भोग की खीर
भोग की खीर


कल से अम्मा जी ने जो ज़िद का दामन थामा था उसको पकड़ी आज तक बैठी थी।
उन्होंने साफ कह दिया था कि वे मन्नू उर्फ मानव को कस्बे के मंदिर की भोग की खीर खिलाकर ही परीक्षा देने जाने देंगीं।
उन्हें पूरा विश्वास था कि पहली बार बोर्ड परीक्षा दे रहा मेरा बेटा मुन्नू भोग की खीर को खाकर ना सिर्फ अच्छे नंबरों से पास होगा बल्कि नए कीर्तिमान भी रचेगा जैसे कि उनके पुत्र यानी कि मैंने अपने समय की बोर्ड परीक्षाओं में उस कस्बे में सर्वोच्च स्थान पाया था।
यह बोर्ड परीक्षाएं ही तो थी जिसने मेरे परिवार को मेरे साथ रहने का अवसर प्रदान किया था।
माता-पिता का इकलौता पुत्र होने के कारण मैं मां-बाबा को कभी अकेला नहीं छोड़ पाया और मेरे ब्याह के बाद जब मेरी नौकरी शहर में लगी तो अपनी पत्नी सुनीता को मैंने उन्हीं के पास रख छोड़ा और स्वयं कस्बे के ही विजय के साथ, जिसने भी उसी फर्म में नौकरी पाई थी, शहर आ गया।
बाबा का तो देहांत कुछ समय बाद ही हो गया था पर मां थी कि उस कस्बे को छोड़ने को ही तैयार नहीं थी मजबूरन मेरे बेटे मानव और सुनीता को वहीं उनके पास रहना पड़ा।
जब मुन्नू आठवीं पास करके नौवीं में आने वाला था तब मेरी पत्नी सुनीता ने घोषणा कर दी थी कि अब मुन्नू उस कस्बे में नहीं पढेगा। अगर मैं उन लोगों को अपने साथ शहर लेकर नहीं आया तो वह उसकी पढ़ाई छुड़वा देगी।
मां के बहुत गुस्सा करने और मेरे समझाने पर भी जब सुनीता अपनी फैसले से नहीं हटी तो मजबूरन मां को मुन्नू और सुनीता के साथ शहर आना ही पड़ा।
नौकरी लगते ही विजय और मैंने जमीन का एक टुकड़ा लेकर शहर में मकान बनवाने शुरू कर दिए थे। कस्बे में भरा पूरा परिवार और स्वयं की कोई जिम्मेदारी ना होने के कारण विजय बहुत पहले ही अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर शहर में आ बसा था।
मुझे तो सालों बाद अपने परिवार के साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ था।
एक तरीके से मेरा ही फायदा हुआ था अब मुझे परिवार का साथ और सुनीता के हाथ का खाना मिलना जो शुरू हो गया था मैंने सालों साल बाहर का खाना खाकर जीवन बिताया था।
एक ही जगह के होने के कारण विजय का मेरे यहां रोज आना जाना था।
उसका पुत्र प्रखर और मेरा बेटा मानव दोनों साथ ही एक विद्यालय में पढ़ने जाते थे।
जब बोर्ड परीक्षाओं का समय नजदीक आया तो मां ने बताया कि कैसे मंदिर के भोग की खीर खा कर उनके बेटे यानी मैंने इतने परचम लहराए थे तो विजय भी लालायित था कि वह भी अपने बेटे को भोग की खीर खिलाकर ही परीक्षा देने भेजें।
विजय और हम दोनों बालसखा थे लेकिन वह शुरू से ही पढ़ाई का चोर था। बड़ी मुश्किल से जैसे तैसे ही मेरे साथ वह पास होता गया और आज मेरी फर्म में मुझसे जूनियर के पद पर नियुक्त था पर मैंने कभी भी उससे अपने पद के अनुसार व्यवहार नहीं करा एक ही जगह से आए होने के कारण उससे मेरी आत्मीयता बनी हुई थी।
जब मैंने विजय को मां की हां में हां मिलाते हुए देखा तो मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर उसने समझा कि मैं उसके बेटे के सफलता के आड़े आ रहा था।
और इसी बात पर आज मां जिद करके अनशन पर बैठ गई थी।
मेरे कस्बे में जाकर भोग की खीर ना लाकर खिलाने पर मां ने अपना भरपूर गुस्सा दिखाया और खाना तक छोड़ दिया था।
बाबा के जाने के बाद मैं ही मां का एकमात्र सहारा था उन्हें दुखी नहीं करना चाहता था।
मैं आस्था का विरोधी नहीं था पर मेरे विरोध का कुछ कारण था।
मैंने उन्हें समझाया यहां से कस्बा लगभग सौ किलोमीटर दूर था वहां से लाते लाते खीर खराब हो जाएगी पर विजय और मां मेरी कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थे।
मां के ना खाने पर हार कर मैंने उनका दिल रखते हुए जाने की मंजूरी दी।
मुन्नू की बोर्ड परीक्षा अगले दिन से शुरू होने वाली थी इसलिए एक पहले मैं मां और विजय को लेकर कस्बा पहुंच गया।
सुबह मुंह अंधेरे ही हम लोग निकल लिए और फिर वहां पर दो-तीन परिचित परिवारों से मिलकर मंदिर से भोग की खीर लेकर चल दिए।
गिरे पर चार लात... जो रास्ता कार से 2 घंटे का था वह जाम मिलने के कारण 5 घंटे का हो गया था अब हम घर जब पहुंचे रात के 8:00 बज चुके थे। मैंने एक बार फिर विजय से कहा खीर खराब हो चुकी होगी हमें बच्चों को खिलाने से पहले सोच लेना चाहिए।
लेकिन मां और विजय पर कोई असर ना था उनकी विचारधारा पूर्ववत ही थी।
मुंह हाथ धोकर मंदिर में सर नवाकर मां ने पहला काम मुन्नू को खीर खिला कर करा।
अगले दिन सुबह 10:00 बजे से परीक्षा प्रारंभ होने थी मुन्नू तो नहा धोकर प्रसन्न मन से परीक्षा के लिए तैयार था और मैं विजय के साथ उसकी बेटे प्रखर और उसकी पत्नी को रातभर हुई उल्टी के कारण अस्पताल ले जाने में।
प्रारंभिक चिकित्सा के बाद प्रखर कुछ सहज हो पाया परीक्षा देने के लिए।
परीक्षा भवन तक दोनों को छोड़ने के बाद जब मैं घर आया तो जहां मां प्रखर की बिगड़ती तबीयत भगवान की इच्छा बता रही थी वही मैं और सुनीता एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे।
मैंने कस्बे से चलते हुए ही सुनीता से थोड़ी खीर बना लेने के लिए कहा था और जब मां घर आकर मुंह धोने चली गई तब सुनीता ने घर की बनी खीर से वह भोग की खीर बदल दी थी।
और मुन्नू ने मां के हाथ से जो खाया वह सुनीता की बनाई हुई घर की खीर थी।
परीक्षा परिणाम आने पर जहां मेरे मेहनती मुन्नू ने उम्मीद के अनुसार सफलता पाई थी वहीं विजय का बेटा सामान्य परिणाम ही दे पाया।
मां एक बार भोग की खीर को सराह रही थी और विजय भगवान जी पर भी पक्षपात का आरोप लगा रहा था और मैं और सुनीता मंद मंद मुस्कुरा रहे थे क्योंकि हम जानते थे मुन्नू की खाई खीर में मुन्नू की मां का प्यार और आस्था दोनों सम्मिलित थी।