भ्रम की पट्टी
भ्रम की पट्टी
उस रोज बहुत दिनों बाद आईने में खुद को ध्यान से देखा था। साँवली रंगत पर तीखे नैन-नक्श बेजान से लग रहे थे। सूखे हुए आँसुओं के निशान गालों पर रात की कहानी लिख चुके थे। पपड़ाये होंठो से मुस्कुराने की कमजोर महीन सी कोशिश ने होंठो के किनारे पर ही दम तोड़ दिया। आँखें कितनी सूजी सी हैं शायद रात भर जागते रहने और अवसाद के कारण ऐसा हुआ होगा। खुद से ही बात करते हुए माथे पर आई लटों को हल्के हाथ से पीछे कर दिया।
अवसाद की कालिमा माथे पर कितनी गहरी जम गई है या ये मेरी ही परछाई है।
याद आया...कल रात भी हमेशा की तरह उन शब्दों के चंदन को अपने माथे पर रख, अपने सुलगते मन को शीतलता की कोशिश कर रही थी जो कभी तुमने लिखे थे। मगर...मगर वो चंदन सतही था शायद। कल उन शब्दों की शीतलता और महक अस्तित्वहीन हो कर दूर शून्य में विलीन हो गई थी। वो शब्द पहले अंगारे बने फिर कोयला और फिर राख में बदल गए थे। रात के किसी पहर शायद उसी राख ने आखरी बार मुझे शीतलता देने का प्रयास किया होगा। तभी शायद कुछ लग गया होगा।
आँखें अब भी गीली थी कल शाम की बातों पर मगर फिर भी तौलिए के किनारे को पानी से भिगो कर माथे के उस हिस्से को साफ करने लगी।
सपाट निगाहों से उस हिस्से को रगड़ते हुए शीशे में खुद को देख रही थी। आँखों में वर्षों के टूटे विश्वास की किरचें चुभन दे रही थीं मगर इस चुभन से भी ज्यादा तकलीफ कहीं सीने धुँआ-धुँआ बन कर उठ रही थी। इस धुँए में तमाम कसमों-वादों के अवशेष थे जो गीली आँखों को अपनी धसक से बार-बार गीला कर रहे थे।
धुँए की जलन से भरी आँखों को पोंछ कर मैं तौलिए से और भी तेजी से माथा रगड़ने लगी। ये दाग तो साफ हो जाएंगे मगर उन दागों का क्या होगा जो तुम्हारी प्रेमिल छवि पर लग गए। सिर्फ एक सवाल था मेरा तुमसे,अपने प्रेम की आश्वस्ति के लिए। वो मुझे तुम्हारा गुनहगार कैसे बना गया ?
मेरी मनःस्थिति से अनजान, तुम क्रोध और नफरत से भरे काँटे चुभो कर मुझे लहूलुहान कर, हकीकत की जमीन पर खड़ा कर चले गए। दिल के रिश्ते, जन्मों के बंधन की जंजीर नहीं बन सकते थे जो मैं हक से बाँध पाती तुम्हें।
आईने में तुमसे बात करती अचानक चौंक उठी मैं। ये...ये दाग साफ क्यो नहीं हो रहे ! और तभी मैंने देखा, पूरा माथा भद्दे ढंग से काले दागों से भरा हुआ था। उफ्फ, आज से पहले क्यों ध्यान नहीं दिया इस पर ! क्यों बढ़ती उम्र की दस्तकों को नहीं सुन सकी। मोटी होती कमर की सलवटों ने माथे की सलवटों और आँखों के नीचे छाई छायाओं पर गौर नहीं किया था।
आईने में खड़ी ये कौन है ? और वो कौन थी जिससे मैं रोज आईने में मिलती थी ! शायद नहीं मिलती थी, वो तो आँखों का भ्रम था जो मुझसे पहले तुम्हारी आँखों से हट गया और आज मेरी आँखों से भी।

