भीगा मन
भीगा मन
भुट्टा खाने का बहुत मन था उसका ...इस साल बरसात का मौसम आने के बावजूद भुट्टा नसीब नहीं हुआ।
सावन की घटायें घुमड़-घुमड़ शोर मचाती तेज बौछारों से अपना तन मन भीगो डालती पर शरीर का ताप न मिटता
एक अदद भुट्टा ही तो माँगा था उसने ऐसा क्या गजब कर दिया था कि दीपेन उससे रूठ गया।
ऑफिस में बैठा होगा अपनी लाल, पीली रंगों में रंगी सहकर्मियों को निहार रहा होगा। मैं यहाँ अकेले मरु, शादी को आखिर कितने बरस हो गये ! इतनी बुढ़ी तो नही कि भुट्टा भी न खा सकूँ, तीन बरस में ही उससे उकता गया। उसे मेरा कोई भी रंग नजर नही आता, न प्यार का, न मनुहार का, न खुशी का, न गम का।
किससे कहूँ ..यहाँ भुना हुआ नींबू लगा भुट्टा कैसे मिलेगा ?
'बीबीजी काहे उदास बैठी हो यहाँ, बहुत तेज बारिश है पूरी भीग गयी हो !
"हाँ ..! संतोष तू कब आयी ?"
"अभी ! दरवाजा खुला था ,आपने आज बन्द नही किया था साहेब के जाने बाद ?"
"हाँ, मैं भुल गयी थी।"
संतोष ने रचना की आँखों से छलकते आँसुओं को देख लिया।
"क्या हुआ, साहेब से झगड़ा हुआ था आज ?"
रचना ने जवाब नहीं दिया, अपने कमरे में चली गई। संतोष घर का काम करते हुए सोच रही थी, मेमसाहब और साहब दोनों इतने अच्छे है फिर भी उदास रहते है, कोई बच्चा भी नहीं है इनके घर में, अगर होता तो रचना मेमसाहब यूँ अकेले न होती। उनको रोते देख अच्छा नहीं लगा। कुछ बोली भी नहीं। चुपचाप अपने कमरे में चली गयी।
संतोष काम करके वहाँ से चली गयी थी।
रचना कपड़े बदल कर फिर अहाते में आ बैठी .. बन्द कमरे में घुटन लग रही थी उसे ...बारिश बदस्तुर जारी थी।
तभी फोन जोरो से बजने लगा, फोन दीपेन का ही था, "रचना तुम शाम को मेरे ऑफिस आ जाना तैयार होकर ठीक है।" फोन कट। रचना हलो हलो करती रह गयी।
"मुझे नहीं जाना इतनी तेज बारिश है।" रचना ने खुद को ही दोहराया।
शाम हो चली थी रचना नहीं गयी। दीपेन का फोन दोबारा आता है, "तुम आ रही हो न ?
"मैं नहीं आ रही हूँ, बारिश बहुत जोर से हो रही है।"
"मैं गाड़ी भेज देता हूँ !"
"मैंने कहा न ! नहीं आना मुझे ! " फोन पटक दिया उसने गुस्से से।
सुबह के झगड़े में बाद रचना का मन किसी से बात करने को नहीं था। वह ऐसी ही थी, जब गुस्से में होती है तो किसी की नहीं सुनती चाहे कोई कुछ भी कर ले।
देर रात दीपेन घर पहुँचा। रचना अभी भी जगी हुई थी।
"खाना लगा दिया है, खा लो।"
दीपेन ने चुपचाप खाना खा लिया। रचना की शक्ल देख उसे खुद पर गुस्सा आया उसने नाहक उसे सुबह नाराज कर दिया। न जाने क्या कुछ बोल दिया, रचना का गुस्सा उफ !
आज शनिवार था। सोचा था रचना को घुमाने ले जाऊँगा पर इसने ऑफिस तक आना भी जरूरी न समझा। एक बार आ जाती काश !
रचना सुबह अलसाती हुई उठती दीपेन वहाँ नही था, "कहाँ गया होगा, इतनी सुबह, रात को भी देर से आया था !"
कारीडोर में उसकी गाड़ी भी नही थी। कहाँ चले गये सवेरे-सवेरे बताया भी नहीं। तभी दीपेन की कार वापस आते हुए दिखती है।
"तुम बाहर क्यों खड़ी हो रचना " दीपेन ने पूछा।
"तुम कहाँ थे ?"
दीपेन कुछ न बोला। उसने कागज में लिपटे भुट्टे पकड़ा दिए रचना के हाथों में।
"उफ, यह बहुत गर्म है !"
दीपेन जोरों से हँसने लगा। तभी बिजली की गड़हड़ाहट के साथ ही बारिश होने लगी जिससे दोनों भीगने लगे। दीपेन ने रचना को कुछ न कहा अपनी बाँहों में उठा लिया और घर में अन्दर ले गया