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कुमार संदीप

Abstract

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कुमार संदीप

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बँटवारा

बँटवारा

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बँटवारा-बँटवारा कई दिनों से यही शब्द माँ को बहू और बेटों से सुनने को मिल रहे थे। बहू जिद पर अड़ी थी कि अब बँटवारा हो ही जाना चाहिए। मुनिया जीते जी ये नहीं देखना चाहती थी। उसकी चाहत थी कि बेटे हमेशा एकता के साथ अंतिम साँस तक रहें।

पर आज की बहुओं को घर के बड़ों की चाहत से क्या मतलब!बड़ी बहू उग्र स्वभाव की थी। बहू ने कहा,"माँ अब आप तीनों भाईयों में जितनी भी संपत्ति है उसका बँटवारा कर दीजिए। "पति मायूस होकर एक कोने में बैठकर सबकुछ सुन रहे थे।

मुनिया का सबसे छोटा बेटा समझदार था। था तो,घर में सबसे छोटा पर था बहुत समझदार। छोटे बेटे ने कहा"भाभी,बड़े भईआ जब एक पैकेट बिस्किट भी खरीदते थे तो उसमें से हम दोनों भाईयों को भी बराबर-बराबर देते थे।

और हम तीनों भाई बचपन में ही थाली में भोजन भी खाते थे। आप उन भाईयों के समक्ष बँटवारे का प्रस्ताव रख रहीं हैं। भाभी आपको किस चीज़ की दिक्कत है। अकेले रहकर भले आप ख़ुश रह सकती हैं पर आप ऐसा कर अच्छा नहीं कर रहीं हैं।

संयुक्त परिवार में जितनी ख़ुशी होती है उतनी ख़ुशी कभी आपको अकेले रहने में नहीं मिलेगी। मैं बेकार में इन बातों को आपके समक्ष कह रहा हूँ। आप भला क्यूं समझेंगी इन बातों को?आपके ऊपर तो अभी बँटवारे का भूत सवार है। "अनायास बड़ी बहू की आँखें नम हो गई।

और सासुमां के पांव छूकर माफी माँगने लगी। मझली बहू भी अब बदल चूकी थी। उसके मन में बैठे नकारात्मक विचार की जगह अब सकारात्मक विचार आ गई थी। बहुओं ने एक साथ रहने का फैसला लिया। अब मुनिया की आँखों में ख़ुशी के आंसू साफ-साफ दिखाई दे रहे थे। पति के देहांत के पश्चात आज कई बरस बाद मुनिया के चेहरे पर मुस्कान आई थी।


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