Saroj Verma

Romance

4.3  

Saroj Verma

Romance

अर्पण--भाग(३)

अर्पण--भाग(३)

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श्रीधर और देवनन्दिनी मिल के भीतर पहुँचे,मिल में काम जारी था,सभी कर्मचारी अपने अपने काम पर लगे हुए थे,देवनन्दिनी ने सभी कर्मचारियों से श्रीधर का परिचय करवाते हुए कहा कि___

"आज से ये भी आप सभी के साथ काम करेंगें,ये कपड़ो और साड़ियों पर चित्रकारी करेंगें और अब मैं कैशियर के पद से मुक्त होना चाहती हूँ इसलिए ये जिम्मेदारी भी मैं इन्हें सौंपना चाहती हूँ।"

सभी कर्मचारी बहुत खुश हुए श्रीधर से मिलकर और दिल से श्रीधर का स्वागत किया,श्रीधर को काम समझाकर देवन्दिनी अपने आँफिस में चली गई,श्रीधर भी अपना काम समझने में लग गया।काम करते करते दोपहर हो गई,लंच की घंटी बजी,सभी कर्मचारी अपना अपना खाने का डिब्बा उठाकर खाना खाने मिल से बाहर निकलने लगें,सबने श्रीधर से भी चलने को कहा लेकिन श्रीधर ने मना किया क्योंकि श्रीधर के पास ना तो खाना था और ना ही कुछ खरीदने के लिए पैसे थे,वो वहीं अपनी सीट पर बैठकर काम करता रहा।तभी देवनन्दिनी,श्रीधर के पास आकर बोली___

"आप लंच करने नहीं गए।"

"जी! मुझे भूख नहीं",श्रीधर बोला।

"जी,अब तो दोपहर होने को आई,वैसे भी आप घर से नाश्ता खा के चले होगें,अब तक तो भूख लग आई होगी",देवनन्दिनी बोली।

"जी,देवी जी! आप बिलकुल सही कह रहीं हैं लेकिन हम गरीबों को आदत होती है,दिन में एक बार भी रोटी नस़ीब हो जाती है तो हमारे लिए वही बहुत बड़ी बात है",श्रीधर बोला।

"जी,मैं कुछ समझी नहीं,आप क्या कहना चाह रहे हैं",देवन्दिनी बोली।

"जी! कुछ नहीं,माँफ़ कीजिए,बस ऐसे ही मुँह से निकल गया",श्रीधर बोला।

"लगता है,पैसें की बहुत तंगी है,आपके घर में,कोई बात नहीं,आप आज ही एडवांस में अपनी तनख्वाह ले लीजिए,मैं चाचा जी से आज ही इस मसले पर बात करके आपको आज ही तनख्वाह देने के लिए कहती हूँ",देवनन्दिनी बोली।

"जी,बहुत बहुत मेहरबानी",श्रीधर बोला।

"मेहरबानी किस बात की,ये तो आपका मेहनताना होगा",देवनन्दिनी बोली।

"जी! वो तो सही है,लेकिन मेरा काम देखें बिना ही मेहताना लेना",मुझे जरा ठीक नहीं लगता,श्रीधर बोला।

"जी,मेरा तो ये मानना है कि जब इन्सान दुनिया भर की चिन्ताओं से मुक्त होगा,तभी तो काम पर ध्यान दे पाएगा और जब काम पर ध्यान दे पाएगा तभी तो हमारी मिल की तरक्की हो पाएगी,इसलिए आज से आप घर की,गृहस्थी की और परिवार के सदस्यों की चिन्ता छोड़कर केवल अपने काम पर ध्यान दीजिए,ये सब चिन्ताएं आप मुझ पर छोड़ दीजिए",देवनन्दिनी बोली।

"जी,बहुत अच्छा! बहुत बहुत शुक्रिया",श्रीधर बोला।

"तो फिर चलिए,मेरे केबिन में चलकर आज का लन्च आप मेरे संग कीजिए,मुझे बहुत खुशी होगी",देवनन्दिनी बोली।

"जी! इतना मान देने के लिए बहुत धन्यवाद"श्रीधर बोला।

"ये बार बार धन्यवाद और शुक्रिया कहकर ,आप तो घड़ी घड़ी मुझे शर्मिन्दा करते हैं,मिस्टर श्रीधर"!देवन्दिनी बोली।

"अच्छा,ठीक है!अब से ना कहूँगा",श्रीधर बोला।

"चलिए,आइए! लंच करते हैं",देवनन्दिनी बोली।

और दोनों लंच के लिए देवनन्दिनी के केबिन पहुँचे,देवनन्दिनी का लंच का डब्बा घर से आ चुका था,देवनन्दिनी ने वाँशबेसिन में हाथ धुले और श्रीधर से भी हाथ धुलने को कहा,देवनन्दिनी ने दो प्लेट निकाली ,डिब्बा खोला और खाना परोसते हुए श्रीधर से बोली___

"मैं बहुत ही सादा खाना खाती हूँ,शायद आपको पसंद ना आए,ये रही मूँग की दाल,आलू मैंथी की तरकारी,टमाटर का सलाद,दही और रोटी",इतना कहते ही देवन्दिनी ने श्रीधर की ओर परोसी हुई प्लेट बढ़ा दी।

"जी! मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि कोई इतने सम्मान के साथ मुझे खाना परोस कर दे रहा है",श्रीधर बोला।

"अच्छा,मिस्टर श्रीधर! आप इतनी सज्जनता के साथ केवल मुझसे ही पेश आ रहे हैं कि सबके साथ ऐसे ही पेश आते हैं,कहीं इसलिए तो नहीं कि मैं आपकी मालकिन हूँ",देवनन्दिनी बोली।

"ये सुनकर श्रीधर हँसते हुए बोला___

"वैसे मैं सबसे ही ठीक से बात करता हूँ लेकिन आपसे और भी सलीके से बात कर रहा हूँ क्योंकि आप मेरी मालकिन हैं और ये बात वाकई सच है",श्रीधर बोला।

"जी! आपकी बेबाक़ी मुझे पसंद आई',देवनन्दिनी बोली।

दोनों खाना खा ही रहे थे कि तभी टेलीफोन की घण्टी बजी और देवनन्दिनी ने टेलीफोन उठाया,फोन उठाते ही देवनन्दिनी ने किसी को डाँटना शुरू कर दिया,शायद देवनन्दिनी की छोटी बहन राजहंसिनी का फोन था.......

"हैलो...राज! तू! कहाँ हैं? इस समय तू"!देवनन्दिनी ने पूछा।

"मैं बुआ के घर पर हूँ दीदी"! राजहंसिनी बोली।

"अच्छा! बुआ जी के घर पर,तू वहाँ कैसे पहुँची"?देवशन्दिनी ने पूछा।

"दीदी! मैं हाँस्टल से भाग आई",राजहंसिनी बोली।

"क्या कहा? तू हाँस्टल से भाग गई",देवनन्दिनी बोली।

"हाँ,दीदी! और क्या करती?भला!"राजहंसिनी बोली।

"कल ही तेरी प्रिन्सिपल का टेलीफोन आया था,उन्होंने कहा कि तूने वार्डन से बहुत बतमीजी से बात की,उनसे पूछे बिना खिड़की से कूदकर बाहर चाट गोलगप्पे खाने चली गई,देवन्दिनी बोली।

"दीदी! मैस का खाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं है",राज बोली।

"मुझे कुछ नहीं सुनना,तू पहले मेरी बात सुन",देवनन्दिनी बोली।

"दीदी! मेरा पढ़ाई लिखाई में जी नहीं लगता,मैं पढ़ाई छोड़ना चाहती हूँ,मुझे हाँस्टल में नहीं रहना"राजहंसिनी बोली।

"क्या कहा? तू पढ़ाई छोड़ देगी,फिर कभी हाँस्टल ना जाएगी",देवन्दिनी बोली।

"राज! तुझे हाँस्टल जाना होगा,मैं अभी थोड़ी देर में बुआ के घर आती हूँ,तुझे लेने" और इतना कहकर देवनन्दिनी ने टेलीफोन रख दिया।

"जी! क्या हुआ? आप इती परेशान क्यों हो गई देवी जी"! श्रीधर ने पूछा।

"जी! कुछ नहीं, मेरी छोटी बहन का टेलीफोन था,नाक में दम कर रखा है,कुछ समझती ही नहीं,आए दिन कोई ना कोई परेशानी खड़ी करती रहती है,मैं अभी खाना खाकर निकलूँगी,उसे बुआ के घर से लाना होगा,हाँस्टल से भागकर बुआ जी के घर जा बैठी है,मैं आपकी तनख्वाह के लिए भी कहती जाती हूँ,हो सकता है कि मुझे देर हो जाएंं और मैं वापस मिल ना आ पाऊँ",देवनन्दिनी बोली।

"तो क्या आपकी छोटी बहन हाँस्टल में रहतीं हैं?"श्रीधर ने पूछा।

"जी! लेकिन वो पढ़ना ही नहीं चाहती आए दिन हाँस्टल से भाग जाती है",देवनन्दिनी बोली।

"आपने कभी उनकी परेशानी पूछने की जरूरत नहीं समझी,हो सकता है वहाँ उन्हें कोई परेशानी हो",श्रीधर बोला।

"जी! सब उसके नाटक हैं,ना पढ़ने के,इसलिए रोज़ ना रोज़ कोई मुसीबत खड़ी करती रहती है",देवनन्दिनी बोली।

"जी,तो फिर आपको तो जल्दी जाना चाहिए",श्रीधर बोला।

"जी,बस निकलती हूँ,मेरा लंच तो हो गया,आप कुछ और लेगें",देवनन्दिनी ने श्रीधर से पूछा।

"जी,नहीं! मैं कुछ और नहीं लूँगा,मेरा लंच भी हो गया"श्रीधर बोला।

और देवनन्दिनी ने घर से खाना लेकर आए बाहर बैठे,नौकर को आवाज दी___

"रामू...रामू... ये खाने का डब्बा उठा लो और ये प्लेट्स भी साफ करके रख दो।"

"जी! दीदी! अभी सब साफ करता हूँ,रामू बोला।

देवनन्दिनी बोली___

ठीक है तो मिस्टर श्रीधर! मैं निकलती हूँ,आपकी तनख्वाह आप को घर जाते वक्त मिल जाएगी।

जी,बहुत अच्छा और इतना कहकर श्रीधर भी अपना काम करने चला गया।

शाम को छुट्टी हुई और मुंशी जी श्रीधर की तनख्वाह उसके हाथ पर रखते हुए बोले___

"लीजिए,श्रीधर बाबू! आपकी एडवांस तनख्वाह,देवनन्दिनी बिटिया मुझसे कहकर गई थी,इसलिए मैं देने चला आया।"

"जी,बहुत बहुत शुक्रिया,मुंशी जी! आप नहीं समझ सकते कि आज मेरे लिए कितनी बड़ी खुशी का दिन है,नमस्ते!,जी अब चलता हूँ",श्रीधर बोला।

और इतना कहकर श्रीधर खुशी खुशी मिल से बाहर आया और उसने बाज़ार के रास्ते का रूख़ किया,उसने बाज़ार से सबसे पहले बबलू के लिए चाबी वाला खिलौना खरीदा,सुलक्षणा के साड़ी,बबलू के लिए कपड़े भी खरीदें,फिर कुछ मिठाइयाँ ,समोसें,कचौरियाँ खरीदकर ,रसोई के लिए कुछ राशन और सब्जियाँ खरीद कर वो घर पहुँचा,दरवाजे पर दस्तक दी,दरवाजा खुलते ही श्रीधर के हाथ में इतना सामान देखकर.....सुलक्षणा खुशी के मारे फूली ना समाई....

"नौकरी मिल गई तुझे."....सुलक्षणा ने खुशी से पूछा।

"हाँ,जीजी! नौकरी मिल गई,देखों मैं आज क्या क्या लेकर आया हूँ",श्रीधर बोला।

"चल पहले भगवान को भोग लगा दे इस मिठाई का और हाथ जोड़ ले,फिर सब सामान दिखाना",सुलक्षणा बोली।

"ठीक है जीजी! बबलू कहाँ है?"उसे भी बुला लो,श्रीधर बोला।

सबने भगवान के सामने हाथ जोड़कर सारा सामान खोला,सामान देखकर सुलक्षणा ने श्रीधर से कहा___

"क्यों रे! सब हम लोगों के लिए ही लाया है,अपने लिए भी कुछ ले आता।"

"ले लूँगा जीजी! अपने लिए भी ले लूँगा,अब तो नौकरी मिल गई है ना!" श्रीधर बोला।

और उस रात सुलक्षणा ने सबकी पसंद का खाना बनाया और सबने जीभर के खाया।इधर देवनन्दिनी बुआ के घर से राजहन्सिनी को ले आई और उससे बिल्कुल भी बात नहीं की,देवनन्दिनी मोटर चला रही थी और राजहंसिनी उसके बगल में बैठी,देवनन्दिनी का गुस्सा ठंडा होने का इंतजार कर रही थी।

क्रमशः....


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