Rajeshwar Mandal

Inspirational

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Rajeshwar Mandal

Inspirational

बी डी सी

बी डी सी

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मैट्रिक परीक्षा का रिज़ल्ट आते ही शुरु हो जाती है कल्पनाओं के उड़ान के साथ साथ कॉलेज में नाम लिखाने की मत्था पच्ची। घर में जितने लोग उतने ही अरमान। डाक्टर इंजीनियर से लेकर कलक्टर तक की सपने। किरानी चपरासी मास्टर सिपाही दारोगा की तो चर्चा भी नहीं होती है। भूल वस किसी के मुँह से यह बात निकल भी जाऐ तो लोग उनकी तरफ ऐसे देखते हैं जैसे की कोई जघन्य अपराध कर दिया हो। 

खैर सपने तो उँचा रखना ही चाहिए। इसमें कोई दो मत नहीं है। 

जैसे जैसे काॅलेज के दिन नजदीक आने लगते हैं 

छात्र के मन में उमंग और उलझन दोनों एक साथ हिलोरे मारने लगती है। सुबह शाम माँ बाप चाचा चाची सब नैतिक शिक्षा से लेकर रहन सहन की तौर तरीके की दिशा निर्देश भी देने लगते हैं। जहाँ माँ को इस बात की फिकर सताने लगती है कि आज तक उनका संतान एक गलास पानी तक खुद लेकर नहीं पिया है अब खुद से खाना कैसे बनायेगा। वहीं बाप इस चिंता में डूब जाता है कि घर पर तो सोते से सुबह में हम जगा दिया करते थे। शहर में कौन जगायेगा। ऐसा न हो कि दिनभर सोते ही रहे। दुसरा टेंसन है ई सिनेमाघर। आदि इत्यादि........। 

 आम तौर पर शहर में छात्र जीवन ऐस्बेस्टस के कमरे में व्यतीत होता है चाहे लालन पालन राजमहल में ही क्यों न हुई हो। पहला कारण यह कि प्राय: लोग बैचलर को फ्लैट देना उचित नहीं समझते अथवा महंगी फ्लैट बैचलर एफोर्ड नहीं कर पाते। 

एक कराही एक तसला एक थाली एक गलास एक बाल्टी एक बेलन चकला और एक छोटा गैस सिलेंडर (पहले स्टोव ) से शुरू किचेन में दो चार माह बाद तीन कटोरे वाला प्रेशर कुकर किसी तरह स्थान बना पाता है। वह भी या तो पिता के आर्थिक क्षमता या माँ के समक्ष बच्चे के जिद पर निर्भर करता है। 

पराठेे सी तीकोन रोटी एक दो माह बाद ही गोल होने लगती है। वैसे अक्सर छात्र समय और परिश्रम से बचने के लिए तीन सीटी वाला भात दाल खाना ही ज्यादा पसंद करते हैं। 

सप्ताह में एक दो बार मांस मछली खाने के आदी रहे बच्चे अब बिना कंठी के बैष्णव जीवन जीने लगते हैं। 

घर में अब भी रुचिकर खाना बन रही है पर खाना के वक्त माँ का ध्यान बरबस बच्चे की ओर खींच जाती है। अश्रु पूरित नेत्रों से थाली की ओर देखती है फिर बिना खाये हाथ धो लेती है। नित दिन की भाँति सुबह के छः बजे पिताजी बच्चे के कमरे में जगाने जाते हैं 

बिस्तर खाली देखकर यकायक याद आता है ओह 

वो तो काॅलेज की पढाई करने शहर गया है। 

बच्चे का पढाई हेतु शहर गया लगभग माह भर से ज्यादा हो गया है। घर के अन्य लोग इस खालीपन को धीरे धीरे भूलने लगे हैं। परंतु पता नहीं क्यों आज माँ का ध्यान बरबस बच्चे की ओर कुछ ज्यादा ही खींच गई। आपसी परामर्श से निकले निष्कर्ष के बाद 

पिता बच्चे को देखने शहर चल देते हैं। अपने खेत का दाल चावल लहसुन अदरख प्याज की कुछ कुछ मात्रा एक बोरी में भरकर बस पर रखते हैं। 

अहले सुबह पिताजी सामान लेकर पता पुछते पुछते लाॅज पहुँचते है। कमरे में ताला बंद है। बगल के एक छात्र ने बताया कि वह कैमिस्ट्री का ट्युशन पढ़ने जस्ट निकला है। पिताजी उसी लड़के के रूम में सामान रख देते हैं। और टाइम पास करने चौराहे पर चाय पीने आ जाते हैं। तब तक उधर से बच्चा भी आते दिखाई देते हैं। एक महीने बाद बच्चे को देख पिताजी का मन प्रफुल्लित हो जाता है। साथ साथ लाॅज पर आते हैं। गरमी का समय है। खिड़की पर रखे थम्स अप की बोतल को पिताजी शक की निगाहों से देखते हैं। कहीं ये वो तो नहीं? किवार के पीछे दिव्या भारती का फोटो वाला कैलेंडर भी लगा है। कमरे में यत्र तत्र साईन ठीटा कौस ठीटा और फिजीक्स मैथ के फार्मूला चिपके हुए हैं। पिताजी देखकर गदगद हो जाते हैं। बात चित के क्रम में पिताजी नीतिगत बातों का सीख भी दे रहे हैं। पिताजी अब घर वापस होने की बात कहते हैं। बच्चे खाना खाकर जाने की जिद पर अड़े है। पिताजी बात मान जाते हैं। जब तक बच्चा खाना बनाते हैं तब तक पिताजी बगल की दुकान से एक अलार्म घड़ी खरीद कर ले आते हैं। 

सिंगल बेड पर बैठे पिताजी रूम का मुआयना भी कर रहे हैं। थम्स अप की बोतल अब वहाँ नहीं है। दिव्या भारती वाले कैलेंडर को शर्ट टांगकर ढ़क दिया गया है। और सब लगभग संतोषप्रद स्थिति में है। कुकर की तीन सीटी लग चुकी है। जिज्ञासा बस पिताजी पुछते हैं क्या बनाये हो खाने में। कुकर खोलते हुए बच्चेे छात्र की भाषा में बोलते हैं बी डी सी। फिर बात को संभालते हुए दोबारा बोलते हैं भात (B) दाल (D)चोखा (C)।

बच्चे की सादगी देख पिताजी की आँखें बरबस नम हो जाती है। पिताजी घर पहुंच चुके हैं । बच्चे कुशल है यह सुन कर माँ भी खुश हो गई। पूर्व की तरह आज भी पिताजी का पसंदीदा सब्जी मटर पनीर बना है। जैसे ही प्रथम निवाला के लिए रोटी तोड़ते हैं कान में आवाज गुंजनेे लगी बी डी सी। आँखे फिर से डबडबा गई। इनकी माँ देख न ले इसलिए चुपके से धोती के सहारे आँख पोछते हुए बमुश्किल दो चार निवाला खाकर हाथ धो लेते हैं। पिताजी मन ही मन सोचने लगे मटर पनीर में वह स्वाद कहाँ जो बी डी सी में था।


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