बहू पेट से है : भाग 15
बहू पेट से है : भाग 15
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लक्ष्मी जी को छमिया भाभी के बारे में होने वाली बातों में बड़ा रस आता था। दरअसल छमिया भाभी पर पूरे मौहल्ले के मर्द जान छिड़कते थे। बस यही बात लक्ष्मी जी को हजम नहीं होती थी। इसलिए वो गाहे बगाहे छमिया भाभी की बुराइयां करती रहती थीं। यहां पर छमिया भाभी उपस्थित थी नहीं इसलिए आज जी भरकर अपनी भड़ास निकाली जा सकती थी। मगर लाजो जी ने बात घुमा दी और वे इसे बच्चों पर ले गईं। इन बातों में लक्ष्मी जी जैसी औरतों को मजा नहीं आता था। उन्हें तो निंदा रस में ही मजा आता था।
लक्ष्मी जी बात को घुमाकर छमिया भाभी पर ही लाना चाहती थीं इसलिए बोलीं
"ऐ जिज्जी, एक बात बताओ ? छमिया भाभी को गये तो कई दिन हो गये हैं तो उनके श्रीमान जी "भुक्खड़ सिंह" जी का खाना कौन बनाता होगा" ?
ललिता जी अब तक खामोश ही बैठी थीं। उन्हें छमिया भाभी से बहुत नफरत थी। नफरत ऐसे ही नहीं थी उसका कारण भी था। उनके पति दिलफेंक जी नाम के अनुरूप दिलफेंक ही थे। सुन्दरता में छमिया भाभी का कोई जवाब नहीं था। इसलिए दिलफेंक जी छमिया भाभी के सौंदर्य के जलवों में उलझ कर रह गये। छमिया भाभी के अप्रतिम सौंदर्य के दर्शन करने के लिए अपने घर आने जाने का रास्ता बदल लिया उन्होंने। अब वे पुराना रास्ता छोड़कर छमिया भाभी के घर के सामने से होकर आने जाने लगे। क्या पता कब दर्शन हो जायें छमिया भाभी के ? बस इतनी सी ही तो ख्वाहिश थी उनकी कि दिन में बस एक बार "देवी" के दर्शन हो जाए तो तबीयत चकाचक हो जाये।
वैसे छमिया भाभी भी बहुत दिलदार औरत हैं। जैसे भगवान अपने भक्तों की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन देते हैं और उन्हें वरदान भी देते हैं। जैसे लेखक अपने पाठकों की समीक्षाएं पर आभार प्रकट करते हैं। जैसे कवि अपनी कविताओं पर श्रोताओं द्वारा ताली बजाने पर उनका हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं। उसी तरह सुंदरियां भी उनके आगे पीछे घूमने वाले उनके "कद्रदानों" का ध्यान रखती हैं। बीच बीच में उन्हें "झरोखा दर्शन" देती रहती हैं। भगवान को कौन पुजवाता है, पुजारी ही ना ? तो हुस्न की खुशबू चारों ओर कौन फैलाता है , ये दिलफेंक जैसे लोग ही ना ? तो क्यों नहीं इनको तवज्जो मिले ? इसलिए इन कद्रदानों का भी ध्यान रखना पड़ता है। जब कभी कुछ "कद्रदानों" की तपस्या कुछ कुछ कठिन होने लगे तो एक बार मुस्कुरा कर उनकी तबीयत "हरी" करनी पड़ती है । और कभी कभी तो बड़ी मीठी मीठी बातें भी करनी पड़ती है तब जाकर कद्रदानों की भीड़ इकट्ठी होती है। बस, इतनी सी ही तो चाहत है बेचारे कद्रदानों की। इसमें भी कंजूसी करती हैं बहुत सी औरतें। उन कंजूस औरतों का कोई कद्रदान नहीं होता है। जितनी मुस्कान बिखेरोगे, उतने ही कद्रदान पाओगे।
औरतों का संसार एकदम अलग है। उन्हें सजना संवरना पसंद है। सजना संवरना तो जैसे उनके खून में शामिल है। उनसे जब पूछो कि वे किसके लिए सजती संवरती हो ? तो तपाक से उत्तर मिलेगा "अपने श्रीमान जी के लिए "। मगर जब श्रीमान जी के लिए ही सजना संवरना है तो फिर घर में ही सज लिया करो। श्रीमान जी तो घर में ही रहते हैं। मगर नहीं। श्रीमान जी तो कभी कभी कहते भी हैं "ये क्या हाल बना रखा है ? कभी कभी नहा भी लिया करो। बहुत दुर्गंध आती है तुम्हारे बदन से। और कभी कभी "डेन्टिंग पेन्टिंग" भी कर लिया करो। "साफ सुथरी गाड़ी और सजी संवरी लाड़ी" ही मन को भाती है"। लेकिन नहीं जी, श्रीमान जी की बात और श्रीमती जी मान जाये ? असंभव है आज के जमाने में।
पर नहीं , इनको घर में नहीं सजना है। घर से बाहर जाएंगी तो ही सजेंगी। चाहे पास ही सब्जी के ठेले पर सब्जी लेने जा रही हों , पर हल्की "लीपा पोती" तो करेंगी ही। और अगर किसी फंक्शन में जाना हो और उसमें यदि श्रीमान जी किसी कारणवश नहीं जा पाए रहे हों तो भी पूरा श्रंगार करके जाएंगी। क्यों भाई ? अब तो पतिदेव भी नहीं हैं साथ में , फिर भी ? इसका मतलब है कि किसी न किसी और को दिखाने के लिए ही तो सजती हैं ये। अब ये बताओ कि औरतों को दिखाने के लिए भी कोई औरत सजती है क्या ? सजना तो पुरुषों के लिए ही पड़ता है न ? पर इसे स्वीकार नहीं करती हैं ये औरतें और ना ही कभी करेंगी। इससे उनकी "पोल" खुलने का डर रहता है ना। और ये चाहती क्या हैं ? बस इतना ही तो कि "कोई" उन्हें देखकर इतना सा कह दे "वाह , क्या बात है" ? और वो भी लबों द्वारा नहीं , आंखों द्वारा या मुस्कुराहट द्वारा , बस। बोलो , कितनी सी हसरत है इनकी ?
लेकिन पुरुष तो पैदायशी दिलदार हैं। वे तो मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। और कुछ तो इतने "महान" हैं कि प्रशस्ति गान ही करना शुरु कर देते हैं। पुरुष वैसे चाहे और कहीं कंजूसी कर सकते हैं मगर "नारी सौंदर्य" के गुणगान में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। बस, वे कंजूसी अपनी पत्नी की सुंदरता बखान करने में ही करते हैं, और कहीं नहीं। और पड़ोसन की सुंदरता का तो ऐसे वर्णन करते हैं जैसे वो आसमान से उतरी कोई परी हो।
वैसे भी पुरुषों का दिल बहुत बड़ा होता है। उस दिल में न जाने कितनी भाभियां, सालियां, पी ए, सैक्रेटरी, पत्नी की सहेलियां, पड़ोसनें और तो और कामवाली बाइयां तक समा जाती हैं। मगर औरतों का दिल इतना छोटा होता है कि उसमें और कोई घुस ही नहीं सकता है। कितना अंतर है दोनों की प्रकृति में !
तो लक्ष्मी जी ने जैसे ही छमिया भाभी का विषय छेड़ा , ललिता जी के कान खड़े हो गए। ललिता जी को भी छमिया भाभी फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। कारण तो अभी बताया था ना। बेचारे दिलफेंक जी को छमिया भाभी के घर के सामने से भी निकलने पर पाबंदी लगा रखी है ललिता जी ने। उन्हें अगर कभी दिलफेंक जी छमिया भाभी से बात करते हुए मिल जाएं तो दिलफेंक जी की तो आफत ही हो जाती है उस दिन। पर दिलफेंक जी भी कम उस्ताद नहीं हैं। घर से तो वे अपने पुराने वाले रास्ते से निकलते हैं जिससे ललिता जी को विश्वास हो जाए , मगर वे आगे जाकर अपना रास्ता बदल कर छमिया भाभी के घर की ओर चल देते हैं।
छमिया भाभी भी बड़ी कमाल की हैं। वे अपने "भक्तों" को कभी कभी दर्शन देती हैं और कभी कभी उनके सामने प्रकट होकर अपने मुखारविन्द से दो चार मीठी बातें भी कर लेती हैं। इससे सामने वाला आदमी "लट्टू" हो जाता है। और जब कभी वे दिलफेंक जी से बातें करती हैं और उसी दौरान अगर ललिता जी उधर आ जाएं तो वे और भी नजदीक आकर जोर जोर से मीठी मीठी बातें करने लग जाती हैं जिससे ललिता जी को वे बातें सुनाई दे जायें। तब दिलफेंक जी की हालत बड़ी पतली हो जाती है। बेचारे दिलफेंक जी, उस दिन उनकी "शानदार वाली चम्पी" हो जाती है।
ललिता जी थोड़ा गुस्से से बोलीं "लक्ष्मी जी, अगर आपको इतनी ही चिंता है भुक्खड़ सिंह जी की तो आप ही बना दिया करो उनका खाना। वे निहाल हो जाएंगे"।
लक्ष्मी जी का मन बड़ा कोमल है। उनसे भुक्खड़ सिंह जी की ये हालत देखी नहीं जाती है। मगर क्या करें ? भुक्खड़ सिंह जी खाते ही इतना है कि सुबह खिलाना शुरु करो तो शाम हो जाए और शाम को खिलाना शुरू करो तो रात हो जाए। बस, इसी चक्कर में नहीं खिला पाती हैं लक्ष्मी जी, वर्ना खिलाने की इच्छा तो बहुत है उनकी। वैसे उन्हें भुक्खड़ सिंह जी की "सिक्स पैक्स" वाली बॉडी बहुत पसंद है। भुक्खड़ सिंह जी हैं ही इतने शरीफ कि किसी औरत की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते हैं। यही अदा तो लक्ष्मी जी को भा गई उनकी। मगर इतना खाना कौन बनाए ? समस्या का केंद्र बिंदु तो यही है।
शोभना जी बोलीं "आजकल तो शादियां भी खूब हो रही हैं। उनमें चले जाते होंगे" ?
इस बात पर प्रेमा जी खिलखिला पड़ीं "लो, और सुन लो। कल ही मेरी बात मेरी एक सहेली नीलम से हो रही थी। वे मुझे अपने एक फंक्शन में बुला रही थी। मैंने बातों बातों में छमिया भाभी का जिक्र कर दिया और पूछा कि क्या भुक्खड़ सिंह जी को भी बुलाया है ? तो वे हंसते हंसते दोहरी हो गई । कहने लगीं 'आज के मंहगाई के जमाने में दस दस आदमियों को कौन बुलाता है' ? मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। छमिया भाभी के तो कोई बच्चा भी नहीं है , फिर दस दस आदमी" कैसे' ?
वो कहने लगीं कि भुक्खड़ सिंह जी अकेले दस आदमियों के बराबर हैं। इन दिनों में वे अकेले भी रह रहे हैं इसलिए वे लिफाफा भी लायेंगे तो एक आदमी के हिसाब से ही ना ? और खाना खाएंगे दस आदमियों का। अब आप ही बताओ, लिफाफा एक का और भोजन दस के बराबर। बड़ी नाइंसाफी है ये तो। इसलिए उन्हें अब कोई निमंत्रण देता ही नहीं है।
मामला बड़ा संगीन हो गया था। लक्ष्मी जी के चेहरे पर उदासी छा गई थी। इतने में वसुधा जी बोलीं "आजकल तो ये शादियां भी जी का जंजाल बन गई हैं। इतने बड़े बड़े "सावे" हैं कि एक एक दिन के दस दस कार्ड आ जाते हैं "।
सभी की आंखें चकाचौंध गई । इनके इतने सारे कार्ड आते हैं और हमारे तो बहुत से बहुत एक दो ही आते हैं। अब प्रश्न यह है कि वे इतनी शादियां अटेंड कैसे करते होंगे" ?
वसुधा जी ने ही रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा "हम लोग एक दिन में अधिक से अधिक चार शादी अटेंड कर सकते हैं , इससे ज्यादा नहीं। इसका निर्णय हम लोग कार्ड देखकर करते हैं जिसका कार्ड बढ़िया सा होता सै, हम लोग अक्सर उसमें ही जाते हैं। किसी के यहां "स्नैक्स, किसी के यहां स्वीट्स, किसी के यहां मैंने कोर्स ले लेते हैं। सब जगह लिफाफे तो देने ही पड़ते हैं न। इसलिए खूब जेब कटती है इन शादियों में।
क्रमशः