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Saroj Verma

Romance

4  

Saroj Verma

Romance

अर्पण--भाग (६)

अर्पण--भाग (६)

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दिनभर का समय राजहंसिनी को अस्पताल में काटना मुश्किल पड़ गया, रह रहकर वो बस बिस्तर पर करवटें ही बदलती रही, श्रीधर राजहंसिनी की हालत से वाकिफ था, उसे पता था कि जो लड़की एक जगह कभी शान्त होकर नहीं बैठ सकती, उसके लिए पूरा दिन बिस्तर पर गुजारना कितना कठिन होगा।

      शाम हुई देवनन्दिनी अस्पताल आई, राज से मिलने हाथों में ढे़र से फल लेकर और श्रीधर से बोली___

श्रीधर बाबू अब आप घर जा सकते हैं, मैं रात को यहाँ रूक जाऊँगीं।

ठीक है !जैसा आप उचित समझें, मैं अब घर जाता हूँ, कल मिल जाने से पहले फिर से मिलने आऊँगा, श्रीधर बोला।

जी, बहुत अच्छा ! एक बार फिर से बहुत बहुत शुक्रिया, देवनन्दिनी बोली।

जी ! आप फिर से मुझे शर्मिन्दा करतीं हैं, ये तो मैने मानवतावश किया, श्रीधर बोला।

जी, श्रीधर बाबू ! आप दिन भर मेरे पास रहें, मेरा इतना ख्याल रखा, इसके लिए मेरी तरफ से बहुत बहुत शुक्रिया, राज बोली।

अब तो यहाँ से जाना ही ठीक रहेगा, नहीं तो आप दोनों बहनें शुक्रिया अदा कर करके मुझे यूँ ही शर्मिन्दा करतीं रहेंगीं, श्रीधर बोला।

    रात का समय___

दोनों बहनें अस्पताल में थी, कुछ देर में रामू घर से खाना लेकर आ गया, राज के लिए सूप आया था और नन्दिनी के लिए सादा खाना, नन्दिनी तो वैसे भी सादा खाना खाती थी लेकिन उसने उस दिन और भी सादा खाना बनवाने के लिए कहा था क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि राज खाना खाने की फरमाइश करें।

सूप को देखकर राज का मुँह बन गया लेकिन नन्दिनी के डर से उसने वो सूप खतम किया।

श्रीधर अस्पताल से घर आया, उसने घर आकर सुलक्षणा से दिनभर की बात कह सुनाई, सुलक्षणा बोली___

सब , ठीक है कोई ख़तरे वाली बात तो नहीं है।

ना जीजी !चोट तो बहुत आई थी लेकिन समय पर इलाज होने से खतरा टल गया, श्रीधर बोला।

तो ठीक है कल जब तू मिल जाए तो मुझे भी संग ले चलिओ, मैं भी राजहंसिनी से मिल लूँगी और कुछ खाने को भी बना लूँगी, सुलक्षणा बोली।

ना जीजी ! खाना बनाने की कोई जुरूरत नहीं है, अभी तो उनका परहेज़ी खाना चल रहा है, श्रीधर बोला।

सब कहने की बातें हैं, परहेज़ी खाना खा के आज तक कोई मरीज़ ठीक हुआ है भला, डाँक्टर तो कुछ भी कहते हैं, मैं कुछ चटपटा सा बना लूँगी, जिससे राजहंसिनी को खाकर अच्छा लगे, सुलक्षणा बोली।

जैसी तुम्हारी मर्जी, लेकिन अगर किसी ने कुछ कहा तो इल्जाम मैं अपने सिर पर कतई ना लूँगा, श्रीधर बोला।

हाँ....हाँ...मैं क्या किसी डरती हूँ, सुलक्षणा बोली।

ठीक है....ठीक है...जो तुम्हें अच्छा लगें वही कर लेना , श्रीधर बोला।

अच्छा, चल हाथ मुँह धो ले, मैं तब तक खाना लगाती हूँ, सुलक्षणा बोली।

अच्छा, जीजी ! इतना कहकर श्रीधर हाथ मुँह धोने चला गया, कुछ देर बाद सब खाना खाने बैठें, ऐसे ही सबका सारा दिन ब्यतीत हो गया।

सुबह हुई, देवनन्दिनी ने राज से कहा___

मैं अब घर जाती हूँ क्योंकि तैयार होकर मुझे मिल के लिए निकलना है, बहुत जरूरी मीटिंग है आज।

ठीक है दीदी ! तुम जाओ, मैं खुद को सम्भाल लूँगी, राज बोली।

कह तो ऐसे रही है कि जैसे दादी-परदादी हो, मुझे पता है तू अपना कितना ख्याल रखेगी, देवनन्दिनी बोली।

सच दीदी !तुम जाओं, मेरी चिन्ता मत करो, राज बोली।

    तभी नर्स कमरे में आई और बोली___

चलिए, आप बाहर जाइए अब मरीज को तैयार करके उन्हें नाश्ता और दवा देनी होगी।

जी, मैं घर ही जा रही हूँ, अब अपना काम शुरू कर सकतीं हैं, नन्दिनी बोली।

जी, आप मरीज की जरा भी फिकर ना करें, मैं सब सम्भाल लूँगी, नर्स बोली।

तब तो बहुत बढ़िया, अच्छा अब मैं चलती हूँ राज ! शाम तक फिर आऊँगी और इतना कहकर नन्दिनी घर को रवाना हो गई।

नर्स ने राज को तैयार करकें जूस और बटर-ब्रेड दिया लेकिन राज को वो पसंद नहीं आया उसने बस एक दो निवाले खाए और एक दो घूँट जूस पीकर सब वापस कर दिया, नर्स ने दवाई दी, उसने वो खाई और फिर बिस्तर पर लेट गई।

      उधर श्रीधर के घर में श्रीधर मिल जाने को निकला तो सुलक्षणा बोली___

मैं भी तैयार हूँ, तेरे साथ मैं भी चलूँगी, राजनन्दिनी को देखने, उसके लिए मैने चटपटे से आलू के पराँठे भी बनाएँ है।

क्या कह रही हो ?जीजी !आलू के पराँठे, वो भी मरीज के लिए, श्रीधर बोला।

क्यों रे !मै ने क्या गलत कर दिया, पराँठे बस तो बनाएं हैं, राजहंसिनी ठीक से नहीं खाएंगी तो ठीक कैसे होगी? सुलक्षणा बोली।

जैसी तुम्हारी मर्जी , मेरे कहने से तुम मान थोड़े ही जाओगी, श्रीधर बोला।

जब तुझे पता है तो ज्यादा बहस मत कर, दरवाजे पर ताला लगा और चुपचाप अस्पताल चल, सुलक्षणा बोली।

मैं भला तुमसे कैसे बहस कर सकता हूँ, मेरी इतनी हिम्मत कहाँ?जो तुमसे कुछ भी कहूँ, श्रीधर बोला।

और दोनों बहन भाई, बबलू को ले कर के अस्पताल को चल दिए।

अस्पताल पहुँचकर सुलक्षणा और श्रीधर, राजहंसिनी के कमरें में पहुँचे, श्रीधर को देखते ही राज बोल पड़ी___

अरे, शहजादे ! आ गए आप !

सुलक्षणा ने जैसे ही शहजादे सुना तो राज से पूछ बैठी__

माफ़ करना राजहंसिनी जी, मुझे कुछ समझ नहीं आया कि आप श्रीधर को शहजादे कहकर क्यों पुकार रहीं हैं?

जी, आप का परिचय, राज ने सुलक्षणा की ओर इशारा करते हुए श्रीधर से पूछा___

जी, ये मेरी बड़ी बहन सुलक्षणा और मेरा भांजा बबलू, श्रीधर ने जवाब दिया।

ओह....तो सुलक्षणा दीदी ! मुझे आप और राजहंसिनी मत कहें, राज कहकर ही पुकारें और रही इनके शहजादे होने की बात तो जब हमारी पहली मुलाकात हुई थी तो तब से मैं इन्हें शहजादे ही पुकारती चली आ रही हूँ, राज बोली।

ठीक है तो मैं तुम्हें राज ही कहूँगी, अच्छा ये बताओ अब तबियत कैसी है? सुलक्षणा ने राज से पूछा।

दीदी ! आप ही बताओ, बिना अच्छे नाश्ते के दिन की शुरूआत ना हो तो ऐसे जीवन का भला क्या फायदा? ऐसा जीवन तो जानवर भी जी लेते हैं, सुबह सुबह बटर और ब्रेड लेकर आई थी नर्स, मुझसे तो ना खाई गई, पता नहीं इस कैद़खाने में कितने और दिन रहना पड़ेगा, राज बोली।

लगता है शह़जादी साहिबा !एक ही दिन में उकता गईं हैं, श्रीधर बोला।

कैसे ना उकताऊ? कल से बस बेस्वाद चींजों का ही मुँह देख रही हूँ, कुछ चटपटा सा खाने को मिल जाता तो मेरा दिन बन जाता, राजहंसिनी बोली।

घबराएँ नहीं शहजादी साहिबा ! हम उसका इन्तजाम करके आएं हैं, श्रीधर बोला।

अच्छा ! सच कहिए शहजादे, राज ने चहकते हुए पूछा।

जी हाँ !लेकिन मैं जरा इधर उधर निगाह डाल लूँ, अगर कोई डाक्टर या नर्स इस ओर आ गई तो हम तीनों को अच्छी खासी डाँट पड़ जाएगी, श्रीधर बोला।

बहुत बहुत शुक्रिया, आपका ये एहसान मैं जिन्दगी भर ना भूल पाऊँगी, राज बोली।

ये मेहरबानी मेरी नहीं, जीजी की है, आप उन्हें धन्यवाद दीजिए, श्रीधर बोला।

ठीक है तो मैं मुआयने पर लग जाता हूँ, तब तक आप नाश्ता कर लीजिए, श्रीधर बोला।

    सुलक्षणा ने अपने पास रखें थैलें में से एक पीतल का टिफिन निकाला और खोलकर राज के सामने रख दिया, राज बिस्तर से टेक लगाकर बैठ गई और खाने का डिब्बा हाथ में लेकर बोली____

ओह...आलू के पराँठे, कितनी अच्छी खुशबू, बस मेरी तो आत्मा तृप्त हो गई, इन्हें खाकर मैं मर भी जाऊँ तो कोई ग़म ना होगा, कम से कम भूखे पेट तो ना मरूँगी, राज बोली।

अरे...ये कैसीं बातें करती हो, अब तुम आराम से खाओ और मैं रोज ही कुछ ना कुछ अच्छा सा बनाकर ले आया करूँगी, सुलक्षणा बोली।

सच...दीदी ! कितनी अच्छी हो आप, राज बोली।

और राज पराँठे ऐसी खाने लगी जैसे कई जन्मों की भूखी हो, वो खाएं जा रही थी और श्रीधर उसे एकटक देखें जा रहा था, राज की मासूमियत ने श्रीधर का मन मोह लिया था, राज के हाव भाव देखकर ऐसा लगता था कि जैसे किसी छोटे बच्चे को उसकी मनपसन्द चींज मिल गई हो, तभी राज का ध्यान श्रीधर की ओर गया और उसने श्रीधर को देखा कि वो उसे एकटक देख रहा है तो वो थोड़ा झेंप गई।

      राज ने जैसे ही पराँठे खतम किए, वैसे ही नर्स कमरे में आ धमकी और बोली___

ये खाने की खुशबू कहाँ से आ रही है?

जी, कुछ नहीं ये बच्चा जिद़ कर रहा था, इसलिए इसे कुछ खाने को दिया है, सुलक्षणा ने बबलू की ओर इशारा करते हुए कहा।

जी तब तो ठीक है, मुझे लगा आप लोगों ने मरीज को तो कुछ नहीं खिला दिया, नर्स बोली।

जी, भला हम ऐसा क्यों करने लगें, हम भी तो मरीज की सलामती चाहते है, मरीज जल्दी से ठीक हो जाए तो हमें भी अच्छा लगेगा, श्रीधर बोला।

जी, ठीक है, अभी कुछ देर में डाक्टर साहब मरीज का मुआयाना करने आने वाले हैं, इसलिए कहने आई थी, नर्स बोली।

तो ठीक है, हम लोंग अब चलते हैं, मुझे मिल भी जाना है, श्रीधर बोला।

जी, आप लोंग जा रहे हैं, अब मुझे सारे दिन अकेले रहना पड़ेगा, राज बोली।

जी, अब क्या कर सकते हैं?शह़जादी साहिबा !जब तक आप ठीक नहीं हो जाती तब तक अस्पताल ही आपका घर है, श्रीधर बोला।

ठीक है , शहजादे ! तो आप जाइए, मुझे मेरे हाल पर छोड़़ दीजिए, राज बोली।

आप ऐसी बातें करतीं हैं तो लीजिए मैं नहीं जाता मिल, श्रीधर बोला।

अरे....नहीं...नहीं..शहजादे ! मैं तो ऐसे ही कह रही थी, आप मिल जाइए, वहाँ दीदी आपका इन्तज़ार करतीं होंगीं, राज बोली।

ठीक है तो अब हम लोग चलते हैं, इतना कहकर सुलक्षणा और श्रीधर अस्पताल के बाहर आ गए, सुलक्षणा ताँगें में बबलू के संग घर निकल गई और श्रीधर मिल पहुँचा।

राज की बातें सुनकर श्रीधर को कुछ अच्छा नहीं लगा था, राज का उदास चेहरा अभी तक उसकी आँखों के सामने घूम रहा था, उसने मन में सोचा कि काश उसे मिल ना आना होता तो वो राज के संग अस्पताल में ही रूक जाता, कितने साफ दिल की है राज, मासूम और भोली, साथ में थोड़ी अल्हड़ भी।

    श्रीधर ये सोच ही रहा था कि देवनन्दिनी उसके केबिन में आकर बोली___

क्या हुआ श्रीधर बाबू ! क्या सोचते हैं, कहीं कोई परेशानी तो नहींं।

जी नहीं, मैं तो राज जी के बारें में सोच रहा था, वो आज काफी उदास लग रहीं थीं, श्रीधर बोला।

तो आपने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की, देवनन्दिनी ने पूछा।

जी, मैं उनसे क्या कहता भला, अगर आप वहाँ होतीं तो उनका उदास चेहरा आप से भी नहीं देखा जाता, श्रीधर बोला।

वो इतनी उदास होगी, ये तो मैनें कभी सोचा ही नहीं, देवनन्दिनी बोली।

जी, आप को कुछ तो सोचना होगा, उनकी मनोदशा के विषय में, श्रीधर बोला।

जी, मैं कुछ सोचती हूँ, इस विषय में, देवनन्दिनी बोली।

क्रमशः....


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