Arpan Kumar

Children Others Inspirational

1.6  

Arpan Kumar

Children Others Inspirational

स्कूल बैग

स्कूल बैग

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मेरी पत्नी गरिमा आज हमारे छोटे बेटे गुंजन के लिए एक बैग खरीद कर लाई। गुंजन ने अब प्री-नर्सरी में पास ही के प्ले स्कूल में जाना शुरू किया है। बड़ा बेटा सारांश पहले से ही एक दूसरे स्कूल में प्री-प्राइमरी में पढ़ रहा है। सारांश को स्कूल जाते ढाई साल से ऊपर हो रहे हैं और गुंजन की औपचारिक पढ़ाई का तो आज श्री गणेश ही हुआ है। गुंजन कल स्कूल जाने से अधिक आज अपने नए बैग को देखकर अधिक प्रसन्न है। छोटे बच्चे के लिए छोटा बैग। अमूमन संतुष्ट और हँसमुख रहनेवाला सारांश, आज अपने मनपसंद बैग को पाकर पूरे घर में इधर-उधर चहक रहा है। गरिमा गुंजन को लेकर मोहल्ले की ही एक अच्छी दुकान से बैग ले आई थी। सारांश के लिए कुछ महीने पहले ही सारी स्टेशनरी, किताबें, फ्लास्क, स्कूल बैग आदि खरीदे गए थे। सो, आज सिर्फ गुंजन के लिए ही बैग आया था। 

इन सबसे अंजान, सारांश ऊपर छत पर खेल रहा था। मैं भी उसके साथ ही था। गरिमा ने सारांश को नीचे से आवाज़ देकर बुलाया, "बेटा हॉर्लिक्स पी लो।" माँ का लाडला सारांश हवा के वेग सा तुरंत नीचे प्रकट हो गया। वह सीढ़ियों पर गिर न जाए, इस आशंका से मैं उसके पीछे-पीछे भागा। नीचे ड्राइंग रूम में सेंटर टेबल पर गुंजन के लिए आया नया बैग रखा हुआ था। तभी उसकी नज़र बैड पर पड़ी। छोटी-बड़ी हर चीज़ पर और अपने छोटे भाई गुंजन पर भी अपना हक़ जमानेवाले सारांश ने बड़ी ही उत्सुकता से उस बैग को उलट पलट कर देखा। बैग हल्का और सुंदर था। काले रंग के उस बैग का फ्रंट पॉकेट नीला था, जिस पर पावर रेंजर्स के कई चित्र बने हुए थे।

"रेड रेंजर्स, येलो रेंजर्स और ग्रीन रेंजर्स...", सारांश उत्साह में अपनी ओर से सारे रेंजर्स के नाम गिनाने लगा।

बाकी दिन तो सारांश हॉर्लिक्स-दूध पीने में काफ़ी वक़्त लगाया करता था, मगर आज चुपचाप उसने दूध का गिलास एक झटके में ख़त्म कर दिया। आज उसकी समस्त इंद्रियों के आकर्षण में वह काला बैग ही था। अब जब वह धड़ल्ले से न सिर्फ रंगों की पहचान करता है, बल्कि आज जिस तरह से उसने नए बैग के पॉकेट पर बने चित्रों को छूटते ही पहचान लिया, हम दोनों पति-पत्नी एक दूसरे की आँखों में सहर्ष और सगर्व झाँकने लगे। दोनों की आँखों में एक ही भाव था। अपने बड़े बेटे सारांश के लिए अथाह प्यार। फिर जैसे दोनों का मन सहसा कुछ पीछे चला गया और वे कुछ ख़ामोश से हो गए। अपनी चुप्पी में दोनों शायद एक दूसरे से यही कह रहे थे...अभी कल ही की तो बात है, लगता था कि सारांश अलग-अलग रंगों को कभी पहचान ही नहीं पाएगा। हमलोग इसके पीछे कितनी मेहनत किया करते थे! और अब देखिए! कितनी तल्लीनता और बारीकी से किसी चित्र के विभिन्न हिस्सों में वह अपनी नन्हीं उँगलियों से अलग अलग रंग भरता है। और उसकी उंगलियाँ भी इन दिनों कितनी सध गई हैं!

तभी सहसा गरिमा ने कुछ हड़बड़ाकर अपनी आँखों की कोर से काजल का एक बेहद छोटा टीका सारांश के बाएं कान के नीचे लगा दिया। मगर यह क्या! सारांश अचानक से देखते ही देखते रुआँसा हो गया, शुरू में इतना क्षीण कि सहसा हम दोनों को पता ही न चला। कुछ ही देर बाद वह तेज़ तेज़ रोने लगा।

"क्या हुआ, क्यों रोने लगे, अचानक इस तरह?" मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा। घबरा हुई गरिमा सहसा कुछ पूछ ही नहीं पाई।

"पापा, मुझे भी ऐसा ही नया बैग चाहिए।" वह मेरे दाएँ हाथ को अपने बाएँ हाथ की पतली और मुलायम उँगलियों से छूता हुआ अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देख रहा था। अपने बेटे को अपनी ओर इस तरह देखकर मनुहार करने पर कोई पिता क्या ना कर दे! मैं आज कुछ अधिक ही ध्यान से देख रहा था...सारांश की नाक चौड़ी है। अपनी माँ की तरह, मगर होंठ थोड़ी दूर तक फैले और पतले हैं, ठीक मेरी तरह। सिर बड़ा और ललाट चौड़ा। मैं उसे प्यार करना चाह रहा था। उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में भरकर मैं उसके गालों को चूमना ही चाह रहा था कि उसने अपने दोनों हाथों से मुझे हल्का सा दूर कर दिया, "नहीं पापा, पहले मुझे बैग दिलाओ।"

"नहीं, पहले मुझे प्यार करने दो।"

"नहीं ई ई", वह ज़ोर से चिल्लाया और रोने लगा, "मम्मी, आज गुन्नू के लिए नया बैग लाई है और मेरे लिए नहीं लाई।"

सारांश अपने छोटे भाई गुंजन को गुन्नू पुकारता है। वाह ह्रस्व '' को दीर्घ '' में ही नहीं बदलता बल्कि अपने छोटे भाई को स्वयं से कहीं न कहीं बराबर समझते हुए उससे कुछ प्रतिस्पर्धा भी करता है। दोनों साथ टीवी देखते और खेलते हैं। घर से बाहर तक एक-दूसरे के बग़ैर दोनों जाना नहीं चाहते। हाँ, फ़िलवक़्त दोनों के स्कूल अलग-अलग हैं, इसलिए मज़बूरीवश ही सही, उनके स्कूल-वैन अलग-अलग हैं और दोनों का इसका भीतर ही भीतर ख़ूब मलाल रहता है। मगर यह प्यार कब झगड़े में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। और जब झगड़े की बात आती है, सारांश मारपीट का अपना सारा प्रशिक्षण नन्हीं जान गुन्नू पर आज़माता है और गुन्नू यथासंभव उससे मुक़ाबला करता हुआ अपनी उम्र के बाहरी बच्चों पर इन दिनों कुछ अधिक भारी पड़ने लगा है।

सारांश पाँच पार कर चुका है और गुन्नू तीन।

गुन्नू तो भूल का फूल है, मगर उस पर सबको ही प्यार आता है। दुनिया की शायद यह अकेली ऐसी भूल है जो वक़्त के साथ निरंतर बड़ी होती जाती है। मैं सोचता हूँ, काश लोग ऐसी भूल ना करें या फिर जाने-अनजाने ऐसी कोई भूल हो भी जाए, तो पछताएं तो ख़ैर बिल्कुल ही नहीं और किसी भी सूरत में क्रूर न बनें। भ्रूण-हत्या सिर्फ़ अजन्मे बच्चे को जन्म न लेने देने के उसके मौलिक अधिकार का अवांछित हनन मात्र नहीं है, बल्कि यह अपनी पाशविकता और यांत्रिकता का संपोषण भी है। यह हमारे हाथों हमारी मनुष्यता का नकार है। ख़ैर, मेरे अंदर उजास की कुछ किरणें मेरे तन-मन को आलोकित कर गईं कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया और मेरा प्रतिरूप गुंजन आज मेरे सामने मेरी ही छुपी सुंदरता और सरलता को साकार किए जा रहा है।

"ठीक है, तुम्हारे लिए नया बैग आ जाएगा।" हारता क्या न करता! मगर, सारांश पर मेरे इस आश्वासन का कोई असर नहीं पड़ा। शायद इतनी कच्ची उम्र में वह बड़ों की झूठी दुनिया को ताड़ने लगा था। कोरे और ख़ाली वचन के बीच के रेगिस्तान से वह अवगत हो चला था। मुझे मेरे बच्चे की दुर्धर्षता पर हल्की सी हँसी आ गई। मुझे वह चिर-परिचित मुहावरा याद हो आया...बाप रे वह भी गिरगिट के रंग की तरह बदलते जाते मेरे आश्वासनों से अबतक चिर-परिचित हो गया था। मगर इतना छोटा बच्चा आख़िर यह सब कुछ कैसे समझ जाता है, मेरे भीतर उठा प्रश्नचिह्न अब भी बैठने का नाम कहाँ ले रहा था! शायद उसके भीतर एक छठी ऐंद्रिय शक्ति काम करती हो! या फिर बापे पूत परापत घोड़ा, कुछ नहीं तो थोड़म थोड़ा की तर्ज़ पर आदमी के भीतर थोड़ा-बहुत झाँक लेने की मेरी आदत कहीं उसमें भी कुछ आ गई हो! मैं अपने इस आत्म-मोह पर भीतर ही भीतर थोड़ा हँस पड़ा। मुझे पता ही नहीं चला, मैं बच्चों के मनोभावों के बारे में सोचते हुए कब अपने भीतर झाँकने लगा, पता ही नहीं चला। मैं भी क्या करता, मेरा स्वभाव कुछ कुछ ऐसा ही था। छोटी से छोटी हर चीज़ पर मीन-मेख निकालने की और हर बात पर समुद्र मंथन करने की मेरी आदत जा भी कहाँ रही थी! महानगर में जीते और अकेले घर चलाते व्यक्ति की आर्थिक सीमा का भी अपना कुछ असर हो सकता है। बच्चों की कई माँगे टलती चली जाती हैं और उनकी माँग की भी क्या कहिए, बस उन्हें जितनी देर याद रहती हैं, उनकी ज़िद भी उतने समय तक ही माता-पिता पर कहर बरपाती हैं। जैसे ही उनके मानस पटल से उस वस्तु का लोप हुआ, उसे पाने की उनकी ज़िद भी समाप्त हो गई समझिए। मगर बच्चों या कहिए बड़ों का मनोजगत भी कुछ अज़ीब ही होता है न! किसी नई चीज को पाने की ज़िद में ही व्यक्ति अपनी पुराने ज़िद भूलता है या उस ज़िद की तीव्रता क्रमशः कम होती चली जाती है। मगर उसी पल मैं यह भी सोच रहा था कि ये बच्चे ही हैं, जो आपके भीतर एक ज़ज़्बा भरते हैं। मुझे धीरे धीरे यह आभास होता चला जा रहा था कि हमारे बच्चे हमारी ज़िंदगी में कहीं न कहीं किसी अकसीर की सी भूमिका निभाने लगते हैं और हमें एक साधारण धातु से किसी स्वर्णिम अस्तित्व में ढालने की कोशिश करते हैं। बच्चे अपनी माँगें हमसे मनवाते चले जाते हैं और हम उनकी माँगें पूरी करते हुए कहीं-न-कहीं कुछ उदार बनते चले जाते हैं।

सारांश कुछ देर बिस्तर और मुझ पर एक साथ अपने हाथ पाँव पटकता रहा। कुछ-कुछ बड़बड़ाता भी रहा। मैंने ग़ौर किया, इधर वह कई नई-नई गालियां भी सीख चुका है। मैंने उसे समझाने की कोशिश की। आँखों में नकली गुस्सा भरकर मैंने उसकी आँखों में देखा और बोला, देखो सारांश, तुम्हें अगर ऐसे गाली ही बकनी है तो नए बैग की बात भूल जाओ। मैं फिर लाने से रहा

वह हल्का हँसने लगा और बोला, सॉरी पापा, आगे से नहीं बोलूँगा।

लेकिन पापा, वैन में सभी बोलते हैं। राजू अंकल भी।

मैं कुछ देर के लिए सकपका गया। मुझसे कुछ जवाब देते न बना। फिर थोड़ा हकलाते हुए बोला जैसे किसी ने मेरी ही पोल खोल दी हो, देते होंगे, मगर तुम नहीं दोगे।

मैंने देखा, अंत के शब्द बोलते हुए मैं कुछ कठोर सा हो गया था। जैसे अपने अंदर की किसी कमी को मैं उससे और स्वयं से भी जबरन छुपाने की कोशिश कर रहा हूँ। ख़ैर मेरी कल्पना ने मुझे बच्चे और उसके समाजीकरण के कुछ महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इशारा किया... टी.वी., स्कूल, स्कूल-वैन, घर-पड़ोसजाने किस-किस और कहाँ-कहाँ से सारांश ने गालियां सीखी होंगी। समाज और परिवेश से सीखी इन गालियों में उसने अपने स्तर पर कई गुना वृद्धि कर डाली है। एक बच्चा इसी प्रकार अच्छे और बुरे शब्दों के अपने अर्जित भंडार को बढ़ाता है। हाँ, मज़े की बात यह देखना है कि वह इनका उपयोग कब और कैसे करता है! मैंने नोट किया... जब सारांश ने यह देखा कि उसके हाथ पैर पटकने व्यर्थ जा रहें हैं, तब उसे अपनी जुबान की ताकत आज़माने की सुध आई। वह रोता रहा और हमें गालियां बकता रहा। गरिमा तो खैर रसोई में व्यस्त थी, मुझे ही अपने तौलिए से उसकी नाक पोंछनी पड़ी और उसे समझाना भी पड़ा।

"अभी बाहर बारिश हुई है, रात के नौ बज चुके हैं।"

"नहीं-नहीं, बैग मुझे अभी ही चाहिए।"

"दुकानदार भी अपने घर चला गया होगा।"

"उसे घर से बुलाओ, दुकान खुलवाओ।"

"पर बेटा, मैंने उसका घर भी तो नहीं देखा है।"

"मैं कुछ नहीं जानता। मुझे बैग अभी चाहिए तो अभी चाहिए।"

मैंने आख़िरकार झुंझलाकर उसे डांटा, मगर सारांश अपनी नाक और आँखों से एक साथ पानी बहाता हुआ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। कई बार वह अपनी ज़िद के चरम पर आकर बेहद कारुणिक और दयनिय हो उठता है। इस बार भी उसकी हालत कुछ ऐसी ही थी। वह मेरी बाँह पर पसीने से चिपचिपी हो चुकी अपनी हथेली को रखते हुए और आँसुओं से भीगे अपने चेहरे को मेरी तरफ़ करते हुए तीव्र कारुणिक अंदाज़ में विलाप करने लगा, "पापा प्लीज मुझे बैग दिला दो।"

मैं उसके चेहरे और उसकी शारीरिक भाव भंगिमा की पल-पल बदलती अभिव्यक्ति की ऐसी मुद्रा पर कहीं भीतर बहुत खाली हो रहा था। कुछ ऐसा लग रहा था मानो मेरे फेफड़े में भरी हवा एकदम से बाहर निकल गई है और कोई फूला हुआ गुब्बारा फूट कर सिमट गया हो। अकिंचित, असुंदर और गरिमाहीन सा। मुझे भीतर ही भीतर अपने पिता की हैसियत कहीं झूठी लगने लगी और मैं अपने बड़े बेटे को अपने कलेजे से जी-भर कर लगाने की इच्छा से भर उठा।

अच्छा इधर आओ। उसके गालों पर आए आँसुओं को पोंछने के लिए पहले मैंने उसे अपनी छाती से लगाया। वह भी किसी नन्हें और मुलायम खरगोश की भांति मुझसे चिपट गया। मैं अपने दाएँ हाथ को अपने बेटे की पीठ और गर्दन पर फिराने लगा। वह गुस्से में अपनी बनियान कब की खोल चुका था। मैं कुछ देर तक उसकी पीठ के रोओं को तल्लीनता से देखता रहा, जैसे उन रोओं के रंग पहचानने की कोशिश कर रहा होऊँ! मुझे आभास हुआ, रंगों को पहचानने में शुरू-शुरू में मेरे बेटे को भी ऐसी ही सघन कोशिश करनी पड़ी होगी। मैंने अपनी नाक उसके सिर के बालों में घुसा दी। वह काफ़ी देर तक रोता रहा था। किनारे से उसके बाल पसीने से भीगे हुए थे, जैसे बहुत देर तक कोई किसी दुष्कर काम में अपना सिर खपाता रहा हो। एक बैग के रहते दूसरे बैग की अपने साधारण नौकरीपेशा माँ-बाप से फ़रमाइश करना कदाचित किसी बच्चे के लिए कोयले की खान से कोयला निकालने जैसा ही है। मैं उठकर बैठ गया और उसे अपने पास बिठाते हुए धीरे-धीरे उसके सिर को दबाता रहा और उसके बालों को सहलाता रहा। अब तक वह काफ़ी शांत हो गया था। आख़िर पाँच साल का बच्चा रोएगा भी तो कितनी देर तक! अपनी उम्र के हिसाब से तो वह पहले ही काफ़ी रो चुका था। मुझे अब अपने इस नन्हे दुर्वासा के क्रोध पर काफ़ी प्यार आ रहा था। उसकी ज़िद पर गुस्सा करना तो व्यर्थ था। मेरे क्रोध करने पर या तो वह सहमकर चुप हो जाता या फिर और ज़ोर से रोने लगता। घर की शांति और उसकी माँ के मनोबल दोनों के लिए ऐसी कोई स्थिति निरापद नहीं थी। मगर उसका इस तरह शांत रहना भी मुझे ख़ल ही रहा था। मैं उससे संवाद का कोई सिरा पकड़ने की कोशिश कर रहा था। तभी मुझे कुछ और तर्क सूझे और मैं उससे पूछ बैठा, अच्छा बताओ, जब एक बैग तुम्हारे पास पहले से है ही, तब तुम दूसरा बैग लेने की ज़िद क्यों कर रहे हो?”

यह बहुत पुराना हो चुका है। उसने धीरे से कहा।

मैंने पास ही डाइनिंग टेबल पर पड़े उसके स्कूल बैग की ओर नज़र घुमाई। ट्यूबलाइट की दूधिया रोशनी में नीले रंग का उसका बैग चुप-चाप पड़ा भली-भाँति चमक रहा था। बैग के अगले पॉकेट पर नीले, नारंगी, काले, सफेद, लाल, हरे अलग अलग रंगों से बने टॉम एंड जेरी अपनी ख़ामोश हरकतों से शायद हमें ही लुभाने की कोशिश कर रहे थे। जो बच्चा उन्हें हरदम अपनी नन्ही पीठ पर लादे फिरता था, वही शैतान आज उनसे मुँह मोड़े बैठा हुआ था। टॉम एंड जेरी दोनों शायद अपने प्रति उसकी इस उपेक्षा से उदास थे और आपस में अपने दोस्त का प्यार पुनः पाने के लिए कोई गुपचुप मंत्रणा भी कर रहे थे।

पिछले रविवार को ही तो तुम्हारी मम्मी ने इसे धोया है। देखो तो, यह कितना चमक रहा है और उनकी नन्हीं चमकती आँखों में तो झाँको बेटा। ये टॉम एंड जेरी भी तो तुमसे कुछ कह रहे हैं।

सारांश ने अपनी उदास आँखों से टॉम एंड जेरी की ओर देखा, मानो कह रहा हो, तुम लोग भी नया बैग लाने के लिए मेरे पापा से मेरी पैरवी क्यों नहीं करते! मैं तुम्हें छोड़ थोड़े ही रहा हूँ। मुझे तो एक और नया बैग चाहिए। पावर रेंजर्स वाला। तुम्हारी तरह वे भी मेरे दोस्त हैं ना!

पुराना बैग वास्तव में नया दिख रहा था। सारांश अब कहे तो क्या कहे!

पापा, देखो, इसके पॉकेट की चेन ख़राब हो गई है। मेरा लंच बॉक्स भी इससे बाहर निकल जाता है। राजू अंकल इसे वैन वन के कैरियर पर रख भी नहीं पाते। मैं इसे अपनी गोद में रखकर स्कूल ले जाता हूँ। यह बार-बार खिसक कर नीचे गिर जाता है। वैन के सभी बच्चे मुझपर हँसते हैं। आप कुछ समझते क्यों नहीं! वह अब मुझे बैग की ख़राब हुई चेन दिखला रहा था।

ठीक है, कल जब तुम स्कूल से लौटोगे ना, तब मम्मी इसे ठीक करवा देगी। नीचे गली में चेन ठीक करने वाले भइया आते तो रहते ही हैं। ओके? मैंने उसका कंधा थपथपाया। उसकी समस्या का झट समाधान निकालने के अपने सहज दर्प के साथ।

सारांश एक बार फिर निरुत्तर हो रहा था। उसने एक बार फिर अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मेरी ओर देखा, मानो वह मेरे पितृत्व की थाह ले रहा हो। सारांश अपने पुरानी ज़िद पर फिर से लौट आया। नहीं, मुझे नया बैग ही चाहिए और वह भी गुन्नू जैसा ही।

तभी कहीं से ठुमकता हुआ गुन्नू भी आ गया। वह अपनी माँ के एक पैर के साथ लिपटा हुआ चल रहा था। गरिमा कुछ देर के लिए बौखला गई। गुन्नू का बैग सारांश के आगे पटकते हुए बोली, लो, तुम इसी बैग को ले लो। तुमसे तो शायद गुन्नू की कोई ख़ुशी देखी ही नहीं जाती।

मगर अपनी माँ के क्रोधाभिनय से अनजान गुन्नू सहसा इस नाटकीय मोड़ पर रोने लगा और सरांश कुछ सकते में आ गया।

मुझे अब स्टेज़ पर किसी निर्णायक की भूमिका में आना अब आवश्यक लगने लगा। मैंने आँखों ही आँखों में गरिमा को संयमित रहने के इशारे किए। धीमे से बोला, हर चीज़ पर इतना फसी होना ठीक नहीं है। बच्चों पर ग़लत असर पड़ेगा। वे अपने माता-पिता से ही सहमने लगेंगे। आख़िर वे हमसे नहीं तो किससे ज़िद करेंगे!

गरिमा कुछ सुनना नहीं चाह रही थी। बोली, अरे भई, मैं आप दोनों की यह बकझक कब से सुन रही हूँ। आज यह बैग माँग रहा है। कल कुछ और माँगेगा। घर में जो ज़्यादा ज़रूरी सामान हैं, पहले वे आएंगे या ऐसे ही तमाशा चलता रहेगा। पैसे पेड़ पर उगते हैं क्या! बाक़ी आप बाप-बेटे जो करो, मेरी बला से। इस घर में मेरी कोई सुनता है क्या!

किसी की बिना कुछ सुने पैर पटकती गरिमा ऊपर छत पर चली गई। साथ में गुन्नू को भी ले गई।

मुझे लगा, अब इसकी दीवानगी के आगे कोई तर्क करना, इसकी मासूमियत के साथ हिंसक व्यवहार करने सरीखा है।

ठीक है, कल मैं अपने ऑफिस की तरफ़ से ही तुम्हारा बैग लेता आऊँगा। तुम तो अब मानने से रहे। मेरे लिए अगले दिन बैग ले आने में ही भलाई है।

मैं सोचने लगा, आख़िरकार वो किसी खिलौने की ज़िद तो कर नहीं रहा। उसके पास दो बैग हो भी जाएंगे तो ऐसी क्या आफत आ जाएगी! मेरे घर के बजट पर एक बैग के खरीदे जाने से आख़िर कितना असर पड़ेगा!

सारांश भी तो मेरे और फिर अपनी माँ के साथ गणित की पढ़ाई करते हुए आज तक अंकों की श्रृंखलाबद्ध दुनिया से उलझ ही रहा है। अमुक अंक के पहले कौन सा अंक आएगा, अमुक अंक के बाद कौन सा अंक आएगा और अमुक दो अंकों के बीच कौन कौन से अंकों का स्थान है, उसे इस मेहनत का फल मिले तो वह कुछ मन लगा कर ही अपनी आगे की पढ़ाई करेगा। आखिर मेरे पास भी तो ऑफिस जाने के लिए तरह तरह के हैंडबैग हैं ही न! वैसे भी, उसे अपने पिता से आगे ही रहना है। जाने कौन सी शक्ति होती है बच्चों के पास कि वे आवाज़ के पीछे छिपे आत्मविश्वास या आँखों के अंदर छलकती सच्चाई, जाने किसको देखकर/परखकर/सूँघकर कहने वाले की बातों की सत्यता की डिग्री की थाह पा लेते हैं! सारांश भी अंततः मेरी आख़िरी बात पर यकीन कर रहा था। इसका प्रमाण...वह अपने दूसरे कामों में लग गया-उछलना-कूदना, अपने छोटे भाई के साथ खेलना, अपनी बातों को उससे मनवाना, न माने तो उसे मारना, अपने मनपसंद कार्टून चैनल पर अपने चिरपरिचित पात्रों के क़रतब देखना, घर के किसी सामान से कोई भी नया खेल इज़ाद कर लेना आदि।  

रात में सोते समय गरिमा कहने लगी, "अजी सुनिए तो ज़रा, बच्चे की ज़िद पर कान देने की इतनी क्या ज़रूरत है भला!। कुछ महीने ही तो हुए हैं उसे यह बैग दिए हुए। सारांश दिनों दिन ज़िद्दी होता चला जा रहा है। उसकी हर ज़रूरत को पूरी करने की ऐसी क्या अनिवार्यता है! वैसे भी अपने छोटे से घर में अनावश्यक सामान रखने की जगह तो है ही नहीं। थोड़ी बहुत जो जगह है, उसे आप की पुरानी किताबों, डायरियों और फाइलों ने घेर रखी है।

मानो मेरी किसी कमज़ोर नस पर गरिमा ने हाथ रख दिया हो, मैं एकदम से बिलबिला उठा। मैंने किसी तरह अपने गुस्से को ज़ज़्ब करते हुए कहा, एक छोटे से बैग को रखने के लिए घर में जगह का रोना रोने की भला क्या ज़रूरत है! हाँ, इसे ही तिल का ताड़ बनाना कहते हैं।

मेरी आवाज़ उखड़ने लगी थी। बहस को शायद आगे न बढ़ाना चाहती हो, गरिमा चुप ही रही।

अगली सुबह जब मैं सारांश को उसके स्कूल वैन तक छोड़ने जा रहा था, वह विश्वासपूर्वक मुझसे पूछ रहा था, पापा, आप जब शाम को आप ऑफिस से घर आओगे, तब मेरे लिए बैग लाओगे ना!

हाँ।

मगर पाँच साल के बच्चे वाला ही लाना। अब मैं पाँच साल का हो गया हूँ ना! बड़े बच्चे के लिए बड़ा वाला बैग।

हाँ भई हाँ, आपके लिए बड़ा बैग ही आएगा और वह भी पावर रेंजर्स वाला। ठीक है! मैंने उसकी पीठ पर एक नर्म सी धौल जमाई।

बाय…”, स्कूल वैन से पीछे मुड़कर सारांश आज कुछ ज़्यादा ही देर तक अपना हाथ हिलाता रहा। ख़ुशी में, विश्वास में हँसते हुए उसके नन्हें-नन्हें दूधिया दाँत कुछ अधिक ही चमक रहे थे। प्रत्युत्तर में मेरा दायाँ हाथ देर तक हिलता रहा। सारांश का स्कूल-वैन कब का मेरी आँखों से ओझल हो चुका था।


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