Arun Tripathi

Tragedy

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Arun Tripathi

Tragedy

बल्ले

बल्ले

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".........का करे का न करें "- बल्ले की अम्माँ यही सब बड़बड़ाते हुए कंडा पाथ रहीं थीं . उमर उनकी रही होगी तीस साल ...उनके पति लुधियाना की किसी फैक्ट्री में काम करते थे और साल में एक या दो बार घर आते थे . 

बल्ले की उमर थी पांच साल ...वो गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाता था ....पांच साल का बच्चा स्कूल क्या जाता था ...उठना बैठना सीख रहा था . घर से स्कूल की दूरी रही होगी यही कोई सौ डेढ़ सौ मीटर .स्कूल से जब भी मन करता " बल्ले " घर भाग आता .संयुक्त परिवार में ...बल्ले , बल्ले की अम्मा , बल्ले के बाबू , बल्ले के दादा , बल्ले की दादी , बल्ले के चाचा बल्ले की चाची और बल्ले के 10 , 20 , 22, 8 और 7 साल के चचेरे भाई बहन और उसकी दस साल की बहन " गंगा " थी .अब इतने बड़े परिवार में आमदनी के जो जरिये थे ...वे थे .....तीस बीघा खेती , बल्ले के बाबू , बल्ले के चाचा ...जो दिहाड़ी पर पल्लेदारी करते थे . 


पंद्रह दिन पहले ....

गाँव में भयानक महामारी के रूप में " हैजा " फैला . दर्जन भर लोग एक ही हफ्ते में मर गए . मरने वालों में गाँव के परधान के भाई भी थे ....जो डाक्टरी करते थे पहले किसी शहर में पढ़ने गए थे और अपने परिवार में सबसे पढ़े लिखे थे .....गांव के लोगों का इलाज करते कराते पांच सात लोगों को मौत के मुँह से तो बचा लाये लेकिन खुद मर गए .

जब अख़बार के दूसरे पन्ने पर ....जिले की सबसे बड़ी ख़बर के रूप में ....इस गाँव में हैजे से पंद्रह लोगों की मौत की ख़बर प्रमुखता से छपी . तब जाकर प्रशासन की नींद खुली और डॉक्टरों की एक टीम गाँव में आयी लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और मासूम लोगों के मरने का सिलसिला लगातार जारी था .

इस महामारी में बल्ले की दादी अर्थात ताई जी और 20 व 22 साल की उनकी दोनों लड़कियां ...मौत के मुँह में समां गईं . बल्ले के चाचा मरते मरते बचे थे लेकिन खतरे के बाहर नहीं थे और बल्ले की हालत गंभीर थी ....उसे बोतल लटकाई गई थी . पूरे गांव में कोहराम मचा था . हर समय गाँव के किसी न किसी कोने से किसी न किसी के रोने की आवाज आती रहती थी .

बड़ा भयानक मंजर था . बल्ले के दादा ....अपनी पत्नी और दोनों बेटियों के मर जाने से अपने परिवार परिवार में बिलकुल अकेले थे . वे पिछले सात दिनों से लगातार श्मशान जा रहे थे और पिछले तीन दिन से लगातार अपने ही परिवार को फूँक कर आ रहे थे .

उनकी शक्ल देख कर डर लगता था . कुछ भी खाते पीते नहीं थे और ऐसा प्रतीत होता था कि वे भी अपना अनंत विस्तार खोजने ऊपर जाना चाहते हैं .

बल्ले के चाचा भी ठीक होकर बीमार हो गए थे और बल्ले तो गंभीर था ही ....


पूरा गाँव शोक में डूबा था . जैसा कि संसार का नियम है ....समय सतत प्रवाहमान है . ये दिन भी बीत ही रहे थे लेकिन लगता था ...दिन बहुत लम्बे हो गए हैं और रातें असीम ......

प्रातःकाल सूर्यदेव संसार को देखने के लिए आँखे खोलना ही चाहते थे . पक्षियों का कलरव भी पंचम स्वर में राग भैरवी जैसा प्रतीत होते हुए भी उदासी से भरा था . बल्ले की अम्मा ....एक पीतल के लोटे में ....

" ढरकावन " लेकर " कालीथान " जा रहीं थीं . अभी वे काली के दरबार से एक फलांग दूर ही रही होंगी कि उनके सामने " कालीथान " के चबूतरे पर खड़ा सियार ऊपर मुँह उठाये इस असमय में चिल्लाया .......हुक्का ...हुवाँ हुवाँ ....

उसकी भाव भंगिमा देख और आवाज सुन ....बल्ले की अम्मा डर गईं ...उनकी छाती धड़क उठी और उसी समय बल्ले के घर से समवेत स्वरों में भयानक रुदन का शोर उठा और लोटा पटक ....बल्ले की अम्मा दौड़ती भागती गिरती पड़ती अपने मोहरे पर पहुचीं .....और बेहोश होकर गिर पड़ी . होश में आने पर उन्हें पता चला कि बल्ले के दादा और चाचा दोनों मर गए .....और बल्ले ...?....बल्ले आँखे मूँदे लेटा था


बल्ले के दादा और चाचा की अंतिम यात्रा की तैयारी हो रही थी ..............

फिर सब चले गए ...इस समय घर में गंभीर हालत में बल्ले था और उसकी अम्मा ,चाची ,गंगा ,सात और आठ साल के गोलू भोलू ही रह गए . बल्ले के घर का कोई सदस्य मिट्टी में नहीं गया ....कौन फूँका होगा बल्ले के दादा ....चाचा को ! पता नहीं . कौन करेगा पिण्डदान ,श्राद्ध ,तेरहवीं और अन्य क्रिया कर्मो को ?

प्रतिदिन गाँव में किसी न किसी की तेरहवीं पड़ रही थी .लेकिन कोई किसी के घर खाने ही नहीं जाता था . मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही थी . पंडित जी बेचारे रोज सुबह कुश पहिंती लेकर गांव में आते और अकेले ही भोजन करके चले जाते !!

गाँव हँसना भूल गया था . बल्ले की अम्मा ...बल्ले की चाची का निढाल सिर अपने कंधे पर रखे बैठी थीं . उनकी गोद में गोलू भोलू बैठे उनका भाव शून्य मुख देख रहे और थे . सूनी आँखों से घर को घूरती ....बल्ले की अम्मा को मानो काठ मार गया था ....दस साल की गंगा अपनी माँ का आंचल पकड़े उनके सिर पर हाँथ फेर रही थी . ऐसा लगता था इन बीते दिनों में ....उसकी जिंदगी के कई साल बीत गए हों .


गंगा चुपचाप रसोईं में गई ...बरतन उठाया ...बाहर आयी और ओसारे में खड़ी होकर दुआरे पर देखने लगी ....भरे पूरे दिन में गाँव में आज कोई आदमी उसे नहीं दिखा . चारो तरफ पूरी प्रकृति भी मानो शोक मना रही थी . कैसी भयानक शांति फैली थी गाँव में !

.......गंगा " भूरी " गैया के पास पहुँची . उसकी हड्डियाँ दिखने लगीं थी ...कोई खाली पेट कैसे किसी का पेट भरता ...वो तो फिर भी गाय थी .

गंगा नें घर के किसी भी काम में कभी दिलचस्पी नहीं ली थी लेकिन " जिम्मेदारी का एहसास " एक बच्चे को भी बूढा बना देता है . इतने दिनों से " भूरी " के पास कोई नहीं आया था ...भूरी का सिर उठा और उसकी आँखे गंगा से टकराईं और गंगा ....भूरी से जा लिपटी . भूरी का बछड़ा कभी रस्सी से बांधा ही नहीं जाता था ...उसका जब मन करता , आगे के दोनों पैर मोड़ कर माँ का दूध पी लेता और इधर उधर चरता रहता . वो वहीं पैर पसारे सोया था .


" भूरी " नें " गंगा " का स्पर्श और आशय दोनों समझे और उसके " थन " दूध से भर गए जबकि कुछ देर पहले ही उसका " बछड़ा " दूध पीकर गया था . गंगा का स्टीलवाला बड़का डब्बा दूध से लबालब भर गया इतना दूध तो भूरी नें कभी न दिया था !!

गंगा ....घर में आयी ....अम्मा और चाची दीवाल से टेक लगाए आँखे बंद किये लुढ़की थीं और गोलू भोलू ....गंगा को देख रहे थे ....गंगा के इशारे पर वे दोनों उसके पास पहुँचे .

तीनों नें मिल कर चूल्हा जलाया . तीनों की उम्र थी क्रमशः सात ...आठ और दस साल ...पाँच साल का बल्ले जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था ......

बच्चों नें दूध उबाला उसे ठंडा होने दिया फिर तीन बड़े गिलासों में दूध निकाला ....मीठा मिलाया और पीने लगे . दो दो गिलास दूध पीकर वे तृप्त हो गए .

अब गंगा का ध्यान माँ और चाची पर गया और वो उठ कर उनकी ओर चली ....अभी वो उनके पास पहुँची भी नहीं ....कि अचानक सूने घर में "बल्ले" की आवाज गूँजी ....." अम्मा ...ए अम्मा !!...दीदी ...ओ दीदी !!" ........और दौड़ती हुई गंगा भाई के पास पहुँची . बिस्तर पर बैठा " बल्ले " गंगा से बोला ...." अम्मा कहाँ गईं ? बड़ी भूख लगी है ." 

इतने दिनों तक मृत्यु से लड़ते रहने के बाद ....उसके शब्द विजय की घोषणा कर रहे थे ...

और गंगा भाई से लिपट कर जार जार रो रही थी . दादा दादी ,चाचा और दो बहनो के चले जाने के बाद उसने न खुशी महसूस की थी न ग़म ....वो चारो तरफ से उठती चीत्कारों को सुन कर इन दोनों से ही परे हो गई थी .....


पता नहीं वो क्यों रो रही थी . वो खुशी के आँसू थे या ग़म के ये तो पक्का पता नहीं लेकिन ....बल्ले हैरान हो रहा था . वो धीरे से चारपाई से उठा और गोलू भोलू के पास गया . गंगा वहीं बिस्तर पर बैठी रोए जा रही थी . बल्ले पाँच साल , गोलू सात साल और भोलू आठ साल ...ये तिकड़ी आसमान में भी सीढ़ी लगा दे ऐसी क्षमता रखती थी . तीनों ही छोटे बच्चे थे लेकिन जब आपस में बैठ कर बातें करते तो लगता जैसे बूढ़े बात कर रहे हों .

बल्ले नें भाइयों से इशारे में पूछा .....क्या हुआ ?

और भोलू उसका हाँथ पकड़ कर रसोईं में घसीट लाया . गोलू नें अपने ही गिलास में दूध डाल कर मीठा मिला कर उसे पकड़ाया और बोला .....बल्ले ! बड़ी गड़बड़ हो गई यार !! लेकिन पहिले तू दूध पी .

परिस्थितियां मनुष्य को सब कुछ सिखा देती हैं उस सात साल के बच्चे को पता था कि " बल्ले " को पहले दूध चाहिये .बल्ले नें दूध उठाया और एक ही साँस में वो गुनगुना दूध पी गया . और पियेगा ? ....हाँ ...और बल्ले फिर एक गिलास दूध पी गया .बल्ले पाँच साल का " मोगली " जैसा दिखने वाला लड़का था ...फर्क सिर्फ इतना था कि वो " मोगली " से ज्यादा तंदरुस्त था ....दूध पीकर अपनी बाँह से होठों पर बनी सफेद मूँछे पोंछते हुए बल्ले ....गोलू से मुख़ातिब होकर बोला ...".हाँ बता क्या गड़बड़ हो गई ."

गोलू बोला ...".क्या बताऊँ यार बड़ी गड़बड़ हो गई !'

"अबे ! क्या गड़बड़ हो गई ?"....बल्ले झुंझलाया .

भोलू बोला ..."मैं बताता हूँ सुन ...ये तो ऐसे ही आधी बात बोल कर चुप हो जाता है ...मेरे बप्पा और दादा दादी और छुटकी बड़की दोनों दीदियाँ मर गईं !"

"बल्ले चौंका ....मर गईं ! क्या मतलब ?"

पांच साल के इस बच्चे नें अब तक न किसी किसी की मृत्यु देखी थी और न कोई लाश . हाँ गालियों में मर जा ...जी जा जरूर सुना था लेकिन बहुत सारी चीजों की तरह वह ' मृत्यु ' को भी नहीं जानता था . ये बात जरूर थी कि अभी अभी वो ' अखाड़े ' में ' मृत्यु ' को चारो खाने चित करके आया था ...इतने दिनों तक ओ आर एस और बोतल पर ही रहने के बावजूद उसके शरीर की स्फूर्ति और बल वैसा ही था .

अचानक वो उठा और रसोईं से बाहर भागा . दरवाजा पकड़े खड़ी गंगा को धकियाते हुए वो दालान पर जा कर खड़ा हुआ और देर तक पेशाब करता रहा . फिर वापस लौटते समय उसकी नजर अपनी अम्माँ और चाची पर पड़ी ...उनकी भावभंगिमा उसे कुछ अजीब तो लगी लेकिन फिर वो रसोईं मे आकर पलथी मार कर बैठा और भोलू से बोला ....हाँ अब बता क्या कह रहा था ?

भोलू उसका मुँह देखता रहा ...उसने ' मृत्यु ' को देखा तो था लेकिन बल्ले की तरह कभी दो दो हाँथ नहीं किया था .क्या बात है इस अद्भुत प्रकृति की ...जिसने देखा उसने जाना नहीं और जो जान गया उसने देखा ही नहीं .

बल्ले बोला ..."अब कुछ बतायेगा भी ."

भोलू तपाक से गंगा की ओर उंगली उठा कर बोला ...."दीदी बतायेगी ."

अब इस कठिन सवाल का जवाब गंगा को देना था ....".मर गईं ! क्या मतलब ? वह खुद दस साल की थी उसे पाँच साल के भाई को समझाना था कि मृत्यु का क्या मतलब है ! "

वो बल्ले से बोली ...."दूध पिया ?"

"हाँ दीदी"

"तो चल अम्मा बुला रही हैं ."

बल्ले फुर्ती से खड़ा हुआ और बोला ..."हाँ अम्मा चाची बैठी थीं वहां . रोज की तरह चाची नें गोदी लेकर चुम्मी भी न ली' .

"हाँ चल ...."गंगा बोली 

बल्ले अपनी बहन के आगे भागता हुआ अपनी अम्माँ के पास पहुँचा ....तब जा कर बल्ले की अम्मा को चेत हुआ ...जब उनका "ढ़रकावन " ले जाना सफल खड़ा था यद्यपि वो ढरकावन रास्ते में ही काली को मिल गया . लोटा शायद अभी भी वहीं पड़ा होगा .....

बल्ले को सामने खड़ा देख वो सारा दुःख भूल गईं और उसे सीने से लगा कर अपना स्तन उसके मुँह में दे दिया . बल्ले के बल का कारण वो दूध था जो वो अभी भी पीता था और इतने दिन से उसने पिया भी नहीं था ...लगता था इतने दिनों का दूध इकट्ठा हो गया था ...वो जितना खींचता उतना ही और आ जाता .दो गिलास दूध तो वो अभी भी पी कर आया था और कितना पीता ....सो उसने छाती छोड़ दी और एक लम्बी डकार ली .

अम्मा नें दोनों पैर साथ में आगे फैला दिये . बल्ले के दोनों पैर माँ की कमर के इर्द गिर्द लिपटे थे और उसका सिर गोद में था . अपनी दोनों हाथेलियों को बल्ले के सिर के पीछे रखे अम्मा अपनी नाक उसकी नाक से रगड़ रही थीं ......और उन्हें बल्ले की चाची का ध्यान आया ....उनका दुःख अनुभव होते ही वे अपना सुख भूल गईं .....

"ऐ छोटी ...छोटी ...छोटी बहू "! और वो लुढ़क गई .

"अरे ए गंगा ...देख तो ई चाची को का हुआ ?"

जल्दी ही बल्ले को पता चल गया ...."मर गईं ! क्या मतलब ?"

अम्मा चाची से लिपट कर रोने लगीं और छाती पीटने लगीं . गंगा , गोलू भोलू सभी रोने लगे और बल्ले उन सब को रोता देखता रहा ....

पूरा घर दहाड़े मार कर रो रहा था . दरवाजे पर गाँव के लोग बल्ले के दादा और चाचा को फूँक कर लौट आये थे और दालान में दोनों हाँथ कमर पे रख कर बल्ले मुखिया से पूछ रहा था .....क्या पूछ रहा था ये किसी को नहीं मालूम क्योंकि तब तक लोग भाग कर दालान में चढ़ गए और मुखिया बोले ....इहौ चली गई 

अब बल्ले की चाची की अंतिम यात्रा की तैयारी होने लगी .एक बार फिर तूफ़ान के गुजर जाने जैसी शांति छायी थी घर में और जिम्मेदारी नें बल्ले की अम्माँ को अपनी गिरफ्त में ले लिया .तभी मुखिया का लड़का भागता हुआ आया और बल्ले की अम्माँ को मोबाइल पकड़ाता हुआ बोला ....

"...लो चाची बात करो ...चाचा लाइन पर हैं ."

बल्ले की अम्माँ नें मोबाइल कान से लगाया और उनके सिर पर सवार जिम्मेदारी बोली .....हलो ! उधर से जाने क्या कहा गया लेकिन एक मिनट के बाद बल्ले की अम्माँ स्थिर स्वर में बोलीं ...."हाँ जउन सुने हो सब सही है . अबहिने छोटकौ चली गईं . ....नाहीं हम साफ साफ कहित है ...तुम अबहीं वहीं रहो . इहाँ गाँव मा हैजा फैला है ....ख़बरदार जहां हो वहीं रहो ...हम बतायेंगी तुमको कब आना है ....फिर उधर से आती आवाज़ को ध्यान से सुनती रहीं और बोलीं .....नाही चिंता न करो ....हम संभाल लेंगी ....हम अकेले नहीं हैं ...गांव में बहुत लोग मरे हैं ....कन्हैया के केऊ न बचा सब मरि गए ...हाय उसका पहाड़ जैसा दुख हमारे दुख से बहुत बड़ा है .........हाँ ...हाँ ...ठीक है ."

बल्ले की अम्मा ने फोन वापस करते हुए कहा ...."घर मा सब कुशल है ...केशव ! "

"हाँ चाची अबही तक सब ठीकै है . अच्छा चाची हम चलित है फिर फोन आई तब बताउब "....और वो चला गया ."

बल्ले गोलू भोलू और गंगा ....माँ से लिपटे थे . माँ नें सबको प्यार किया और गंगा से बोलीं .....गंगा लड़िके कुछ पाइन ?

"हाँ अम्माँ सब लोग दुइ दुइ गिलास दूध पिये हैं ...".गंगा बोली .

"और तू ?"

"हमहूँ पिये अम्माँ ..."

"चलो ठीक है" ....लेकिन गंगा ...दूध दुहा के ?

"हमही दुहे अम्मा ..."

"लात न उठाई ' भूरी '...."अम्माँ बोलीं 

"न अम्मा ! उ तो इतना दूध दी कि बड़का स्टील वाला डब्बा मुचोमुच्च भर गया" .....गंगा बोली 

अम्माँ सबसे पहले रसोईं में आयीं . इधर उधर पड़े गिलास देख गंगा से बोलीं ....बिटिया ! ई सब गिलास और बरतन किनारे करि के पानी भरि देव और दूध ...छींका पे टांग देव लेकिन देखिव गिरै न . अच्छा छोड़ हमही रखि देइत है ....और उन्होंने स्टूल उठाया तो गंगा बोली ....न अम्मा हम रख देव और बरतन भी माँज लेव ...तू जा .

अम्मा रसोईं से निकल ओसारे में आईं .

" बल्ले ...गोलू और भोलू सिर जोड़े ....ठुड्डी पर दोनों हथेलियाँ रखे किसी गंभीर विचार मंथन में व्यस्तथे ." 

अम्माँ " भूरी " के पास चलीं .घर की मालकिन को आता देख भूरी रम्भाई ."हाँ ...आइत है आइत है" और वे भूरी के पास पहुँची ....और उसे सहलाते हुए बोलीं ....." तुहूँ सबकी नाई झुराय गइउ भूरी ! "और रस्सी खोल कर आँखों में विषाद भर कर बोलीं ........

"जाव चरि आव ...आज चाहे जेकरे खेते मा चरि आव ...केऊ कुछ न बोली ..."

लेकिन पूरे सीवान को हरा भरा देख कर भी भूरी कहीं न गई और वहीं इधर उधर चरने लगी . बल्ले की अम्माँ गोबर उठाने लगीं जो पिछले कई दिनों से पड़ा रहने से कंडा बनना चाहता था . सूखा गोबर घूरे पर फेंक गीला गोबर बटोर पाथने लगीं ......वो बड़बड़ा रही थीं .....

हे रामचंद्र ! कइसी परीक्षा ले रहे हो संसार की ..काहे न लेव तुमही का कम परीक्षा दिये हो . अब हमें ई समझ नाही आवत कि ....हम का करें का न करें .....

समाप्त ...



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