Virender Veer Mehta

Romance

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Virender Veer Mehta

Romance

बरसता सावन

बरसता सावन

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252


रूत तो बहुत आई बरसात की, भीगना अच्छा ना लगता था।

इस बार न जाने क्या बात हुयी, घँटों भीगती रही बरसात में।. . .


चार वर्ष पहले राज को लिखा अपना ख़त पति के कागजों में देख; मैं हैरान हो गयी।


"आखिर मेरा ख़त यहां कैसे आया, क्या सागर मेरे अतीत के बारे में जानता है?" ये विचार मन में आते ही मैं तनाव से घिर गयी। राज को मेरा लिखा ख़त सागर तक कैसे पहुंचा, बस यही सोचते-सोचते मैं ख़त को हाथ में लिए बाहर 'गार्डन' में आ बैठी। मौसम की ठंडी हवाओं के झोंको के साथ, मैं कब अतीत के संग बहती चली गई मुझे ख़ुद भी पता नहीं लगा। 


राज! जिसे बरसात की ठंडी फुहारों में सड़कों पर भीगना बेहद पसंद था और मैं जो बारिश के नाम से ही डरती थी, 'कॉलेज-कैंपस' में ही एक दूसरे से मिले थे और जल्दी ही नजदीक आ गये थे। कैंपस से शुरू हुआ हमारा प्यार 'ग्रेजुएशन' के पूरा होते-होते बहुत गहरा हो चुका था।


"क्या जानेमन तुम भी बरसात के पानी से डरती हो। आओ, आज तुम्हे भी इस रोमांटिक पानी से प्यार करना सिखा दूँ।"


हर आने वाली बरसात पर उसका मुझे खींच कर अपने आगोश में ले लेना और पानी की ठंडी फुहारों में भिगों देना; कुछ इतना रोमांटिक होता था कि उसके इस बरसाती प्यार ने कब मुझे भी बारिश का दीवाना बना दिया, पता ही नहीं चला।


'ओ माय लव. . . ओ माय लव. . . ' 'मोबाइल' की घंटी ने अचानक ही मुझे अतीत से बाहर ला पटका। सागर का ही फोन था।


"डार्लिंग, क्या कर रही हो?" मेरे जवाब की प्रतीक्षा करे बिना ही सागर ने अपनी बात कहनी शुरू कर दी थी। "चलो छोड़ो, सुनो शाम को तैयार रहना, जल्दी आ जाऊंगा। कहीं बाहर चलेंगे शाम को, कुछ 'चेंज' हो जाएगा, ओ.के. बाय स्वीट हार्ट।" और फोन कट गया।


यही आदत थी सागर की, अक्सर सीमित शब्दों में अपनी बात करता था और जब कभी मुझे अधिक उदास देखता तो यूँ ही कहीं बाहर ले जाता। लेकिन. . . ! 

मेरा मन फिर उसी सवाल पर आ रुका।


लेकिन अगर सागर मेरे अतीत के बारे में जानता है तो फिर उसकी मेरे लिए इतनी मोहब्बत, इतनी 'केयर' कैसे... क्या सिर्फ ये सब एक दिखावा है या फिर सच कुछ और है। लेकिन क्या... ? तनाव और बढने लगा था, सोचते सोचते मैं फिर यादों की आगोश में जा बैठी। 


. . . 'जिंदगी जिन्दादिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते है' को अपना आदर्श मानने वाला वाला राज अक्सर ख़ुशी में 'जिदगी एक सफ़र है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना' गुनगुनाया करता था लेकिन तब मैं भी नहीं जानती थी कि उसके ये शब्द हमारी मोहब्बत को किस मुक़ाम पर ले जा कर छोड़ने वाले हैं। 

. . . पता ही नहीं लगा, राज ने कब 'आर्मी ज्वाइन' की और कब सरहद के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर दी। साथ जीने साथ मरने की कसमें खाने वाले उन लम्हों के बीच ये सब कब और कैसे हुआ, मैं कभी समझ ही नहीं पायी। मैं तो इस सच को तभी स्वीकार कर पायी जब 'डिप्रेशन' के तीन महीने अस्पताल में गुजारने के बाद मैं अस्पताल से घर लौटी।

 

शाम होने लगी थी और मैं भूल चुकी थी कि सागर ने आज जल्दी आने और मुझे तैयार रहने के लिए कहा था, मैं तो अपने अतीत में डूबी उन्ही दिनों में खोयी हुयी थी जब अस्पताल से घर लौटने के बाद मैं एक 'रोबोट' बन कर रह गयी थी जो सिर्फ मशीन की तरह जीवन जीने लगी थी। शायद यही वह समय था जब मेरे लिए सागर का रिश्ता आया था। घर परिवार में सभी ने अपने अपने तरीके से पुरानी बातों को मन में दफ़न कर एक नया जीवन शुरू करने के लिए मेरे उपर दबाब बनाया और इन्ही हालातों में, मैं अतीत को मन में छुपाये सागर के जीवन में आ गयी। मशीनी जीवन जीते देखकर भी सागर ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया। जल्दी ही सागर के फौजी जीवन के साथ मेरा सामंजस्य बैठ गया लेकिन मैं प्रत्यक्ष में लगभग सब कुछ भूलकर भी कुछ नहीं भूल पायी थी। और बरसते हुए सावन को तो कभी भूल ही नहीं पाई थी। जब जब पानी बरसता, घँटों भीगती रहती। ऐसे में अक्सर कभी कभी सागर भी घर पर ही होता लेकिन उसने कभी मुझे रोका नहीं। बस खड़ा-खड़ा मुझे देखता रहता क्यूंकि उसे भी बरसात अच्छी नहीं लगती थी, लेकिन उसने कभी मुझे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की, क्यों नहीं की. . . ?


"क्यों?. . . क्या वह जानता था हमारे बारे में !" सवाल फिर मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।


शाम हो चुकी थी और हवा चलने लगी थी, अचानक ही बादलों ने अपना रुख बदल लिया, रिमझिम पानी बरसने लगा और साथ ही भीगने लगी मैं, उसी ख़त को हाथों में लिए! कब तक बादल बरसते रहे और कब तक मैं भीगती रही, पता नहीं !


"वर्षा! बारिश कब की बंद हो गयी है, अब चलो अन्दर 'चेंज' कर लो।" सागर घर लौट आया था और मेरे सामने खड़ा था।


"सागर! तुम्हे ये ख़त कहाँ से मिला?" मैं अचानक उसको सामने पाकर भी निष्क्रिय थी, जैसे मैंने उसकी बात को सुना ही नहीं था। बस मैंने पानी में भीगा वह ख़त उसके सामने कर दिया। सुबह से बेचैन करने वाला सवाल मेरी जुबां पर था।


एक पल के लिये सागर खामोश खड़ा रहा। उसकी आँखें मेरे चेहरे पर आ टिकीं थी, हमारे बीच पसरी कुछ पल की चुप्पी के बाद सागर बोला। "वर्षा ! ये ख़त राज ने खुद मुझे दिया था, अपने आख़िरी समय में, जब हम दोनों सरहद पर दुश्मन की गोलियों के साए में थे।" अपनी बात कहते हुए सागर की आखें नम होने लगी थी। "मैंने उसे वचन दिया था कि मैं उसके प्यार को कभी बेसहारा नहीं होने दूंगा... कभी उसकी आँखों में आंसू नहीं आने दूंगा।"


"लेकिन... लेकिन, तुमने आज तक कभी मुझे बताया क्यों नहीं?" मैं अभी भी असमंजस में थी।


"वर्षा! हर बारिश में, जब भी मैंने तुम्हे भीगते देखा है। मैंने हमेशा तुम्हारे अन्दर राज के प्यार को ज़िंदा देखा है और मैं अपनी ख़ुशी के लिये तुम्हारे उस प्यार को ख़त्म नहीं करना चाहता था।" सागर की आँखों में झलकता दर्द उसकी बात की गहराई को पुख्ता कर रहा था।

ख़त मेरे हाथ से छूट गया, मैं खामोश खड़ी अपने मन की गहराईयों में उसकी बात और अपने मन का मंथन कर रही थी।


. . . सहसा बरसात फिर शुरू हो गयी। मैं जैसे सोते-सोते एक गहरी नींद से जाग गयी थी। मैंने सागर को पकड़ा और लगभग उसे खींचते हुए अंदर ले आई। "सागर! मुझे अब राज की नहीं तुम्हारी जरूरत है, और मैं जानती हूँ मेरे सागर को भीगना अच्छा नहीं लगता।" कहते हुए मैं सागर के सीने से लग गयी।


मेरा लिखा ख़त बरसात के पानी में, दूर कही दूर; बहुत दूर बहता जा रहा था।



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