"चायकला "
"चायकला "
मन कर रहा है कि कुछ मजेदार पल आपसे साझा कर लूं.........
बात तब की है,जब हम सातवीं कक्षा में पढ़ते थे, बड़े होनहार माने जाते थे। हँसिये मत, हमें पता है, मन ही मन सोच रहे होंगे कि बता लो अपने को होशियार, कोई गवाही तो देने आयेगा नहीं, कि कैसे थे, पर सच बता रहे हैं कि हमारी गिनती होशियार बच्चों में थी, पढ़ाई में होशियार होने के अलावा हर एक्टिविटीज में भाग लेते थे।
उस जमाने में स्कूलों में कल्चरल प्रोग्राम होते थे, बच्चे मंच साझा करते थे, कविता, भाषण, नाच, नृत्य ,गीत,नाटक मंच पर प्रस्तुत करते थे,तालियाँ बटोरते थे, बड़ा नाम होता था।
आज जैसे नहीं कि नर्सरी के बच्चे को प्रोजेक्ट दिया जाता है, दो ढाई साल का बच्चा क्या प्रोजेक्ट बनाएगा,सो मम्मी बनाती हैं, जमा करवाती हैं, तुर्रा यह कि साल खत्म होने पर मार्क्स मिलते है,गुड,बैटर,बेस्ट मिलता है,माने बच्चा नहीं मम्मीयां पास फेल होती है?
पर बात हमारे जमाने की है, जब अधिकांश माँ कम पढ़ी लिखी होती थीं, पिताजी का काम फीस भरना,बस्ता कापी किताब खरीद कर पूरा हो जाता था, वे सिर्फ पढ़ने के लिए डांटा करते थे, पढाते नहीं थे, रिजल्ट खराब आने पर धुनते थे, स्कूल से शिकायत आने पर धुनते थे। बच्चा अगर वाकई पढाई में कमजोर है, तो एकाध ट्यूशन लगवा देते थे, फिर बच्चा जाने,टीचर जाने, वे उसी दिन जानते थे,जब रिजल्ट आता था, फेल हुए तो धुनाई पक्की।धुनाई बेटों की होती थी, हम बेटियों को कड़ी डांट पड़ती थी।
हाँ तो, कल्चरल प्रोग्राम में हिस्सा लेना है तो जोड़ तोड़ कर खुद ही भाषण लिखो, खुद ही कविता लिखो,भाग लो, घर में किसी को पता ही नहीं होता था, कि स्कूल में हम क्या क्या करते हैं । पर तब भी यह बात सही थी कि टीचर ऐसे बच्चों की कदर करती थीं, कोई परेशानी होने पर मदद भी करती थीं एक और बात, तब एक ही कक्षा के बच्चे दो श्रेणी के होते थे, एक वो जो पहले दिन ही सामने की बेंच छिकाते थे, दूसरे वो जो पहले दिन ही पीछे की बेंच पर जाकर बैठ जाते थे।हम पहली श्रेणी के साथ थे। हर काम में आगे आगे । ऐसे ही पंद्रह अगस्त के प्रोग्राम की तैयारी हो रही थी, हमारी क्लास टीचर ने पूछा , कौन कौन भाग लेगा, हमने अपना नाम भाषण मे लिखवा दिया, हमारी ही क्लास की
एक सहेली ने नृत्य में नाम लिखवा दिया। प्रोग्राम होने से पहले रिहर्सल होती थी, क्लास टीचर देखतीं थीं कि उनके कक्षा के बच्चे कैसी तैयारी के साथ
हैं, हमारा तो भाषण था, सो कोई बात नहीं, "बहनजी," हमारे स्कूल में तब महिला टीचर को बहनजी ही कहा जाता था, मैडम कहने का रिवाज नहीं था, सर को सर ही कहने का रिवाज था।तो बहनजी ने कहा कि नाच और गा कर दिखाओ, हमारी सहेली, पहले ही बता दे रहे हैं, सहेली थी, तब हम एक ही क्लास की होने की वजह से सहेलियां होते थे, और खास सहेलियों के अलग अलग गुट होते थे। घनिष्ठ नहीं थी, थोड़ा शरमाते ,झिझकते सामने आई,और नाचते हुए गाने लगी, अब यहाँ हम नाच तो नहीं दिखा सकते, पर जिस गीत पर वह नाच रही थी,उसे लिख सकते हैं, जरा गौर फर्माइए.....
मैया चाय कला बनती
काली भी बनती
सफेद भी बनती
मैया, चाय कला बनती
इलायची वाली बनती
अदरक वाली बनती
मैया, चाय कला बनती
आगे गाने, नाचने की नौबत ही नहीं आई,,पूरी कक्षा बहनजी समेत ठहाका लगाकर हँसने लगी, सभी इतना हँसे कि मुंह बंद ही नहीं हो रहा था, सहेली जोर जोर से रोने लगी, तब हँसी पर ब्रेक लगा, बहनजी की हँसी भी रूक गयी, सभी सहेली को चुप कराने लगे, सभी को हँसने पर आधा घंटा बेंच पर खड़े रहने की सजा मिली, सिवाय बहनजी के?
क्योंकि सजा तो उन्होंने दी थी। अपने हँसने की सजा खुद को कैसे देतीं ? तब से लेकर आज तक यह गीत, कविता कुछ भी कह लीजिए, नहीं भूले, आज भी जब चाय बनाती हूँ, इस गाने और नाच को याद करती हूं और हँसती हूं ।
इस गाने और नृत्य को मंच न मिलना था और न मिला ।