बचपन
बचपन
"अरे, टिंचु, क्या कर रहा है बेटू ? सारे कपड़े गंदे हो जाएंगे।" मैंने घर के बाहर सीढ़ियों पर फिसल रहे अपने बेटे से हर आम गृहिणी की भाषा में कहा। हम गृहिणियाँ पूरी ज़िन्दगी अपने ही बनाये हुए एक ढाँचे में जीती रहती हैं, जीती क्या हैं, जिंदगी काटती हैं । सब कुछ हमेशा साफ़-सुथरा रखने के चक्कर में खुलकर जीना ही छोड़ देती हैं । सब कुछ समय पर हो, इस अपने ही थोपे हुए अनुशासन को बनाये रखने के लिए हमेशा जल्दबाज़ी में ही रहती हैं । वाकई में हमारी पूरी ज़िन्दगी काम निपटाते-निपटाते ही निपट जाती है। समाज के दबाव में, भौतिकवाद के दौर में हम दौड़ते ही रहते हैं और मजे की बात यह है कि कहीं पहुँचते भी नहीं हैं।
मेरे बार -बार मना करने के बाद भी मेरा ३ वर्षीय बेटा टिंचु वहाँ से हट ही नहीं रहा था। तब ही वहाँ हमारी कॉलोनी में नयी -नयी रहने आयी मीनाक्षी और उसकी टिंचु की हमउम्र बेटी मिष्ठी भी आ गयी। मिष्ठी ने भी टिंचु के साथ खेलना शुरू कर दिया।
मीनाक्षी अभी नई ही थी, लेकिन पूरी कॉलोनी की महिलाओं में चर्चा का विषय थी। उसे हमेशा ही मुस्कुराते हुए देखा था। उसके चेहरे पर हमेशा एक सुकून और शांति दिखाई देती थी।
मैं अभी भी टिंचु को मना किये जा रही थी कि उतने में ही मीनाक्षी भी टिंचु और मिष्ठी के साथ खेल में शामिल हो गयी। वह दोनों बच्चों के साथ खिलखिलाकर हँस रही थी।
"अरे, आप ये क्या कर रही हैं ? आपके कपड़े भी गंदे हो जाएंगे। बच्चों के साथ ऐसी बचकानी हरकतें करते हुए कोई देखेगा तो क्या सोचेगा ?" मैंने मीनाक्षी को कहा।
"मैं अपना बचपन वापस जी रही हूँ। कपड़े तो धुल जाएंगे। लेकिन बच्चों की यह हँसी और ख़ुशी वापस नहीं आएगी। लोगों का क्या है कुछ भी सोच सकते हैं।" मीनाक्षी का बच्चों के साथ खेलना बदस्तूर जारी था।
थोड़ी देर बाद दोनों बच्चों ने फिसलने वाला खेल बंद कर दिया। मीनाक्षी अपनी बेटी मिष्ठी को लेकर जाने लगी। तब मैंने कहा, "आओ अंदर आ जाओ, चाय पीकर चली जाना। दोनों बच्चे थोड़ी देर और खेल लेंगे। "
मीनाक्षी थोड़ी न नुकर के बाद अंदर आ गयी थी।
मैं चाय बनाने किचन में चली गयी और दोनों बच्चे मीनाक्षी के साथ खेलने लगे। मीनाक्षी और बच्चों की हँसी -ठिठोली से पूरा घर गूँज उठा था। मैं चाय लेकर आई और मैंने मीनाक्षी को चाय पीने के लिए दी।
मैं कुछ बोलती, इससे पहले मीनाक्षी बोलने लगी, " अपने बच्चों के साथ हम अपना बचपन वापस जी सकते हैं। हमें उन्हें शरारतें करने देना चाहिए। बच्चे अभी शरारतें नहीं करेंगे तो कब करेंगे। बस बच्चा बदतमीज़ न बने। "
"लेकिन कपड़े ज्यादा गंदे हो जाए तो धोने पर ख़राब भी तो होते हैं। अगर ज़्यादा छूट दे दी तो घर का तो बंटाधार ही हो जायेगा। मेरा तो सारा समय टिन्चू को यह मत करो, वह मत करो कहने में ही निकल जाता है। "मैंने कहा।
" यही तो, हम खुद ही बच्चों को इंसानों और उनकी भावनाओं से ज्यादा महत्व चीज़ों को देना सिखाते हैं। फिर जब वे बड़े होकर हमारी भावनाओं को नहीं समझते तो हमें बुरा लगता है। कपड़े खराब हो जाएंगे तो नए आ जाएंगे, कपड़े किसी की भी हंसी और ख़ुशी से ज्यादा तो नहीं है। अपने अंदर के बच्चे को अगर हम सभी थोड़ा सा ज़िंदा रखें, तो जिंदगी थोड़ी आसान हो जायेगी।" मीनाक्षी ने अपना चाय का कप नीचे रखते हुए कहा।
"शायद, तुम ठीक कह रही हो।" मैंने कहा।
" अच्छा चलती हूँ। आपसे बात करके अच्छा लगा। मेरी बात पर गौर जरूर कीजियेगा।" ऐसा कहकर मीनाक्षी मिष्ठी को लेकर चली गयी।
