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Krishna Bansal

Tragedy Inspirational

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Krishna Bansal

Tragedy Inspirational

भूली बिसरी यादें-संस्मरण 1

भूली बिसरी यादें-संस्मरण 1

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15 अगस्त,1947।

भारत पाक विभाजन के समय मैं केवल चार वर्ष की थी। प्रायः चार वर्ष के बच्चे को किसी भी घटना की स्पष्ट याद नहीं होती, बड़े बुजुर्गों से सुन सुनकर ऐसा लगता तो है कि हम इस घटना के साक्षी हैं पर शायद ऐसा नहीं होता। केवल इतना याद है कि मेरे दादा जी मेरी उंगली पकड़ दुकान से घर, घर से दुकान दिन में कई चक्कर लगाते थे। घर और दुकान की छवि अभी भी दिमाग में है।

एक और बात कि हमारा दो कमरों का छोटा सा नया सुन्दर मकान बना था।

हमारा नाना - परिवार लुधियाना में रहता था। मकान का मुहूर्त करने के उपरांत इसी खुशी को साझा करने मां अपने मायके आईं थीं। मां व हम दो बहनें ग्यारह अगस्त,1947 को नानी के घर आ गए थे। दंगों के आसार तो बन रहे थे पर अभी शुरु नहीं हुए थे।

माना यह जा रहा था भारतवर्ष विभाजन के उपरान्त दो मुल्क बन जाएंगे, सरकारें अलग अलग बन जाएंगी परन्तु लोग ऐसे ही अपने अपने घरों में रहते रहेंगे जैसे रह रहे थे। यह कल्पना से बाहर था कि हिन्दू वहां से उजड़ जाएंगे और मुसलमान यहां से। जिस गाड़ी से हम लाहौर से लुधियाना पहुंचे, वही बिना कटे पहुंचने वाली अंतिम गाड़ी थी। उसके बाद तो लहूलुहान लाशों से भरी हुई रेलगाड़ी ही रेलवे स्टेशन पर आकर खड़ी होती थी। 


कितना बुरा समय था। वर्षों से हमारे हिन्दू मुस्लिम भाई भाई कहे जाने वाले रिश्तों पर प्रश्न चिन्ह लग गया था।


पिताजी वही जड़ांवाला में रह गए थे अकेले। एक दिन बाद ही दंगे शुरू हो गए थे। हमें दो महीनों तक यह भी पता नहीं था कि पिता जी ज़िंदा भी है या नहीं। एक दिन किसी के हाथ संदेश मिला कि वह हिंदू मिलिट्री के साथ सुरक्षित अमृतसर पहुंच गए हैं और अब जैसे-तैसे लुधियाना हमारे पास पहुंच जाएंगे। दो महीने का अरसा दो वर्ष बिताने जैसा था। 

घर में बहुत शोक का वातावरण बना हुआ था। नानाजी प्रतिदिन मां को लेकर भिन्न-भिन्न कैंपों में जाते रहते थे ताकि पिताजी के बारे में किसी से कोई सुराग मिल सके। पंडितों व ज्योतिषों से भी पूछ लिया गया। पिताजी की कोई खबर नहीं। कोई अता पता नहीं। पत्र लिखे भी तो कहां लिखे। मां की उदासी और रोनी सूरत से हम दोनों बहनों पर भी नकारात्मक असर दिखने लगा था। मां मुझे स्कूल ले गई दाखिल करवाने। टीचर ने मना किया कहा अभी चार साल की है हम पांच वर्ष का बच्चा दाखिल करते हैं। मां ने सारी स्थिति ब्यान करते हुए निवेदन किया इसकी उम्र पांच वर्ष लिख लो पर दाखिल कर लो। उन दिनों बर्थ सर्टीफिकेट का रिकार्ड नहीं रखा जाता था। इस प्रकार मेरी एक वर्ष आयु बढ़ गई। छोटी बहन पर भी मानसिक रूप से काफी दबाव रहा।

अक्टूबर माह में जब पिताजी लौटे तो उनके पास एक ट्रंक, जिसमें मां की कुछ साड़ियां, सूट तथा अन्य सामान था एक बिस्तरबन्द जिसमें चादरें, लिहाफ, उनके अपने कपड़े और दो चार पीतल के छोटे छोटे बर्तन थे। 

जैसे ही दंगे शुरू हुए सभी लोग अपने अपने घरों में बन्द हो गए। घर में खाने का सामान कितने दिन चलता, भूखे रहने की नौबत आ गई। भाग्यवश एक पड़ोसी ने अपनी छत से भुने हुए चने की छोटी बोरी हमारे आंगन में गिरा दी। पिता जी ने बताया कि चने खाकर और पानी पीकर उन्होंने कितने ही दिन निकाल दिए। 


एक दिन उन्होंने ढिंढोरा सुना, हिंदू मिलिट्री यहां के हिन्दू लोगों को हिंदुस्तान पहुंचा देगी सुरक्षित। केवल दो नग अपने साथ लाने की इज़ाज़त थी। पिताजी ने शाम को ही एक ट्रंक और बिस्तरबन्द बांध कर तैयार कर लिया। अगले ही दिन वह हिन्दू मिलीटरी के साथ पहुंच गए हिन्दुस्तान।

उन्होंने बताया जैसे ही वो अमृतसर पहुंचे वहां शरणार्थियों के लिए कैंप में लंगर से दो रोटी उड़द की दाल के साथ खाईं। वे कहा करते हैं उस खाने से जो तृप्ति मिली, न कभी पहले मिली थी, न बाद में। वैसे तो लंगर का खाना सदैव स्वादिष्ट ही होता है पर भूखे पेट तो अमृत जैसा स्वाद देता है।


 मां को तीसरा बच्चा होने को था। बात उन दिनों की है जब बच्चों की प्रायः आधी दर्जन से लेकर पूरी क्रिकेट टीम बनाने तक की योजना होती थी।

नवंबर के महीने में मेरी दूसरी बहन पैदा हुई। अब हम तीन बहनें थी। तीसरी लड़की के होने पर घर में क्या प्रतिक्रिया रही होगी, तब तो मैं छोटी थी अधिक याद नहीं, अब मैं उसकी कल्पना कर सकती हूं। 


अब तक मैं सुनी सुनाई बातों के आधार पर ही लिख रही थी।


स्पष्ट याद, जो मेरी मानस पटल पर अंकित है मैं कोई सात वर्ष की रही होंगी। हम कैथल जाने के लिए रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। मार्च का अंतिम सप्ताह था। स्कूल में छुट्टियां हो चुकी थी। पिता जी हमें दादी के घर छोड़ने जा रहे थे। कैथल में हमारा दादा-दादी तथा परिवार के अन्य सदस्य ताया, चाचा वगैरह सपरिवार रहते थे। हम तो विभाजन के समय नानी के घर आ गए थे शेष सभी सदस्य कैथल स्थानांतरण कर गए थे क्योंकि वर्षों पहले वे आजिविका के लिए कैथल से ही लायलपुर गए थे। सुबह का समय था। छ: बजे होंगे। घर से कल्पना भी नहीं की थी कि रेलवे स्टेशन के खुले वातावरण में तापमान इतना कम होगा। हम सभी बहनें हल्के-फुल्के स्वेटरों में लिपटे हुए से।

मां ने भाई को गोद में लेकर शॉल में लपेट लिया था। और हम तीनों बहनें मौसम के अचानक ठंडा हो जाने के कारण थर थर कांपने लगी थी। गाड़ी आने में अभी देरी थी। पिताजी ने हमें सर्दी महसूस करते हुए देखा। उन्होंने हमें अपने पास बुलाया और तीनों को ही अपनी लोई में छुपा कर एक बैंच पर बैठ गए। हमें चैन सी मिली। हमारे कांपते शरीर को जैसे तपिश महसूस हुई। 

मैं आयु में छोटी ज़रुर थी चूंकि परिवार मुश्किल दौर से गुज़र रहा था, समय से पहले ही जीवन की कठिनाइयों को समझने लगी थी।


उस दिन एहसास यह हुआ कि जीवन में कभी भी मुसीबत आएगी तो पिताजी हमारी रक्षा अवश्य करेंगे। उनका वर्द हस्त सदैव हमारे सिर पर रहेगा। 

वे सदा हमारी समस्याओं का समाधान करेंगे। और उन्होंने आयु प्रयन्त अपना आशीर्वाद बनाए रखा। वे अब इस दुनिया में नहीं है अभी भी किसी मुसीबत के समय प्रकाश स्तम्भ का काम करते हैं। खुशकिस्मत समझती हूं स्वयं को। नमन करती हूं ऐसे पिता को।



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