने स्कूल यूनीफॉर्म को अपने शरीर पर लटकाए इधर-उधर मंडरा रहे होते। हाफ पैंट पहने बच्चों के पैरों पर तो कभी उनके मुँह पर मक्खियाँ उस तरफ से आकर भिनभिनाने लगतीं। मुँह पर की मक्खियों को तो वे हटा लेते, मगर इसमें भी कुछ वक्त लग जाता। नहाए-धुलाए बच्चे के चेहरे पर यूँ मक्खियों का बैठना वसुंधरा को गँवारा नहीं होता।
एक बार वह अपने बेटे को हल्की चपत लगाती हुई बोली, “अरे राहुल, तुमसे क्या मक्खी भी नहीं हटायी जाती।”
राहुल हँसता हुआ चुप रह गया।
“ऐसे हँस क्या रहे हो, कुछ बोलते क्यों नहीं?” वसुंधरा झल्ला पड़ी।
“क्या करूँ मम्मी, एक हटाता हूँ तो दूसरी आ जाती है।”, राहुल ने मंद मंद हँसते हुए जवाब दिया।
वसुंधरा को अपने बेटे का इस तरह कृष्ण की तरह हँसना बड़ा प्रीतिकर लगा। वह अंदर ही अंदर हुलसकर रह गई। वह अपनी खुशियों को खुद के सामने भी प्रकट नहीं करना चाहती थी। उसे डर था कि कहीं खुद की ही नज़र उसे न लग जाए। उसे अंदर ही अंदर जनता कॉलोनी वालों पर बड़ा गुस्सा आया। क्या ऐसे ही रहा जाता है? एक तो कूड़ा-घर हमारी ओर लगते कोने में बनवा दिया और दूसरे उसे कई कई दिनों तक उठवाते भी नहीं। यह कोई बात हुई भला! पड़ोसी पर तो ख़ैर अपना वश नहीं है, मगर क्या पड़ोसी को ऐसा होना चाहिए? उन्हें क्या खुद नहीं दिखता कि बास मारती गंदगी की इस ढेर से कितनी मक्खियाँ और कितने मच्छर पैदा हो रहे है! जो मक्खी-मच्छर इधर आ रहे हैं, वे उनकी तरफ तो भी यत्र-तत्र जा ही रहे होंगे।
इतने में स्कूल बस आ गई और वसुंधरा के देखते-देखते राहुल स्कूल बस में बैठ गया। कल शाम की बॉल वाली घटना की उधेड़बुन में खोई वसुंधरा आज अपने इकलौते बच्चे को ठीक से बस मॆं बैठा नहीं सकी। जाते समय वह राहुल के ‘बाय’ का मुस्कुराकर जवाब भी नहीं दे पाई। उसके अंदर कल का बॉल वाला प्रसंग अभी भी कहीं हलचल मचाए हुए था।
भीतर की यह चिंगारी तब और भभक पड़ती जब सुबह-शाम कॉलोनी में सैर करते हुए सरोज उससे टकरा जाती। जैसे कुछ हुआ ही न हो, वह आदतन उसे देखकर मुस्कुराती। वसुंधरा अपना सिर पिट लेती...हाय राम यह कैसी औरत है! सारी लोक-लाज गंगा मॆं डुबा आई है।
वसुंधरा पुनः वर्तमान में आ गई। उसे लगा कि यही समय है जब सरोज जैसी स्त्रियों को आईना दिखलाया जा सकता है। उन्हें यह अहसास कराया जाना ज़रूरी है कि बच्चों के खेल में यूँ बड़ों को शामिल करना कितना ग़लत होता है! किसी सामान के गुम होने या किसी बच्चे द्वारा उसे तोड़ देने पर उसका हर्जाना कसूरवार बच्चे के माता-पिता से वसूलना कितना अपमानजनक होता है!
वसुंधरा ने राहुल से कहा, “ राहुल, राघव को लेकर गौरव की मम्मी के पास जाओ”।
राहुल कुछ समझ न पाया हो जैसे, वह अपनी माँ की ओर टुकुर टुकुर देखने लगा। वसुंधरा के होंठ स्वयं काँप रहे थे, मगर खुद को संयत करती हुई उसने आगे कहना जारी रखा, “हाँ, तुम उनसे जाकर कहो कि मेरी नई पिचकारी गौरव ने तोड़ दी है। मुझे आप ऐसी ही नई पिचकारी दिलवाओ।”
राहुल जाने लगा तो वसुंधरा ने उसे एक बार फिर टोका और टूटी हुई पिचकारी उसे देते हुए कहा, “अरे बेटे, अपनी यह पिचकारी उन्हें ही पकड़ा देना।” कुछ संकोच से और चेहरे पर कुछ अप्रत्याशित भावों के साथ राहुल ने अपनी माँ से वह पिचकारी ले ली।
ठीक होली से एक दिन पहले होलिका-दहन के दिन राहुल के हाथों में एक नई पिचकारी थी। मगर यह पिचकारी रामाधर त्यागी ने नहीं खरीदी थी। यह राहुल को गौरव की मम्मी सरोज ने दिलाई थी।
राहुल को नई पिचकारी मिल गई थी मगर वसुंधरा की छाती के भीतर कहीं एक खाली आसमान अटक गया था। वह रात में होलिका दहन के समय चुपचाप पूजा करके अपने घर आ गई । उसने सरोज को सबक तो सिखला दिया था मगर खुद अपने माता-पिता के सिखाए सबक भूल गई थी। वह बाहर सरोज तो क्या सोसायटी की किसी भी स्त्री से अपनी नज़रें नहीं मिला पा रही थी।
बच्चों को क्या है, अपना सामान मिलने पर वे सब कुछ भुलाकर अपने खेल में लग जाते हैं। फिर कौन दोस्त और कौन दुश्मन, सबके साथ मित्रवत उछलकूद में लग जाते हैं। उनके लिए कोई दोस्त या कोई दुश्मन किसी बड़े की तरह थोड़े ही न स्थायी होता है! होली के दिन सुबह से लेकर शाम तक सभी बच्चों ने खूब हुड़दंग की। बीच–बीच में दही-बड़े और बैंगन के पकौड़े के लिए राहुल कई बच्चों सहित दो-तीन बार घर आया। वसुंधरा ने देखा, उन बच्चों में गौरव भी था। उसने प्यार से उसके मोटे-मोटे गाल सहलाए और उसे एक दही-बड़ा और एक बैंगन का पकौड़ा बाकी बच्चों की तुलना में अधिक दिया। कुछ स्त्रियाँ बाहर होली खेलने के लिए वसुंधरा को बुलाने आई थीं, मगर सिर-दर्द का बहाना करके वह घर में ही पड़ी रह गई। होली के दिन दोनों मियाँ-बीवी जितनी धमाचौकड़ी आपस में किया करते थे, उतनी इस बार नहीं की । वसुंधरा इस पूरे प्रकरण में मन ही मन कहीं उलझी हुई थी।
देर शाम वसुंधरा के घर का कॉल-बेल बजा। उसने अनमने भाव से दरवाजा खोला। उसकी आँखों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। अपने चेहरे पर मुस्कान और हथेली में पीले रंग की सुगंधित अबीर लिए सरोज खड़ी थी। कुछ सेकंडों की झिझक के बाद दोनों ने एक-दूसरे के गालों पर अबीर लगाया। बैठकखाने में सोफे पर बैठी हँसती हुई दोनों औरतें दुनिया-जहान की बातें कर रही थीं। वसुंधरा को लगा कि संवाद में कितनी ताकत है। दोनों महिलाओं ने जान-बूझकर किसी अप्रिय प्रसंग को नहीं छेड़ा। तभी अंदर के कमरे से राहुल निकल कर आया। वह अपनी माँ पर रंग फेंकने आ रहा था। मगर बैठकखाने में सरोज आंटी को बैठा देख उलटे पाँव वह कमरे की ओर लौटने लगा। चीते की फुर्ती से सरोज उठी। राहुल को गोद में लिया, उसे प्यार किया। और फिर यह क्या...राहुल के हाथ से पिचकारी लेकर देखते ही देखते वसुंधरा का सफेद सूट गुलाबी रंग से रंग दिया। वसुंधरा भी पीछे रहनेवाली कहाँ थी! उसने उस पिचकारी का बाकी रंग सरोज की गर्दन और पीठ पर उंड़ेल डाला।
शाम की यह होली दोनों के लिए सारे मैल को धोनेवाली थी। बाहर रात का अँधेरा गहरा रहा था मगर दोनों के मन-आँगन के भीतर फाल्गुन के नए गुलाबी रंग पसर चुके थे ।