Aaradhya Ark

Fantasy Inspirational

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बुढ़ापा अभिशाप नहीं

बुढ़ापा अभिशाप नहीं

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उम्र पैंसठ, घुटनों में आर्थराइटिस, कहाँ तक वह भाग -दौड़ सकती थी।


पर सुधाजी की हिम्मत ज़ब भी टूटती उन्हें अपने पति गिरधर जी के कहे शब्द और उनके द्वारा लिखे हुए खत की पंक्तियाँ बहुत संबल देती थीं। आज गिरधर जी को गए हुए दो साल हो गए थे। उनकी बरसी की पूजा थी। सुधाजी की आँखों से आँसू रुक ही नहीं रहे थे। प्रसाद की थाल लेने रसोई जाते हुए अपने कमरे में आँसू पोंछने और खुद को थोड़ा संयत करने गईं तो सामने टंगी हुई अपने गिरधर की तस्वीर पर नज़र गई। सुधाजी को लगा... जैसे वह अभी बोल पड़ेंगे, "रोना बंद करो राधिके! हम तो तुम्हारे आस पास ही हैं!" उन्होंने आँसू पोछते हुए तस्वीर की ओर देखा तो मन ही मन में बुदबुदा उठीं।


"देखो तो, आज भी ये छलिया कैसे मुस्कुरा रहा है, जैसे अभी सामने होता तो मुझे गले से लगा लेता "


सोचते हुए इस उम्र में भी सुधा शर्म से जैसे लाल बहूटी बन गई थी। थोड़ी देर को वह गिरधरजी की तस्वीर के सामने खड़ी हो गई थी। हमेशा से उन्हें अपने पति की यही तस्वीर तो पसंद थी, क्यूँकि इसमें उनकी आँखें बहुत बोलती हुई सी प्रतीत होती थीं।


आज लगता है, जैसे कल की ही बात हो, जब वो दुल्हन बनकर इस घर में आईं थीं। गृहप्रवेश करते हुए अपने काँपते, लरजते हाथों में एक मज़बूत और भरी हुई हथेलियों का स्पर्श आज भी महसूस कर रही हैं वो। कभी कभी कोई एक पल सिर्फ एक पल का हमारे जीवन में बहुत महत्व हो जाता है क्योंकि उस वक़्त कुछ खास घट रहा होता है। और सुधाजी की ज़िन्दगी में भी यही वह पल था जब उन्होंने मन ही मन अपने जीवनसाथी पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। बाद में भी कई रस्मों के दौरान उन्होंने अपने नटखट गिरधर जी की शैतानियाँ महसूस की थीं और लाज से कुछ और सिमट जाती थीं।


वैसे तो सीधी सादी मधुर कंठ की स्वामिनी सुधा गिरधर जी की माँ की पसंद थी। पर माँ की पसंद कालांतर में अपने सौम्य व्यवहार और मेहनती स्वभाव से घर में सबकी चहेती बन गई थी। गिरधर जी को बहुत पसंद थी सुधा और उन्होंने बेहद प्यार किया था अपनी पत्नी को।


अंगूठी ढूंढाई के रस्म में उंगलियों को पकड़ लेना और फिर अपनी नवोढ़ा पत्नी से उस रस्म में हारकर उन्होंने ज़िन्दगी भर के लिए सुधाजी का दिल जीत लिया था।


कई बार सिर्फ कुछ पल के साथ में जो एक दूसरे को नहीं समझ पाते वह जिंदगी भर आमने-सामने रह कर भी बमुश्किल ही एक दूजे को जान पाते हैं।

निर्भर इस बात पर करता है कि इस एक पल मे आप कहाँ और क्या अवलोकन करते हैं साथ ही किस तरह से करते हैं।


लगता है...गिरधरजी ने सप्तपदी के तमाम कसमों में उस फेरे को उल्टा ही सुन लिया था, जिसमें पत्नी अपने पति से पहले जाने की अनुमति चाहती है।


तभी शायद उम्र के अंतिम दौर में सुधाजी से पहले चले गए थे।


वैवाहिक जीवन का तीसरा दशक सबसे सुहाना था। ज़ब बच्चे थोड़े बड़े हो रहे थे और उन दोनों को एक दूसरे के लिए ज़्यादा वक़्त मिलने लगा था। पर...नियति को इन दोनों के साथ से कुछ कुछ ईर्ष्या हो चली थी शायद। तभी कैंसर जैसे रोग के चपेट में आ गए गिरधर जी। वो भी पता ज़ब तक चला तब तक रोग अपने अंतिम चरण में था और इनके पास गिनती के दिन रह गए थे।


यहाँ तक की ज़ब जाँच के दौरान डॉक्टर ने पूछा कि "इतनी देर से क्यूँ इलाज शुरू कर रहे हैं?' तो उसके जवाब में भी वो हँसने हंसाने से बाज़ नहीं आए।

"अरे, हमें अपनी पत्नी से ही प्यार करने से फुरसत नहीं है तो बीमारी पर ध्यान कैसे जायेगा! "


फिर कैंसर जैसी बीमारी की विभिषिका सामने थी। लेकिन गिरधरजी के नाटकीय अंदाज़ पर पनियाली आँखों में भी सुधाजी को हँसी आ गई और डॉक्टर भी हँस पड़े थे। बहुत ज़िंदादिल जो थे गिरधर जी।इलाज करवाने में बेटे राघव और बिटिया सोंधी ने पैसे पानी की तरह बहाये और सेवा सुश्रुषा में भी कोई कमी नहीं की, फिर भी अपनी शादी की सालगिरह के दो दिन पहले वो इस दुनिया से चल पड़े थे। सुधाजी की तो दुनिया ही वीरान हो गई। चारों तरफ सिर्फ गिरधर की यादें। क्या करें, उनका विछोह जैसे एकदम नहीं सहा जा रहा था।

उनकी मृत्यु के दूसरे दिन ही बेटे ने गिरधरजी की डायरी लाकर दी, जिसमें गिरधर जी ने सुधा के लिए कई सारी बातें लिख रखी थी।


गिरधरजी ने उनको लक्ष्य करते हुए लिखा था।


प्रिय सखी ...

(वो हमेशा अपनी पत्नी को सखी ही तो कहते थे )


मुबारक़ हों तुम्हें शादी की सालगिरह।


देखो आज 10 तारीख है और दो दिन बाद ही 12 अगस्त को हमारी एनिवर्सरी है, पता नहीं तब तक मैं अपनी साँसे इस शरीर में बचा रखूँगा या उसके पहले ही खर्च हो जाऊँगा।

तुम्हें आगे के जीवन के लिए मुबारकबाद दे रहा हूँ। ना... ना... राधिके अपने गिरधर को अपनी बड़ी बड़ी आँखों में आँसू भरकर ऐसे मत देखो। मुबारकबाद इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि ज़िन्दगी बहुत कीमती ही नहीं बहुत ही बेशकीमती है ! आज मुझे देख लो, कितना भी कोशिश करूँ जीवन का एक दिन भी मुझे नहीं मिल सकता।मैं तुम्हें छोड़कर पहले इसलिए जा रहा हूँ, तबतक अपने लिए जी लो. बाद में जब मेरे पास आओगी तो तुम्हें एकदम वक़्त नहीं दूँगा।


पढ़ते पढ़ते रोते हुए भी मुस्कुरा पड़ी थी सुधाजी।


गिरधर जी ने आगे जो पंक्तियाँ लिखी थी वह सुधा जी के लिए हर दिन सुबह उठने और उस दिन को भरपूर जीने की एक खूबसूरत वज़ह बन गई थी।


ये पंक्तियाँ हमेशा उत्साह वर्धक टॉनिक का काम करती थी सुधाजी के लिए।


राधिके, आगे अपने शौक पूरे करना और हर शाम अपने संगीत की स्वर लहरी ज़रूर छेड़ना, मैं सुनूंगा। तुम्हें तो पता है, संगीत की झंकार, स्वर का कंपन अनुनाद की तरह यूनिवर्स में फ़ैल जाता है।


याद रखना, सबकुछ खत्म होने के बाद भी ज़िन्दगी बाकी रह जाएगी, उसे खूबसूरती से जीना चाहिए। रो धोकर, कोसकर नहीं।अभी मैं जीना चाहता हूँ पर अपनी कुछ साँसे भी मेरी नहीं है। इसलिए जीवन अनमोल है इसे हर हाल में स्वीकार करना।


अंत में बड़ी सारगर्भित पंक्ति लिखी थी सुधाजी के गिरधर ने।


तुम खुश रहो और स्वस्थ रहते हुए बिना किसी का मोहताज हुए तुम्हारे जीवन के इस सफ़र का अंत भी सुखद रहे, यही कामना है।

मृत तो सिर्फ शरीर होता है, प्रेम तो सर्वदा जीवित रहता है और साथ चलता रहता है निर्बाध, निरंतर...!


फिर से शादी की सालगिरह की शुभकामनायें।


तुम्हारा सखा -गिरधर-


पढ़कर उस वक़्त तो सुधाजी बहुत रोईं थी पर बाद में लगभग हर दिन उस डायरी को पढ़ती ज़रूर थी और फिर नए उत्साह से भर जातीं थीं। आज पुरे दो साल हो गए गिरधर को गए हुए।

इस बीच हर शाम वो उनकी पसंद का गाना ज़रूर गातीं।


"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई."


सुधाजी जानती थीं इसका अनुनाद स्वरलहरी कंपन के ज़रिये वातावरण में घुलेगा तो मेरे सखा तक अवश्य पहुँचेगा। और इन मनोरम पंक्तियों को गाते हुए उन्हें लगता कि आसपास ही हैँ उनके गिरधर और उनके गाने को सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रहें हैँ। बस अभी मेरे पार्श्व में बैठकर सुर साधने ही वाले हैँ।


सुधाजी अपनी यादों के भंवर में गिरधर से कुछ और बात करतीं कि तभी राघव बुलाने आ गया,"मम्मी! पंडितजी बुला रहे हैँ "

"अभी आती हूँ बेटा!"


बोलते हुए सुधाजी यूँ हड़बड़ाई जैसे शादी के शुरुआती दिनों में उन्हें और गिरधर को छुप छुपकर एक दूसरे को देखते हुए कभी सास या ननद पकड़ लेती थी तब उन्हें ऐसा ही लगता था जैसे चोरी करते पकड़ी गई हों।


आज भी चुपके से सुधाजी ने जाते जाते अपने गिरधर की फोटो को देखा जैसे कह रही हों, बस आ रही हूँ।


तभी उन्हें लगा, तस्वीर से उनके नटखट ने मुस्कुराकर उन्हें देखा है और शरारत से एक आँख दबा दी है। सुधाजी भी लज़ाकर चुपके से मुस्कुरा पड़ी।


पूजा के धूप, दीप, अगरबत्ती की खुशबू हवाओं में बिखर रही थी, जैसे गिरधर जी कहीं आसपास है।


एक उजास सी थी चारों तरफ। सुधाजी को पता था, ये उनके अंतस में निहित गिरिधरजी का प्यार है जो एक व्योम से निकलकर विस्तृत हो रहा है। भावुक होकर वो सोच रहीं थीं। उम्र से नहीं आता बुढ़ापा बल्कि बूढ़े होने के एहसास से आता है।


सच तो कहा था सुधाजी के सखा ने,

मृत तो सिर्फ शरीर होता है, प्रेम तो सर्वदा जीवित रहता है और साथ चलता रहता है निर्बाध, निरंतर...!


अभी कहाँ फुरसत थी उन्हें। पोती का ब्याह देखना था। पड़पोते को गोद में खिलाना था। जो काम गिरधर जी अधूरा छोड़ गए थे उसे तो पूरा करना ही था। क्या हुआ जो अब आँखों से कम दीखता है... और क्या ही हुआ जो घुटनों में आर्थराइटिस का दर्द रहा करता है। उम्र का काम है बढ़ना और हमारा काम है वक़्त के साथ चलना। ज़िन्दगी हर हाल में जीने लायक है क्योंकि ज़ब साँस थमने को होती है तो उस एक... वक़्त में जीने की बड़ी तेज़ ख्वाहिश सी जगती है। इसलिए उम्र के हर पड़ाव को ख़ुशी ख़ुशी जीना चाहिए। और बुढ़ापा को अभिशाप समझकर या उम्र काटने के हिसाब से नहीं बल्कि जिंदगी को महसूस करके जीना चाहिए। अपनों का साथ और प्यार हो और मन में जीवन के प्रति उत्साह हो तो बुढ़ापा भी उम्र का एक अच्छा दौर हो सकता है।


आज पैंसठ वर्ष की आयु में भी सुधाजी अपने अंदर एक स्फूर्ति और जीवन के प्रति एक जोश, एक उमंग महसूस कर रही थी। वह अपने बुढ़ापे को कोई अभिशाप नहीं समझती बल्कि हमेशा हौसला बनाए रखने की कोशिश करती हैँ ।


जैसा सुधाजी ने अपनी जीवन संध्या को अपने पति गिरधर की यादों से रौशन कर रखा था। वैसे ही हर किसीको अपने जीवन का कोई उद्देश्य कोई लक्ष्य ज़रूर मिल जाता है। बस ज़रूरत है अपना नज़रिया बदलने की और ज़िंदगी को हर रूप में स्वीकार करने की।



(समाप्त )


प्रिय सखियों, कल जो होता है उसका स्वरुप वर्तमान में कुछ बदलता तो है। क्रर्मशः भविष्य में ज़िन्दगी कुछ और रंग भर देती है मन में, जीवन में।

इसी को लक्ष्य करके लिखी गई मेरी यह रचना आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रही है. सबके सुझाव का समीक्षा का स्वागत है.

धन्यवाद






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