अर्पण--भाग (२)
अर्पण--भाग (२)
दूसरे दिन___
श्रीधर ने सुबह सुबह तैयार होकर सुलक्षणा को आवाज़ दी___" जीजी..! तो मैं चलता हूँ!!"
" कहाँ जा रहा है रे! सुबह सुबह,चल पहले कुछ खा ले,फिर चले जइओ",सुलक्षणा बोली।।
"जीजी! कल किसी ने एक पता देते हुए कहा था कि यहाँ चले जाना,नौकरी मिल जाएंगी,सो वहीं जा रहा था",श्रीधर बोला।।
"अच्छा,ठीक है! ये ले पोहे बनाएं हैं,थोड़ा खा ले,मुझे मालूम है तू दिनभर ऐसे ही बिना कुछ खाएं रह जाएगा और यहाँ मेरा जी जलता रहेगा",सुलक्षणा बोली।।
"क्यों? मेरी इतनी चिन्ता करती हो,दीदी! सिलाई करके तुम्हें दो चार रूपए मिलते हैं,वो भी तुम इस घर और इस निठल्ले भाई पर खर्च कर देती हो"श्रीधर बोला।।
"तू! ये कैसीं बातें कर रहा है रे!तेरे जीजाजी के जाने के बाद एक तेरा ही तो सहारा था,तूने मुझे इस घर में आसरा देकर बहुत बड़ा एहसान किया है,नहीं तो जेठ और जेठानी ने तो घर से निकाल दिया था,तू ना होता तो नन्हें से बच्चे को लेकर कहाँ जाती?" ये कहते कहते सुलक्षणा की आँखें भर आईं।।
"कैसीं बातें करती हो ?जीजी ! जितना ये घर मेरा है उतना तुम्हारा भी है,क्या हुआ जो हमारे माँ बाप जिन्दा नहीं हैं? हम भाई बहन हमेशा सुख दुख में एक दूसरे का साथ निभाएंगे",श्रीधर बोला।।
"मेरा राजा भइया!अच्छा चल नाश्ता कर लें",सुलक्षणा बोली।।
"माँ! मुझे भी राजा बेटा कहकर पुकारो",बबलू मासूमियत से बोला।।और बबलू की बात सुनकर सब हँस पड़े,श्रीधर ने नाश्ता किया और नौकरी ढूंढने निकल गया।।
वो एक कपड़े की मिल का पता था,जहाँ श्रीधर नौकरी ढूंढ़ने गया था, वहाँ की मालकिन देवनन्दिनी अग्रवाल थी,सभी उससे बहुत डरते थें,वो कर्मचारियों को जरा सी गलती पर घंटों भाषण दे देती थी,ऊपर से औरत जात तो कोई बहस भी ना करता था,ईमानदार और मेहनती कर्मचारियों का वो ख़ास ख्याल रखती थी लेकिन बेईमान और आलसी कर्मचारियों से उसे कुछ ज्यादा ही चिढ़ रहती थी।।
उनके पिता जी सेठ हरिश्चन्द्र अग्रवाल शहर के रईसों में से गिने जाते थे,पत्नी का देहान्त छोटी बेटी के जन्म के वक्त हो गया था,तैसे तैसे दोनों बेटियों को आया के सहारे पालपोस कर बड़ा किया,बड़ी बेटी ने काँलेज की पढ़ाई पूरी ही की थी कि अग्रवाल साहब को दिल का दौरा पड़ा और वो इस दुनिया को अलविदा कह गए,अब उनके कोई बेटा तो था नहीं इसलिए उनके वर्षों पुराने मुंशी जी ने देवनन्दिनी को सलाह दी कि अब से सारा कारोबार वो ही सम्भाल लें और अगर कोई परेशानी आती है तो वो तो हैं ही उन्हें बताने के लिए,क्योंकि इस काम के लिए किसी रिश्तेदार पर भरोसा नहीं किया जा सकता,क्या पता? धोखे से सब कुछ अपने नाम कर लें।।
देवनन्दिनी ,मुंशी जी की बात टाल ना सकी और अपने कंधों पर उसने सारे कारोबार की जिम्मेदारी ले ली,लेकिन कारोबार और अपनी छोटी बहन राजहंसिनी को सम्भालते सम्भालते वो अपनी खुशियाँ भूल बैठी,जिस उम्र में लोंग शादी करके अपने बच्चे सम्भालते हैं वो इस उम्र में मिल और व्यापार सम्भाल रही है,कभी कभी उसको भी ये अकेलापन खलने लगता है लेकिन क्या करें ? हालातों के सामने मजबूर है।।
उसके एक डाक्टर मित्र कमलकान्त उसे पसंद करते हैं,उसे ना जाने कब से अपनी मन की बात बताने की कोशिश करते आए हैं लेकिन देवनन्दिनी के सख्त स्वभाव के आगे उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है और उनकी सब आशिकी धरी की धरी रह जाती हैं,डाक्टर कमलकान्त भी हीरों के व्यापारी सेठ दौलतराम के बेटे हैं,विलायत जाकर उन्होंने डाक्टरी की डिग्री हासिल की है, मरीज को देखते ही मर्ज पकड़ लेते हैं,बहुत ही उम्दा डाक्टर हैं लेकिन देवनन्दिनी को कभी भी उनकी ये खूबियाँ नहीं देख पाती,सब नजरअंदाज कर देती है,
वहीं कमलकान्त के छोटे भाई कमलकिशोर हैं जो कि विलायत में अभी भी पढ़ रहे हैं, राजहंसिनी पर लट्टू रहते हैं और राजहंसिनी भी उन्हें लट्टू की तरह नचाती रहती है लेकिन कमलकिशोर इतना ढ़ींट है कि राजहंसिनी की सौ सौ गालियाँ खाकर भी उसके पीछे पीछे ही लगा रहता है।।
श्रीधर कपड़े की मिल पहुँचा ही था कि दरबान ने उसे गेट पर रोकते हुए कहा____"कहाँ घुसे जाते हो भाई?"
"भाई! नौकरी के लिए आया हूँ",श्रीधर बोला।।
"कोई सिफारिश है या ऐसे ही मुँह उठाएं चले जाते हो",दरबान बोला।।
"सिफ़ारिश तो नहीं है लेकिन किसी ने यहाँ का पता दिया था और कहा था कि यहाँ जाते ही तुम्हें नौकरी मिल जाएगी",श्रीधर बोला।।
"किसने दिया था पता?" दरबान ने पूछा।
" शाह़जादी ने",श्रीधर बोली।।
" हा....हा...हा...हा....शाह़जादी! कहाँ मिली तुम्हें ये शाह़जादी?"दरबान ने पूछा।।
"जी आसमान से टपकी थी",श्रीधर बोला।।
"हा....हा....आसमान से टपकी थी",दरबान ने हँसते हुए कहा।।
" हाँ..भाई! आसमान से टपकी थी,कसम से!"श्रीधर बोला।।
"भाई! दिन में भी पी रखी हैं क्या? जो ऐसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो",दरबान ने पूछा।।
"ना भाई! यहाँ रोटी तो खाने को नहीं मिलती,पीने के लिए पैसे कहाँ से आएंगे",श्रीधर बोला।।
"किसी की सिफ़ारिश लाओं,तभी भीतर घुसने दूँगा",दरबान बोला।।
श्रीधर,दरबान के संग बहस कर ही रहा था कि एक बड़ी सी इम्पाला मिल के सामने आ खड़ी हुई ....
उसमें से एक औरत उतरी ,जिसने महँगी सिल्क की साड़ी पहनी थी,किनारें से माँग काढ़कर बालों का बड़ा जूड़ा बनाया था,आँखों पर काला धूप का चश्मा पहना था और हाथों में महँगा पर्स थाम रखा था।।उसे देखते ही दरबान ने झुककर नमस्ते की___"नमस्ते! मेमसाब!"
तभी श्रीधर को देखते ही उस औरत ने दरबान से पूछा___"तुम्हारा रिश्तेदार है।।"
" ना! मेमसाब! नौकरी माँगने आया है",दरबान ने जवाब दिया।।
"अच्छा! तो पढ़े लिखे हो",औरत ने श्रीधर से पूछा।।
श्रीधर उस औरत का मुँह ताकते ही रह गया कि ये क्यों मुझसे सवाल पूछ रही है? तभी दरबान बोला____
"जवाब काहें नहीं देते बाबूसाहब! इ ही तो मिल की मालकिन हैं।।"
" माफ़ कीजिए,मुझे पता नहीं था",श्रीधर बोला।।
"जी,मैने पूछा पढ़े लिखें हैं",मालकिन ने श्रीधर से फिर पूछा।।
"जी हाँ! साथ में पेंटिंग भी बहुत अच्छी करता हूँ,ये रही डिग्रियाँ और मेरी कला के नमूने",श्रीधर बोला।।
"अच्छा! ठीक है,मेरे आँफिस में आकर मिलो" और इतना कहकर मालकिन भीतर चली गई।।
उसके जाने के बाद दरबान ,श्रीधर से बोला___"अब खड़े का हो जाओ भीतर ,ये ही तो मालकिन थी,इनका नाम देवनन्दिनी है,तुमसे ना जाने कैसे ऐसे बात कर ली,नहीं तो सीधे मुँह किसी से बात नहीं करतीं।।"
"अच्छा! बहुत सख्त स्वभाव की हैं क्या?' श्रीधर ने दरबान से पूछा।।
"सखत नाहीं भइया! रूखा...कहो ..रूखा...,बहुतई खड़ूस हैं',दरबान बोला।।
"अच्छा! इन्हीं की नौकरी करते हो और इन्हीं की बुराई करते हो,शिकायत करूँ क्या?भीतर जाकर",श्रीधर बोला।।
"ना! भइया! रोजी रोटी का सवाल है,छोटे छोटे बच्चा हैं,भूखन मर जइहैं",दरबान बोला।।
" अच्छा!ठीक है,चिन्ता ना करो,मै कुछ नहीं कहूँगा",श्रीधर बोला।।
"भगवान तुम्हारा भला करें,अब तुम जल्दी से भीतर जाओ,देर नाहीं करो",दरबान बोला।।
"ठीक है भाई",श्रीधर बोला।।
और कुछ ही देर में श्रीधर आँफिस पहुँचा,उसने आँफिस के दरवाज़े पर धीरे से दस्तक दी,भीतर से आवाज़ आई___भीतर आ जाइएं।।
श्रीधर ने भीतर जाकर मालकिन से शिष्टतापूर्वक नमस्ते की,मालकिन कुर्सी की ओर इशारा करते हुए बोली___"बैठिए...."
"जी,धन्यवाद!",श्रीधर बोला।।
"लाइए!जरा अपनी डिग्रियाँ और चित्रकारी के नमूने दिखाइए",मालकिन बोली।।
"जी!ये लीजिए",श्रीधर बोला।।
मिल की मालकिन ने सभी डिग्रियाँ और नमूने देखते हुए कहा____
प्रथम श्रेणी में सभी डिग्रियांँ हैं,काफ़ी होशियार लगते हैं आप! और चित्रकारी भी बड़ी उम्दा है,मुझे पसंद आई लेकिन आपको नौकरी में रखने से पहले मुझे एक बार मुंशी जी से सलाह लेनी होगी,मैं उन्हें यही बुलाए लेती हूँ,वो ये डिग्रियाँ और नमूने देखकर तसल्ली कर ले,फिर मुझे कोई परेशानी होगी,मालकिन बोली।।
"जी! मुझे कोई एत़राज़ नहीं है",श्रीधर बोला।।
"ठीक है,तो मैं अभी उनके केबिन में टेलीफोन करके उन्हें बुला लेती हूँ",मालकिन ने इतना कहकर टेलीफोन उठाया और बोली___
"चाचा जी! जरा आप मेरे आँफिस में आने का कष्ट करेंगें,आप से कुछ राय लेनी हैं।।"
"हाँ,अभी आता हूँ नन्दिनी बिटिया!" टेलीफोन के उस तरफ से मुंशी जी बोले।।
"बहुत धन्यवाद चाचा जी !तो आप आइए,मैं आपका इन्तज़ार करती हूँ" और इतना कहकर मालकिन ने टेलीफोन रख दिया।।
कुछ ही देर में मुंशी जी मालकिन के कमरें में आए और आकर पूछा__क्या बात है? देवनन्दिनी बिटिया!
"चाचा जी! ये श्रीधर हैं,इन्हें नौकरी की जुरूरत है,मैने तो इनकी डिग्रियाँ और चित्रकारी के नमूने देख लिए हैं,जरा आप भी देख लेते तो मुझे तसल्ली हो जाती और इन्हें नौकरी मिल जाती",मालकिन बोली।।
"लाओ बिटिया! जरा मैं भी देखूँ",मुंशी जी बोले।।
"ये लीजिए",देवनन्दिनी बोली।।
और मुंशी जी ने डिग्रियाँ और नमूने हाथ में लिए और देखने लगे,कुछ देर देखने के बाद बोले___
"'बिटिया! बहुत ही उम्दा है,इन साहब को नौकरी पर रख लिया जाए।।"
"बहुत अच्छा ,चाचा जी!" देवनन्दिनी बोली।।
"तो मैं चलता हूँ "और मुंशी जी इतना कहकर चले गए।।
"तो फिर आप कल से आ जाइए",देवनन्दिनी ने श्रीधर से कहा।।
"जी,दिनभर घर में भी क्या करूँगा? मैं तो सोचता हूँ कि आज और अभी से काम पर लग जाऊँ",श्रीधर बोला।।
"त़ो चलिए मैं आपको आपका काम समझा देती हूँ",देवनन्दिनी बोली।।
"जी बहुत अच्छा,तो चलिए",श्रीधर बोला।। और दोनों देवनन्दिनी के आँफिस से निकल पड़े....
क्रमशः......