Arpan Kumar

Inspirational

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Arpan Kumar

Inspirational

पढ़ाते हुए पिता

पढ़ाते हुए पिता

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अपने स्कूल के दिन भला किसे याद नहीं रहते! वे न सिर्फ़ हमारी अनगढ़ता के दिन होते हैं बल्कि उसी अनगढ़ता में हमारे बनने के दिन भी होते हैं। आज जब मैं अपने बच्चे को शहरी मध्यम वर्ग की सुविधाओं सहित जीता हुआ देखता हूँ तो उनके साथ अपने बचपन और अपनी किशोरावस्था को भी जीता हूँ। सबके हिस्से अपने अपने हिसाब से सुख और दुःख आते हैं। ऐसे में हमें हमारे रोजमर्रा के पलों को सहेजना होता है। आज का हमारा यह वर्तमान ही कल की हमारी स्मृतियों का कोठार है।" अविनाश कश्यप आठवीं में पढ़ रहे अपने बेटे आदित्य को पढ़ाते हुए अपनी डायरी में यह सब दर्ज़ करता चला जा रहा था।

एक सॉफ्टवेयर कंपनी में सीनियर सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करता अविनाश जब-तब समय निकालकर अपने बेटे को इन दिनों गणित पढ़ा रहा है। उसे पढ़ना-पढ़ाना और अपनी अनुभूतियों को दर्ज़ करते जाना अच्छा लगता है।

सातवीं तक आदित्य को उसकी माँ एकता ने ही पढ़ाया। मगर आठवीं से सिलेबस अपेक्षाकृत भारी हो उठा था और विज्ञान को छोड़ किसी और विषय को पढ़ाने में एकता को अब दिक्कत आने लगी थी।

आठवीं में आदित्य का पहला टर्म काफ़ी ख़राब गया था। सो सबसे पहले अविनाश ने स्वयं से कुछ संकल्प किया और नौकरी से बचा सारा समय उसने अपने बेटे को देने का निर्णय लिया। इधर पिछले छह महीनों में वह विकेंड पर दिन-दिन भर अपने बच्चे को पढ़ाता रहा।

शुरू में आदित्य को यह सब भारी लगा मगर अपने स्कूल के दिनों की कहानियों से अविनाश ने अपने बेटे आदित्य को प्रोत्साहित करने का काम किया। इस क्रम में उसने अपने स्कूली जीवन के कई क़िस्से आदित्य को सुनाए। शहर में ही जन्मी, पली-बढ़ी एकता को शुरू में ये क़िस्से अजीब और गँवारू लगे, मगर जब उसने अपने बच्चे पर इनके सकारात्मक प्रभावों को पड़ते देखा तो उसे भी ये क़िस्से अच्छे लगने लगे।

पढ़ाई के बीच बीच में आदित्य अपने पिता को मज़ाक में 'ऑल द बेस्ट' फिल्म से डॉयलॉग सुनाता " ढोंढू, जस्ट चिल।" हू-ब-हू फिल्म में इसे बोलनेवाले अभिनेता की नकल करता हुआ।

आदित्य ने उस दिन भी कहा। अविनाश आदतन मुस्कुराया। आदित्य ने कहा, “पापा,चंडीगढ़ टूर के बाद आज पहली बार इसे कहा है। काफ़ी दिन हो गए न!"

"हाँ", अविनाश ने मुस्कुराते हुए कहा। अविनाश जानता था बीच-बीच में ये हँसी-मज़ाक कितने ज़रूरी है। ये एक तरह से स्ट्रेस-रिलीजर का काम करते हैं।

उस दिन अविनाश उसे क्षेत्रमिति में 'ट्रैपेजियम' पढ़ा रहा था। उसके फॉर्मूले और उससे जुड़े कई प्रश्न। ऑक्टागन, हेक्सागन जैसी आकृतियों में छिपे ट्रैपेजियम व दूसरी ज्यामितीय आकृतियों के क्षेत्रफल को बताना अब अविनाश के लिए चाहे रोचक और मनोरंजक हो, मगर आदित्य को अभी इसे साधना था। दोनों दो अलग अलग धरातलों पर खड़े थे। उम्र और अनुभव हर लिहाज़ से।

अविनाश ने अपनी डायरी में लिखा, "बहुत मुश्किल है किसी को पढ़ाना, अगर वह पढ़ना न चाहे। बहुत आसान है किसी को पढ़ाना अगर वह आगे बढ़कर उत्साह दिखाए और रुचि ले!"

"बुक भी एक साइलेंट टीचर ही तो है। चाहो तो तुम उदाहरण देखकर भी काफ़ी कुछ सीख सकते हो।"

"तुमको सी.आई.डी. की तरह प्रश्न में चाहे गए उत्तर को किसी क्रिमिनल की तरह पकड़ना होगा। जिस तरह किसी लापता क्रिमिनल को पकड़ने के लिए पुलिस उसके माता-पिता, घर-बार, दोस्त-यार,आस-पड़ोस जैसी उससे जुड़ी हर जगह को खंगालती है, मगर वह यह नहीं भूलती है कि वह यह सब कवायद उस क्रिमिनल को पकड़ने के लिए कर रही है। तुम्हें भी अर्जुन की तरह 'ट्रैपेजियम' के 'एरिए' पर फोकस करना है। अगर उसकी हाइट या उसके समांंतर साइड को निकालना है तो उसे बीच के 'इंवेस्टीगेशन' का पार्ट मानो। यह सब अंततः 'ट्रैपेजियम' या किसी दूसरे 'क्वार्डलेटरल' के क्षेत्रफल को निकालने के लिए ये टूल्स के रूप में हैं।"

बीच बीच में ऐसे वाक्य अविनाश के अनुभव-जगत से बाहर आते रहते।

कुछ देर के लिए आदित्य, स्टडी-रूम से बाहर गया। खाने की पसंद/ नापसंद को लेकर माँ-बेटे के बीच झगड़ा हुआ।

"मेरा कलेजा तवा पर फ्राइ करके खाएगा?" यह एकता के चीखने की आवाज़ थी।

"मैं नहीं खाऊँगा दोपहर में।" यह आदित्य की चिड़चिड़ाहट थी और वह अपनी ज़िद को लेकर अविचलित था।

"मैं नहीं खाऊँगा, ‘मैं नहीं खाऊँगा" , कहता हुआ आदित्य,अविनाश के कमरे में आ गया।

"क्या खाओगे आदित्य", एकता ने चिढ़ते हुए किचन से ही पूछा।

ये छोटी-छोटी चीज़ें अविनाश को शोर से भरी दिखतीं। मगर गृहस्थी के बढ़ते अनुभवों के साथ वह यह जान गया था कि हर चीज़ को ठीक नहीं की जा सकती है। वह निरपेक्ष बना रहा। कुछ देर में दोनों माँ-बेटे एक हो जाएँगे और अगर मैं कुछ बोला तो दोनों के लिए 'विलन' हो जाऊँगा। मैं तो बस बच्चे को पढ़ाने तक ही ठीक हूँ। यह सोचते हुए अविनाश को मन ही मन हँसी आई। उसके होंठ फैलकर पुनः सिमट गए।

कुछ देर की ज़द्दो-ज़हद के बाद किसी तरह माँ-बेटे दोनों आलू-पराठे पर सहमत हुए।

"बाकी विषय एक तरफ़ और मैथ एक तरफ़। देखो आदित्य, खाने-पीने के मुद्दे को कम से कम समय में निपटाओ। तभी तुम्हें स्टडी के लिए समय मिल पाएगा। क्योंकि अकेले 'मैथ' तुम्हारा काफ़ी समय लेगा। फिर शाम में देर तक खेलना और नींद भर सोना भी ज़रूरी है। ऐसे में झगड़े, टीवी या मोबाइल में समय गँवाओगे, तो तुम्हारा कोर्स कंपलीट नहीं होगा। बाक़ी विषय कमोबेश याद करने से पकड़ में आ जाते हैं, मगर मैथ में , बेटा, समझना पड़ता है। ख़ूब सारी प्रैक्टीस करनी पड़ती है।"

आदित्य यह सब बड़े ध्यान से सुन रहा था। वह अपने गिरते रिजल्ट से दुःखी था मगर इतना अभ्यास करने से वह घबरा रहा था। अविनाश ने समझाने की कोशिश की, " देखो बेटा, अगर तुमने मैथ को एंज्वॉय नहीं किया, तो मैथ तुम्हें भारी लगने लगेगा।"

अविनाश ने आदित्य के भीतर से मैथ का डर भगाने की गरज से कहा, "गणित के किसी प्रश्न को तुम मज़ाक की तरह लो। समझो कि तुम 'बाहुबली' हो और ये प्रश्न तुम्हारे बाएँ हाथ के खेल हैं। मानो कोई तुमसे मज़ाक कर रहा है। अधिक से अधिक प्रैक्टिस मतलब अधिक से अधिक जोक क्रैकिंग।"

आदित्य लिखते हुए ज़्यादातर एक ही हाथ का इस्तेमाल करता। अविनाश ने बताया, "बेटे, दोनों हाथों का इस्तेमाल करो। सिर्फ़ एक हाथ से लिखना तुम्हारी अरुचि को दिखलाता है। बाएँ हाथ से कॉपी के कागज़ को पकड़ो और दूसरे हाथ से उसपर लिखो। हमें लिखते हुए फर्म होना पड़ेगा। तभी हमारा लिखा हुआ भी स्पष्ट होगा।"

"खेलने और पढ़ने के अलावा सारा समय तुम पढ़ाई को दो। तब तुम टिक पाओगे वरना टिकना मुश्किल है। तुम देख लो, क्लास 'ऐट' से ही मैथ भारी होना शुरू हो जाता है। अब पिछली आदतें तो छोड़नी ही पड़ेंगी। ज़्यादा पढ़ना होगा।"

"मान लो कि पूरा कोर्स दिल्ली है। तुमको दिल्ली तक जाना है। ऐसे में तुम एक ही सवाल में अटके हुए या एक ही चैप्टर में घुसे हुए नहीं रह सकते। यह तो यही हुआ कि तुम सुबह से शाम तक जयपुर में ही अटके रह गए, जबकि तुम्हें दिल्ली तक जाना है। सवाल बनाते हुए तुम्हें यह भी याद रखना होगा कि तुम्हें अभी और क्या क्या बनाना है! तुम्हारा सिलेबस अभी और कितना बचा है! तुमको यह सब देखना है।"

 

"उदाहरण देखकर बनाओ। फिर समझो। फिर भी जो न बने मुझसे पूछो। ट्यूटर से पूछो। मगर इसके पहले तुम्हें ख़ुद भी बहुत सारे सवाल बनाने पड़ेंगे।"

अविनाश हर बार अपने बेटे से और कई तरह की बातें करना चाहता, मगर वह लगातार देख रहा था कि उसे पढ़ाने से ही फुर्सत नहीं मिल रही है। ऐसे में कभी उसके सिर के बालों में तेल लगाकर, उसके कंधे दबाकर तो उसकी कमर दबाकर वह उससे अपने प्यार का इज़हार करता। खाना खाते हुए टीवी चलने पर आदित्य के प्रोग्राम को वह 'इंज्वाय' करने की भी कोशिश करता।

     

अविनाश एक गाँव में पढ़ा है मगर उसे वहाँ रहते हुए भी पढ़ने और आगे बढ़ने के ख़ूब अवसर मिले हैं। उसके पिता ने उसे वहाँ खूब पढ़ाया था। वह यह सब बीच बीच में अपने बेटे को सुनाता। उसे अपने पिता की ख़ूब याद आती।

अविनाश ने उस दिन अपनी डायरी में लिखना शुरू किया, " अपने बच्चे को पढ़ाते हुए मैं भी अपने पिता की तरह होता चला जा रहा हूँ।..."

अविनाश अपने बिस्तर पर आराम कर रहा था। उसे कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला। आदित्य चुपके से अपने हाथों बनाया 'ग्रीटिंग कार्ड' लेकर आया और अविनाश के बगल में रखकर चला गया। 'हैप्पी फादर्स डे पापा। यू आर द बेस्ट फादर ऑफ दिस अर्थ।"

शाम पाँच बजे अविनाश की नींद टूटी। अपने बच्चे के हाथों बनाए कार्ड को देखकर उसकी आँखें नम हो उठीं। अविनाश ने अपनी डायरी देखी। आज वर्ष 2017 का यह तीसरा रविवार था। 18 जून की यह तारीख़ उसकी डायरी में आज कुछ अधिक सुनहरे रंग में चमक रही थी।

अविनाश ने आदित्य को गले से लगाया और बोला, " थैंंक्यू बेटा। लव यू। यू आर द बेस्ट सन ऐज एवर। आज नो अल्जबरा , नो मेंश्यूरेशन; ओनली सेलिब्रेशन ऐंड सेलिब्रेशन।"

पिता-पुत्र और माँ की समवेत हँसी से पूरा फ्लैट कहकहा उठा। पश्चिम की बालकनी से सूरज की रोशनी डायनिंग स्पेस में झाँक रही थी। ऐसा लगा कि इनकी हँसी को निहारने और इन्हें आशीष देने सूरज स्वयं इन तक अपने पाँवों चल कर आया हो। ख़ुशियों का सूरजमुखी कभी भी खिल सकती है। जैसे इस समय जयपुर में मानसरोवर के 'सनराइज अपार्टमेंट' के 'फ्लैट नंबर 510 में शाम सवा पाँच बजे यह खिला हुआ था। सूरज का वश चलता तो आज वह डूबता ही नहीं।

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