अर्पण--भाग(४)
अर्पण--भाग(४)
राजहंसिनी ने देवनन्दिनी से बात करने के इरादे से डरते हुए हिम्मत करके कहा__
दीदी! आज शहर की सड़कें कुछ ज्यादा ही साफ सुथरी लग रहीं हैं, है ना!
हाँ...हाँ..क्यों ना होगीं साफ सुथरी? नगरपालिका वालों को मालूम था ना कि इन सड़को से राजकुमारी राजहंसिनी पधारने वालीं हैं इसलिए तो सड़कों को जीभ से चाट चाटकर साफ किया गया है, देवनन्दिनी गुस्से से बोली।
अच्छा! मैं ना कहती थी दीदी! एक ना एक दिन सारे शहर को पता चल जाएगा कि राजहंसिनी किसी राजकुमारी से कम नहीं हैं, चलो शहर के लोगों को इतना तो पता चल गया और एक तुम हो कि मेरी कद़र ही नहीं करती, राजहंसिनी बोली।
हाँ...हाँ...घर चलो, अभी कद़र करती हूँ, मेरा नाम खराब कर रखा है, आए दिन कोई ना कोई नई आफ़त खड़ी करती रहती हो, देवनन्दिनी बोली।
अब मैं करती भी क्या?शाम को पाँच बजे से हाँस्टल के गेट बंद हो जाते हैं, बाहर ही जाने को नहीं मिलता तो इंसान क्या करेगा? उस अजायब घर से भागेगा ही ना! राजहंसिनी बोली।
मालूम होता है कि बहुत तरक्की पर हैं राजकुमारी जी, तुम्हारी ये हरकतें देखकर वहाँ ऊपर बैठे बाबू जी का सीना गर्व से फूल जाता होगा, देवनन्दिनी बोली।
अच्छा! मुझे तो पता ही नहीं था, राजहंसिनी बोली।
कितनी बेशर्म है तू! कोई भी फरक़ नहीं पड़ता तुझे, एकदम चिकना घड़ा हो गई है, देवनन्दिनी बोली।
अब और कितना गुस्सा करोगी, माफ़ भी कर दो, मुझे नहीं रहना हाँस्टल में, मैं घर से ही रोज काँलेज चली जाया करूँगी, मुझसे हाँस्टल की पाबन्दियाँ नहीं सही जाती, बस इस बार मुझे घर में रहने दो, अगर अच्छे नम्बर ना आएं तो फिर से हाँस्टल भेज देना, राजहंसिनी बोली।
तो ठीक है, पहले वादा कर कि तू इस साल मेहनत करेगी और अच्छे नम्बर लाएगी, तभी मैं कुछ सोचूँगी कि तुझे घर पर रखा जाए या नहीं, देवनन्दिनी बोली।
हाँ, दीदी! पक्का वादा, बस मुझे हाँस्टल में रहने को ना कहो, राजहंसिनी बोली।
तो ठीक है, चल अब उतर मोटर से, घर आ गया, देवनन्दिनी बोली।
मेरी अच्छी दीदी! मेरी प्यारी दीदी!राजहंसिनी ये कहते हुए मोटर से उतर गई।
अच्छा! ठीक है, तू भीतर जा , मैं मोटर पार्क करके आती हूँ, देवनन्दिनी बोली।
ठीक है दीदी!इतना कहते हुए, राजहंसिनी भीतर पहुँची तो देखा डाक्टर कमलकान्त बैठे हैं, साथ में उनके छोटे भाई कमलकिशोर जी भी कोई किताब पढ़ते हुए नज़र आए....
अरे, डाक्टर बाबू! आप कब आए?राजहंसिनी ने कमलकांत से पूछा।
जी, बहुत देर हो गई हमें आए हुए, लेकिन राज! तुम अचानक कैसे टपक पड़ी, कमलकान्त ने पूछा।
जी! बस हाँस्टल में जी नहीं लग रहा था, इसलिए आ गई, राजहंसिनी बोली।
अरे, कमलकिशोर कल रात ही विलायत से लौटा था, तो मिलाने ले आया, सोचा कि नन्दिनी के संग थियेटर देखने जाएंगे, बहुत ही अच्छा शो चल रहा है, लेकिन अब तुम आ गई हो तो किशोर को साथ मिल जाएगा, कमलकान्त बोला।
जी, मेरे पास तो इतना समय नहीं है और वैसे भी किशोर बाबू विलायत रिटर्न हैं, हम लोगों क़ो उनके जैसा सलीका कहाँ आता है?राजहंसिनी बोली।
सब आपस मे बातें कर ही रहे थे कि देवनन्दिनी आ गई__
अरे, डाक्टर साहब आप!चाय वाय पी की नहीं, देवनन्दिनी ने पूछा।
जी! रामू ने चाय नाश्ता करा दिया है, हम तो थियेटर जाने के लिए आए थे, कमलकान्त बोला।
जी आज तो ना जा पाऊँगी, आज कुछ ज्यादा ही थक गई हूँ, देवनन्दिनी बोली।
कोई बात नहीं तो कल चलेंगें, कमलकान्त बोला।
तो ठीक हैं, अब आप लोंग यही डिनर करके जाइएगा, मैं अभी रामू से खाना तैयार करने को कह देती हूँ, देवन्दिनी बोली।
कमलकिशोर ने राजहंसिनी से कहा__
राज जी! जब तक खाना तैयार होता है तो प्यानों पर एक मधुर गीत सुना दीजिए, बहुत दिन हो गए आपकी मधुर आवाज़ सुने हुए।
क्यों किशोर बाबू! वहाँ विलायत में नहीं सुने आपने गीत जो आपको मेरा गाना सुनना है, राज बोली।
जी सुनें तो बहुत ही गीत हैं लेकिन जरा आप सुना देतीं तो मेहरबानी हो जाती , किशोर बोला।
ए.. क्यों इतना नखरा करती है, सुना दे ना! गीत, देवनन्दिनी बोली।
ठीक है दीदी!तुम कहती हो तो सुनाएं देती हूँ, राज बोली।
और राज ने प्यानों पर सबको एक मधुर सा गीत सुनाया___
कुछ देर सब बातें करते रहे तब तक खाना भी तैयार हो गया, रामू ने देवनन्दिनी से पूछा___
बड़ी दीदी! खाना लगा दूँ।
हाँ...हाँ...लगा दो, वैसे खानें में क्या क्या बनाया है?देवन्दिनी ने रामू से पूछा।
जी, मलाई कोफ्ता, भरवाँ बैंगन ये खा़सतौर से छोटी दीदी रसोई मेँ बोल कर गईं थीं और आपके लिए अरहर की दाल, आलू-गोभी, मीठे में सेवई की खीर , रोटी और चावल।
बहुत बढ़िया रामू! ठीक है जल्दी से खाना लगा दो, देवन्दिनी बोली।
थोड़ी देर में खाना टेबल पर लग गया और सब खाने बैठे____
राज! कल आप फुरसत हैं तो एत़राज़ ना हो तो एक बात कहूँ, किशोर ने राजहंसिनी से कहा।
जी...कहिए..., लेकिन खाने के बाद, बहुत दिनों के बाद अपना मनपसंद खाना खा रही हूँ और अभी मेरा ध्यान केवल खाने की ओर है, बातों की ओर नहीं, राजहंसिनी बोली।
राज! ये क्या तरीका है बात करने का? देवनन्दिनी ने राज को टोका।
दीदी! बुरा लगता है तो लगता रहें, मेरे लिए आप और खाने के सिवाय, कुछ जरूरी नहीं, राजहंसिनी बोली।
ठीक है , किशोर! तुम क्या कहना चाहते हो? कहो, मैं सुनती हूँ, देवनन्दिनी बोली।
जी!, मैं कहना चाहता था कि अगर कल राज को फुरसत हो तो मेरे साथ बाजार चल सकती है, कुछ कपड़ें खरीदने थे, यहाँ की दुकानों को वो अच्छी तरह जानती होगी, भइया को तो अपनी क्लीनिक से फुरसत नहीं और आप मिल छोड़कर कहीं नहीं जा सकती तो बची राज, अब वो हाँस्टल से आ ही गई है तो क्यों ना मेरी शाँपिग करा दें, किशोर बोला।
क्यों नहीं?किशोर चिन्ता ना करो, कल राज तुम्हारे संग जुरूर जाएंगी, देवनन्दिनी बोली।
तो फिर मैं ग्यारह बजे अपनी मोटर लेकर आ जाऊँगा, लन्च हम किसी अच्छे से रेस्तरां में कर लेगें, किशोर बोला।
मालूम होता है, आपने तो सारे दिन की बुकिंग कर ली है, मेरे पास इतनी फुरसत नहीं है, राजहंसिनी बोली।
क्यों? घर में रहकर क्या पहाड़ तोड़ेगी?देवनन्दिनी बोली।
ना दीदी!अच्छा...अच्छा....नाश्ता करके सोऊँगी, राज बोली।
राज की बात सुनकर सब ठहाका लगाकर हँस पड़े, ये रात बस यूँ ही खतम हो गई___
दूसरे दिन नाश्ता करके देवनन्दिनी मिल चली गई और राज नाश्ता करके बगीचें में पली हुई चिड़ियों के संग खेल रही थीं, उन्हें दाने चुगा रही थी, उसने चुन चुन कर ढ़ेर सी रंग बिरंगी चिड़ियाँ पाल रखीं हैं, ये शौक उसे बचपन से था, जब भी उसे माँ बाबू जी की याद आती तो वो इन चिड़ियों के पास अपना मन बहलाने चली आती।
बगीचें की मालन रधिया ही उस बगीचे की और चिड़ियों की देखभाल करती हैं, बगीचे में ही उसका सर्वेन्ट रूम है, विधवा है बेचारी, शादी के तुरन्त बाद विधवा हो गई थी, बच्चे भी नहीं थे, ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, इकलौते भाई भावज भी रखने को तैयार ना थे, तो क्या करती बेचारी गाँव से भागकर शहर आ गई, तब देवनन्दिनी और राजहंसिनी बहुत छोटी थीं, सेठ जी ने काम पर रख लिया, एक ही काम आता था, वो था खेती किसानी का तो उसने बगीचें का काम सम्भाल लिया।
वैसे तो उसके लिए रामू ही खाना पकाता है लेकिन जब रधिया का मन लिट्टी चोखा खाने या गाँव का कुछ ख़ास ब्यंजन खाने का होता है तो वो बगीचें में कभी कभी चूल्हा जलाकर बनाती है और ये ज्यादातर तब होता है जब राज हाँस्टल से आती है, राज खाने की बहुत शौकीन है, उसके लिए बस दो ही चीजें जरूरी हैं एक उसकी दीदी देवनन्दिनी और बढ़िया खाना, बाकी़ ना उसे सँजने का शौक है और ना सँवरने का, वैसे उसे सँजने सँवरने की जरुरत ही नहीं पड़ती, उसे भगवान ने पहले से ही इतना सुन्दर रूप दे रखा है, सुन्दर तो नन्दिनी भी कम नहीं हैं, इसलिए तो सेठ जी ने चुनकर अपनी बेटियों के नाम राजकुमारियों जैसे रखे थें।
रधिया ने बगीचें में राज को देखा तो उसके पास आकर बोली___
देखों तो छोटी बिटिया कितने अच्छे अमरूद आएं हैं, इस नए पेड़ में , जरा चख कर तो देखों कितना स्वाद है, एकदम लाल हैं भीतर से,
लाओं तो काकी! जरा चखूँ तो, राज बोली।
कैसा लगा?मीठा है ना!रधिया ने पूछा।
हाँ काकी! बहुत ही मजेदार है, राज बोली।
इ लो और रख लो, रधिया बोली।
बस, काकी! पहले ये बताओ कि बैंगन और टमाटर के पेंड़ में फल लगें हैं कि नहीं, क्योंकि मेरा तो लिट्टी चोखा खाने का मन है, तुम बनाओगी ना मेरे लिए, राज ने पूछा।
हाँ, बिटिया! काहें नहीं बनाएंगे, बैंगन और टमाटर तो लसे पड़े हैं, अभी दो चार दिन पहले रामू तोड़कर ले गया था, अभी तो और भी हैं, रधिया बोली।
तो फिर शाम को बनाओ लिट्टी चोखा और लहसुन वाली तीखी चटनी, बस मज़ा ही आ जाएं, राज बोली।
तो फिर शाम को तैयार रहना, हम सारी तैयारी करके रखेँगें और भीतर सबसे कहना कि आज शाम को रसोई ना बनाई जाएँ, लिट्टी चोखे की दावत है, रधिया बोली।
बहुत बढ़िया काकी!मैं तो आज जी भर कर खाऊँगी, राजहंसिनी बोली।
तभी रामू बगीचें में आकर बोला___
छोटी दीदी! किशोर बाबू आएं हैं और आपको पूछ रहे हैं।
ठीक है उन्हें यही भेज दो, राज बोली।
ठीक है छोटी दीदी! रामू इतना कहकर चला गया, किशोर बगीचें में पहुँचा और राज से बोला___
देवी जी! अभी तक आप तैयार नहीं हुईं, आपने कल कुछ वादा किया था,
ना किशोर बाबू! मैने नहीं , दीदी ने कहा था, राज बोली।
तो आप मेरे साथ शाँपिग पर ना चलेंगीं, किशोर ने पूछा।
चलूँगी, लेकिन आराम से, राज बोली।
ठीक है तो आप तैयार हो जाइएं, तब तक मैं बगीचें की सैर कर लेता हूँ, किशोर बोला।
हाँ...हाँ...जुरूर, बहुत से फल हैं इनका मजा लीजिए और देखिए उस तरफ बड़े से पिंजरे में मेरी ढ़ेर सी रंग बिरंगी चिड़ियाँ हैं, आप उन्हें भी दाना चुगा सकते हैं, राज बोली।
जी, बहुत बढ़िया, किशोर बोला।
ठीक है तो मैं तैयार होकर अभी आई, राज बोली।
और कुछ देर में राज और किशोर मोटर में बैठ कर चले शाँपिग करने तभी राज बोली___
किशोर बाबू! मोटर जरा मिल तक ले चलिए,
लेकिन मिल की ओर क्यों? किशोर ने पूछा।
अरे वाह...आप शाँपिग करेगें और मैं चुपचाप खड़ी रहूँगी, मेरा मन भी कुछ खरीदने को कर गया तो, इसलिए मिल चलिए दीदी से पैसे लेकर आऊँगी, राज बोली।
तो आप मुझसे ले लीजिए पैसे, किशोर बोला।
जी नहीं, मुझे किसी की खैरात नहीं चाहिए, राजहंसिनी बोली।
ये कैसीं बातें करती हैं आप, किशोर बोला।
मैं ऐसी ही बातें करती हूँ, आपको ले चलना है तो ले चलिए, नहीं तो यही उतार दीजिए मुझे, राज बोली।
ठीक है तो चलिए मिल तक चलते हैं, किशोर बोला।
दोनों मिल पहुँचे, राज भीतर गई और नन्दिनी के केबिन में पहुँची तो वो वहाँ नहीं थीं, प्यून से पूछने पर बताया कि वो थोड़ा कर्मचारियों से बात करने गई हैं, राज भी वहाँ पहुँची, उसने देखा कि नन्दिनी किसी मसले पर कर्मचारियों से बात कर रही हैं, नन्दिनी के पास जाकर उसने कहा कि कुछ काम है।
ठीक है तुम मेरे केबिन में बैठो, मैं आती हूँ, नन्दिनी बोली।
तभी राज की नज़र श्रीधर पर बड़ी और वो उसे देखकर खुश होकर बोली___
अरे, शाहज़ादे! आप यहाँ, मिल गई आपको नौकरी।
जी, शाहजाद़ी साहिबा! आपकी मेहरबानी से नौकरी मिल गई, श्रीधर बोला।
दोनों की बातें सुनकर नन्दिनी ने हैरान होकर पूछा___
क्या आप दोनों एक दूसरे से पहले से परिचित है ?
क्रमशः___

