बचपन से पचपन का सफ़र
बचपन से पचपन का सफ़र
वर्षा आज आईने के सामने जा खड़ी हुई खुद को सालों बाद गौर से देखा आँखों के आस-पास काले धब्बे गालों पर झुर्रियां और बालों में कुछ चाँदी सी लटें उभर आई थी। गरिमामय ज़िम्मेदारी से लदी वर्षा कुछ साल पीछे मूड़ कर देखती है। बचपन की उस अतीत की गलियों में झाँकती,कली को हौले-हौले फूल बनते देख रही है और फूल को पतझड़ की झंझा झेलते पंखुडियों में ढ़लते खुद की मज़ा पर बिखरते देख रही है पचपन साल बीत गए खुद को समझने का मौका ही नहीं मिला था। आहा...खिली-खिली वो जीवंत गली में एक लड़की फ्राक पहनकर अल्हड़ चंचल दोस्तों से अठखेलियां करती इत-उत दौड़ रही है अपनी मस्ती में झूमती।गुलमोहर की बूटियाँ चुनती, लंगड़ी करते दोस्तों के पीछे दौड़ती, भाई के कँधे पर आराम से चढ़ती, दहलीज़ पर बैठी लहसुन छिलती माँ के आँचल से पसीना पौंछती चहक रही है। कंचूके खेलती, नाजुक गुड़िया की चोटी बुनती, दूर आते पापा को देखकर भागते लिपटती, बेग झपटकर बोझ हटाती पापा के हल्के हाथ करती। धीरे-धीरे उम्र के सफ़र में आगे बढ़ती, कुछ-कुछ बदलती। माँ के काम में हाथ बटोरती, जवानी के पहले पायदान पर खड़ी गली से गुज़रते एक आशिक के इशारे पर शर्माते नैंन झुकाती। इश्क की भाषा को मन में समझती डरती, छुपती।
खाना बनाते हाथ जलाती। नखरें दिखाती पापा की जेब से पैसे निकालती। ज़िद्दी पिद्दी मनमानी करती पूरे घर की दादी बनती। पापा को राजा राजकुमारी खुद को समझती। माँ की बातों का बहिष्कार करती। पढ़ लिखकर एकदम से होती सयानी जिम्मेदारी को काँधों पर उठाती।
बड़बोली बड़ी अचानक मौन गुड़िया बन गई। अल्हड़पन को अलविदा कहते बचपन की मिट्टी से उखाड़ कर दूसरी ज़मीं पर खुद को बोती। शादी की शहनाई संग नये संसार में कदम रखकर बाबुल का घर सूना कर गई। गलियों में गहरा अंधेरा भर गई। माँ की कोख पराई करके अलग गोत्र में बँध गई।
एक अजनबी संग सामंजस्य बिठाने की कोशिश में खुद के वजूद को भूलती, मारती कभी खुशी कभी गम को सहती परायों को परवाज़ में समेटे अपनेपन की नींव रखती कुमारी जिम्मेदार नारी बन गई। नन्हें जीव को कोख में पाले खुद जो बच्ची थी आज थरथर्राती जाँघों से जन्म देती नवजात को ममता के धागे से बँधती भूलकर अपने अस्तित्व को बालक मय बन गई।
खुद के सपनों को संदूक में सुलाकर, एहसासों पर चद्दर बिछाकर, नींद को रखकर सिरहाने। वजूद मिटाकर वक्त की धार पर जवानी कुर्बान करते घर को मकान बनाते कब बच्ची से औरत बन गई। औरत से बुढ़िया तक के कठिन सफ़र में कुछ-कुछ बेचारी थक गई।
पहचान नहीं पाई वो खुद को उम्र की परत के पीछे गढ़ गई। देख रही है धुँधली आँखों से वो नाजुक चंचल हिरनी वक्त के बहाव में गिरती, पड़ती, मिटती, जूझती बुढ़िया होती बह गई।
वर्षा सोच रही है "हंसी की बौछार उम्र की धरा पर बरस कर खाली बदली में ढ़ल गई"