बदलती टोपियां और फीडबैक कल्चर
बदलती टोपियां और फीडबैक कल्चर


‘‘ डा0 कुमार विष्वास ने एक बार कविता पाठ करते समय श्रोतागणों से चुहल की कि आप लोगों का सच में पता नहीं चलता कि आप किसके बाराती हैं और कब आप शादी के लिए अर्जी देकर तलाक का आवेदन कर डालें’’ लेकिन इतनी गहन बात की गहनता तक शायद उन्होंने भी कभी नहीं सोचा होगा कि जिंदगी इस कदर बेमानी और बोझिल हो जाती है कि कई बार अपना पाला बदलते -बदलते हम खुद ही भूल जाते हैं कि हम थे किस पाले में? घर में बेचारे पति को कभी पत्नी के पाले में तो कभी मां के पाले में कभी बच्चों के पाले में तो कभी पड़ोसियों और रिष्तेदारों के पाले में भी रहना और उनके अनुसार बोलना पड़ता है तो वहीं एक महिला को भी अपनी जगह बनाने के लिए मायके में मायके वालों की तारीफ करनी पड़ती है तो ससुराल में ससुराल वालों की। अब क्यूं न करे ! ननद नाराज हो जाये तो रिष्तेदारी में नाक कट जाये और भाभी नाराज हो जाये तो मायके जाना बंद हो जाय। कभी -कभी इन बदलती टोपियों पर बड़ी हैरानी होती है। पर इंसान क्या करे ये टोपियां एक समय पर उसके लिए इतनी अहम बन जाती हैं कि यदि वो ऐसा नहीं करे तो उसके लिए तो जमाना रूक जाये।
एक और प्रकार की टोपी होती है जो अकसर आफिस में बास को पहननी पड़ती है तो संस्था में मैनेजर को भी । इस टोपी का नाम है समता टोपी। अरे भई समता टोपी नहीं समझे! चलिये मैं बताती हूं, समता टोपी यानी ऐसे व्यवहार का दिखावा करना जिससे जाहिर हो कि बॉस वास्तव में बॉस नहीं बल्कि आम कर्मचारी है, नेता वास्तव में नेता नहीं हमारा आदमी है, वो सबकुछ झेलने की क्षमता रखता है। अब नेता और बॉस भी कई प्रकार के होते हैं इससे तो आप सभी वाकिफ हैं तो मै एक ऐसे नेता बॉस के बारे में बताती हूं जो अपने आपको बहुत बड़ा विचारक, दलितों का मसीहा, समाज का नेता और न जाने क्या-क्या होने का मुगालता पाले बैठे हुए थे। ‘थे’ मतलब जब हम मिले इसका ये कतई मतलब नहीं कि महानुभाव चले गये हां बस अब हम मिल नहीं पाते और मैं भी उनके देखकर भी अनदेखा करने का प्रयास और दूर से नमस्कार करने का प्रयास करती हॅूं और क्यों न हो भाई मुझे भी तो लेखिका होने का मुगालता है। खैर पहली बार इस समता टोपी वाले नेता से मेरी मुलाकात एक इन्टरव्यू के दौरान हुई जहां वो जनाब मेरे परीक्षक थे। तो साहब उनके प्रष्नों में हर बार आर या पार की लड़ाई होती थी और मुझे जो समझ में आया कि यह व्यक्ति तो गांधी जी का दूसरा चेला है जिसने जिंदगी में उस सिद्धांत को श्ुरू से ही अपना लिया जिसे गांधी जी ने अहिंसा से हताष होकर अपनाया था। वे समझौता वादी न होकर के क्रान्तिकारी अधिक लगे। और मेरा सिर उनके लिए श्रद्धा व भक्तिभाव से नतमस्तक हो गया क्योंकि मुझे लगता था कि सामाजिक विकास की सोच की धारा में यदि देखा जाय तो किंचित मैं भी छोटी ही सही लेकिन क्रान्तिकारी की चिंगारी जैसी ही हूं। और बिना आरपार की लड़ाई के काम नहीं चलेगा। और भले ही नेता सुभाष चन्द्र बोस जी ने ‘‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’’ का नारा देकर लोगों के मन में करो या मरो की भावना से देष को आजाद कराने का बिगुल बजाया था लेकिन प्रचार में गांधी जी का ‘‘करो या मरो’’ ही याद रहता है। खैर हर इंसान के अपने -अपने मायने होते हैं और वक्त का तकाजा भी। अब भई जिसका जितना प्रचार वो उत्पाद उतना ही बिकता भी तो है।
साहब उन बॉस नेता से मेरी दूसरी मुलाकात एक बोर्ड मीटिंग में हुई जहां वे अध्यक्ष थे और मैं अधीनस्थ! और मुझे अनायास ही उन्हें नमस्कार करने के बाद एक गाने की पंक्ति याद आ गई जो आप को भी सुना ही देती हूॅं-‘‘बदले-बदले से सरकार नज़र आते हैं’’। इस बैठक में वे इतने व्यस्त थे कि उनके पास पूरे मुद्दों पर चर्चा करने का समय नहीं था लेकिन उन्होंने लोगों पर व्यंग्य कसने का समय निकाल लिया था और हां खाने का भी। उनकी जो सबसे ज्यादा चीज़ मुझे भाई वो था उनका हाथी सा व्यक्तित्व और उसी के तहत हिलती उनकी गर्दन! जब वो चलते तो आस-पास वालों को पता चल जाता कि कोई चल रहा है। आंखों में इतना तेज कि वे बाहर को उबली पड़ती थीं और साथ ही गरीबों का मसीहा होने का अभिमान तो इतना टपकता था कि स्वयं उनके चेहरे की खाल भी मानों नीचे को टपकी पड़ रही हो। यही लगता कि अब मुह नीचे गिरा कि तब गिरा। किसी की अवमानना समझने वाले मुझे माफ करें लेकिन इंसान को घर जैसा दिखेगा वैसा ही उसका वर्णन करने की आदत और बिना मिर्च मसाले के तो कोई मुझे पढ़ेगा भी नहीं।
इस तेज तड़ाक अनुभवी पारखी मसीहा से मेरी दूसरी मुलाकात मुष्किल से दो महीने के अंतराल पर हो गई। और इस बार मैंने अपने आपको दुनिया का सबसे भाग्यवान प्राणी पाया क्योंकि वे हमें लीडरषिप की ट्रेनिंग
दे रहे थे और मैं सोच रही थी कि आप ‘‘लीडर का क्षमावर्द्धन तो कर सकते हैं पर क्या आप किसी को लीडर कहकर लीडर बना सकते है?ं’’ जो भी हो अपने अन्य तीन साथियों के साथ इस बॉस नेता ने मुझे झकझोर कर रख दिया। और मुझे लगा कि मेरी संस्था और मेरी लाइन मैनेजर ने अगर मुझे यहां भेजा है तो उसका मतलब ही यही निकलता है कि उन्हें मुझसे कुछ अलग अपेक्षा है और वे मुझसे कुछ बेहतर की उम्मीद करते हैं। अपनी इसी सोच के साथ मैने प्रषिक्षण पूर्ण किया व अपने लिए काम का चुनाव किया। कहना नहीं होगा कि इस प्रषिक्षण ने मेरी ऊर्जा को बढ़ाया था अतः वापस आने के बाद मैंने पूरी ईमानदारी से हाथ में लिए गये काम को निभाना चालू कर दिया। उस ईमानदारी से काम का परिणाम तो आगे है पर मुफ्त में एक सलाह यहीं पर ‘‘गज गरजे तो गज न समझिये और घन बरसे तो ऋतु न समझिये’’ और इसी कहावत के आजकल के सन्दर्भों में अपने लिए लागू करें कि यदि कोई कहे कि मेरे बारे में या संस्था के बारे में दो आलोचनात्मक शब्द कहें व सुधार के उपाय बताये ंतो कर्मचारी होने के नाते कृप्या आप अपना मुह बंद रखें अन्यथा परिणाम के लिए तैयार रहें।
तो साथियों इस गैर दलित दलित मसीहानुमा नेतानुमा बासनुमा हाथीनुमा व्यक्तित्व से मेरी अबतक की अंतिम मुलाकात के पीछे बड़ा रोचक कारण था। और वो ये कि मुझ पिद्दी के शोरबे से मेरे बास को डर लगने लगा था कि मैं उनकी बास बनती जा रही हूॅं और उसके पीछे सिर्फ बात इतनी ही थी कि मैं बड़बोली उनके सामने अकसर बोलने की हिमाकत कर बैठती और मेंढक को को दादुर और अंध्े के सूरदास कहने की बजाय अंधा कह बैठती थी। और उन्हें लगने लगा कि मैं तो उनकी बास बनने की कोषिष में हूॅं। दूसरा वे अपने कच्चे-पक्के अच्छे खासे कार्यालय के रूआब में कान का कच्चा होने की कहावत को चरितार्थ करने में पूर्णतया समर्थ होने के कारण ये तर्क भी नहीं लगा सकीं कि जिस साम्राज्य को उन्होंने इतनी मेहनत से खड़ा किया था उसे कोई पिद्दी का शोरबा आते ही कैसे निगल सकता था और बासिज्म तो एक ऐसी चीज है कि राजा भोज भी राज न कर पाये कठपुतलियां सिंहासन लेकर भाग गईं और तो और हिटलर और सद्दाम दोनों का ही राज नहीं रहा तो फिर मुझ अदना से कर्मचारी की क्या औकात जिसे उन्होंने ही दस दिन पूर्व नौकरी पर रखा था। खैर साहब उनका ये डर मुझे मेरे मूल्यांकन के नाम पर उनके सर्वोच्च सिंहासनधारी के साथ बैठक करवाने के लिए ले गया और ये सर्वोच्च सिंहासन धारी और कोई नहीं यानी अध्यक्ष यानी हाथीनुमा व्यक्तित्व यानी सतरंगी टोपीधारी यानी पारखी मसीहा यानी महान व्यक्तित्व यानी..........अरे भई बस अब मुझसे गुणगान नहीं होता! यानी कि नेतृत्व क्षमतावर्द्धन करने वाले सन्दर्भ व्यक्ति से मेरी अंतिम मुलाकात थी।
साहब बैठक का मुद्दा था मैं और मेरी बुराइयां या दूसरे शब्दों में कर्मचारी और उसका मानसिक शोषण या क्षमतावर्द्धन करने वालों की नजर में मूल्यांकन या फीडबैक कल्चर! जो भी हो वहां पर बहस मुबाहिसे के लिए जगह देकर जगह छीन ली गई थी और दो वाक्यों ने मेरी अबतक ली गई सीख और ऊर्जा को ध्वस्त करके रख दिया और साथ ही वापस एक धरातल पर जीने वाला साधारण मानव बना दिया- पहला वाक्य था ‘‘तुम क्या समझाओगी मुझे दलित विचारधारा व राजनीति मैं 30 साल से इसमें जुड़ा हुआ हूॅं’’ और मैं कहना चाहती थी कि मैं जन्म से दलित हूं और दलित विचारधारा ही नहीं व्यवहार और राजनीति सबकी भोग्या जिसके साथ अनंतकाल का अनुभव जुड़ा हुआ है! पर कहा नहीं! क्यां नहीं कहा क्योंकि उनके दूसरे बोले गये वाक्य के बाद कुछ भी बोलना वैसा ही था जैसे ‘अंधे को कहना कि सावन आ गया’ तो साथियों उनका दूसरा वाक्य था आपने जो भी तर्क दिये मैं आपको अंतिम सत्य के रूप में कहना चाहूॅंगा कि ‘‘अथारिटी हमेशा अथारिटी के साथ हैं।’’
साथियों मैंने बदलती टोपी का एक और रंग देख लिया था और सोच रही थी अब अगली टोपी कौन सी होगी? मेरे कर्मचारी मन ने कहा ‘‘ सरिता वे नर मर चुके जे न्याय की आस लगाहिं और रहिमन ते पहिले वे मुये जिन मुख निकसत नाहिं (रहीम जी की आत्मा मुझे माफ करे), लेकिन मैं उस कमरे से खाली हाथ बिल्कुल नहीं निकली थी बल्कि मेरे शैतानी दिमाग में एक नया कहानी का शीर्षक कुलबुला रहा था जिसका नाम है ‘‘गधा मजदूर’’ तो साथियों जल्दी ही आप एक गधा मजदूर से मिलेंगें और आपके लिए एक खास बात - मैंने उस ऊर्जा और नेतृत्व के लबादे को उसी क्षण उसी कमरे में उतार फेंका और बाहर आकर अपनी साधारण टोपी को ही सिर पर लगा लिया और मुझे लगा फीडबैक कल्चर से सामने बोल कल्चर कैसा रहेगा। और इस वास्तविक टोपी को वापस पाने के लिए उस बहुरंगी टोपी का धन्यवाद!