अपने हिस्से का सुख

अपने हिस्से का सुख

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  विवाह समारोह में सम्मिलित होने के लिये वनिता ने अलमारी खोलकर ज्वैलरी बाक्स निकाला ही था कि उसके साथ ही एक साड़ी निकलकर नीचे गिर गई । उस साड़ी को उसने झुककर उठाया...। उस साड़ी को देखकर न चाहते हुए भी वह वर्षो पूर्व चली गई....


  ‘ मौसी, आपको हल्का आसमानी रंग पसंद है ना, अतः आपके लिये मैंने यह साड़ी पसंद की है । कैसी लगी आपको ? मेरे विवाह में आपको यही साड़ी पहननी होगी ।’ कविता की सुरीली आवाज उसके कानों में गूँज उठी थी ।


  ‘ बहुत अच्छी, जैसी तुम हो वैसी ही तुम्हारी पसंद की हुई साड़ी है।’ कविता की पसंद की बनारसी सिल्क की साड़ी को हाथ में लेकर प्यार से उसे निहारते हुए वनिता ने कहा था ।


  बहुत प्यारी बच्ची है कविता....बचपन में जब दीदी मायके आती तो वह हमारे हाथों में खिलौना बनी चहकती फिरती । मुझ में और श्याम में यही प्रतियोगिता चलती कि कविता किसको ज्यादा पसंद करती है....? दोनों तरह-तरह से उसे लुभाने का प्रयत्न करते....। मजा तो तब आता जब एक दूसरे को चि़ढ़ाने के लिये उससे पूछते, ‘अच्छा बताओ,मौसी तुम्हें ज्यादा प्यार करती है या मामा को ?’


  तब वह अपनी गोल-गोल आँख नचाकर मासूमियत से कहती,‘ दोनों....।’ 


तब न चाहकर भी हम दोनों मुस्करा पड़ते । सच एक मासूम बच्चा भी जानता है, कि कभी किसी की बुराई नहीं करनी चाहिए लेकिन हम बड़े अपनी चाहत....महत्वाकांक्षा या यूँ कहिए अपनी आत्मश्लाघा की शांति हेतु चापलूसी करने, यहाँ तक कि आवश्यकता पड़ने पर झूठ बोलने से भी नहीं कतराते ।


ज्यों-ज्यों कविता बड़ी होती गई, उसका रूप निखरता गया । वह रूप और बुद्धि का मिला जुला संगम थी । चाहे कालेज में आयोजित वादविवाद प्रतियोगिता हो या नाट्य प्रतियोगिता, वह अव्वल ही रहती। संगीत के सुरो पर तो उसका अधिकार देखकर उसके संगीत टीचर भी दंग रह जाते थे ।


वह कोई ऊँची उड़ान भर पाती उससे पूर्व ही उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके पैरों में बेड़ियां डाल दी गई....। विवाह धूमधाम से हुआ....। उसका पति विपिन अच्छे खाते पीते परिवार का था । सुख-सुविधा के सारे साधन मौजूद थे....किन्तु फिर भी कविता की जिंदगी एक कविता बनकर ही रह गई.....।


वस्तुतः विपिन उससे विवाह ही नहीं करना चाहता था क्योंकि वह किसी अन्य लड़की से प्यार करता था....अतः उसने कविता से प्रथम रात्रि में ही कह दिया था कि उसने विवाह अपने लिये नहीं,अपने माता-पिता की ख़ुशी के लिये किया है अतः उसके शरीर पर भले ही उसका हक हो लेकिन मन पर नहीं....। देर सबेर होने पर व्यर्थ पूछताछ न करना और न ही कभी रोकना टोकना ...।


विपिन के माता-पिता को उसके द्वारा पसंद की गई लड़की विधर्मी होने के कारण नापसंद थी । माता-पिता का तो वह विरोध नहीं कर पाया लेकिन निरपराध होते हुए भी सजा कविता को भोगनी पड़ रही थी । वह अक्सर शराब के नशे में आधी रात को आता तथा सुबह होते ही चला जाता । कभी दिल करता तो उसी नशे की हालत में अपनी शारीरिक भूख शांत करने का प्रयास करता । उत्तर और प्रतिउत्तर का तो प्रश्न ही नहीं उठता था ।


धीरे-धीरे कविता कोे समझ में आने लगा था कि क्यों उसके तथाकथित सास-ससुर ने उसके जैसे मध्यमवर्ग के घर की कन्या को अपने बिगड़ैल पुत्र के लिये चुना था । उन्हें लगा था कि मध्यमवर्गीय खानदान की लड़की आकर उनके लड़के के सब एबों को ढक लेगी और चु चपड़ भी नहीं करेगी और हो सकता है वक्त के साथ सब कुछ सामान्य हो जाए ।


उनका सोचना ठीक ही निकला क्योंकि जब उसने अपने माता-पिता से इस बात का जिक्र किया तो वह बोले,‘ धीरज धर बेटा, एक बच्चा गोद में आते ही सब ठीक हो जायेगा... यह क्यों नहीं सोचती बेटा कि भाग्य से ही ऐसा घर मिलता है ।'


वास्तव में उनकी आँखों में उसकी ससुराल के धन -दौलत की पट्टी चढ़ी थी जिसके कारण लड़के के अवगुण तथा उसकी व्यथा उनके लिये कोई मायने नहीं रखती थी ।उन्हें तो इस बात की ही प्रसन्नता थी कि उच्च घराने में उसके विवाह के कारण उसकी छोटी बहन और भाई का विवाह अच्छे घरों में हो जायेगा ।


वह दिन भी आ गया जब कविता के अंक में घर के चिराग ने दस्तक दी ।कविता के सास-ससुर को मुँहमाँगी मुराद मिल गई....। उसे नवांकुर के आने का न दुख था और न ही प्रसन्नता....वह तो कर्तव्य ही निभा रही थी । एक ऐसा कर्तव्य जिसमें न भावनाएं थी और न ही प्यार और इसी कर्तव्य की कड़ी की वह अंश था....। हाँ इतना अवश्य था कि उसकी वजह से उसके स्त्रीत्व और मातृत्व को मान्यता मिली थी । इस मातृत्व के अहसास ने उसके पत्नीत्व के अपमान के दुख को कुछ कम अवश्य कर दिया था । उसका विशेष ख्याल रख जाने लगा था ।


सातवां महीना चल रहा था, कविता के पेट में कभी-कभी दर्द हो जाया करता था । इन दिनों अक्सर ऐसा होता है ,कह कर डाक्टर ने उसे संतुष्ट कर दिया था तथा थोड़ा घूमने की सलाह दी थी । एक दिन उसे महसूस हुआ कि पेट के अंदर हलचल बंद हो गई है । उसने अपनी सास से कहा तो वह तुरंत उसे डाक्टर के पास ले गई । डॉक्टर ने  जांच की तो पाया कि बच्चे की गर्भ में दो दिन पूर्व मृत्यु हो गई है तथा उसे तुरंत ही आपरेशन करके निकालना आवश्यक होगा । भरे मन से सबको आपरेशन करने की इजाजत देनी पड़ी ।

आपरेशन करने के समय पता चला कि बच्चे के मृत शरीर का जहर कविता के शरीर में फैलने लगा है अतः कविता को बचाने के लिये उसके गर्भाशय निकालने का कटु निर्णय भी तुरंत ही लेना पड़ा ।


कविता जीते जी ही मर गई थी किन्तु जब भाग्य विपरीत हो तो दोष भी देती वह किसको देती ? इसके साथ ही उसके ससुराल वालों का दृष्टिकोण उसके प्रति बदलने लगा । पुत्र को तो पहले से ही वह नापसंद थी अब सास को भी वह आँख की किरकिरी बन खटकने लगी....। उन्हें तो अपनी वंशबेल के लिये वारिस चाहिए था जिसके लिये वह अक्षम हो चुकी थी अतः उन्होंने स्पष्ट रूप से अपने पुत्र के दूसरे विवाह की बात प्रारंभ कर दी ।


प्रकृति के क्रूर मज़ाक से वह पहले ही हतप्रभ थी, अभी तक वह उस सदमे से उबर नहीं पाई थी तथा शीघ्र ही उसकी सास द्वारा उसकी सौत लाने के प्रयास ने उसको मानसिक रूप से विक्षिप्त कर दिया था । उसका स्वाभिमानी हृदय इस बात को सहन नहीं कर पाया और वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर मायके चली आई । दो वर्ष के वैवाहिक जीवन में उसने सारी जिंदगी जी ली थी । अब तक वह दूसरों की इच्छानुसार जी रही थी किन्तु अब वह अपनी इच्छानुसार अपनी जिंदगी जीना चाहती थी....।


जिंदगी इतनी सहज नहीं होती जितना उसने सोचा था । कुछ ही दिनों में उसे महसूस हो गया था कि उसके मायके....उसके अपने घर में उसके सदा के लिये लौट कर आने के निर्णय का बेमन से स्वागत किया गया । यहाँ तक कि उसकी अपनी ही छोटी बहन को कमरा जो कभी उन दोनों का हुआ करता था अब उसके साथ शेयर करने में दिक़्क़त आने लगी थी ।


माँ पिताजी के दूसरों के सामने यह कह कर सफ़ाई देनेे पर कि इसकी ससुराल वाले तो इसे ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन हमने ही आग्रह करके रोक लिया है तो उसे बहुत क्रोध आता.. .। आखिर क्यों नहीं वे भी सच्चाई स्वीकार कर लेते....। लड़की चाहे वह कुआँरी हो या विवाहता पता नहीं क्यों जमाने भर की आँखों की किरकिरी बनी रहती है । विवाह में जरा भी देर होने पर अपनों से ज़्यादा दूसरे परेशान रहते हैं,वहीं अगर विवाहता लड़की कुछ ज़्यादा दिन मायके में रह गई तो इन्हीं आँखों में शंकाओं के बादल झिलमिलाने लगते हैं ।


आखिर कब तक बात छिपती । बेटी की स्थिति देखकर दीदी ने खटिया पकड़ ली थी तथा जीजाजी अलग दुखी थे....। लोग संवेदना प्रकट करने आते लेकिन कविता समझ नहीं पा रही थी कि उनके शब्दों में वास्तव में उसके प्रति संवेदना है या उसका मज़ाक बनाया जा रहा है.....। जब लोग कहते कि बेचारी....अभी उम्र ही क्या है, कैसे काटेगी इतनी लंबी जिंदगी ? लोगों की बात सुनकर माता-पिता के चेहरे पर छाई दीनता को देखकर उसका मन डूब मरने को करता....। इस स्थिति से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता था,नौकरी की खोज....। अंततः उसे एक स्कूल में नौकरी मिल गई ।    

      

  दूसरों के अनेको प्रश्नों से त्रस्त माता-पिता के चेहरे पर आई दीनता तथा भाई बहन के व्यवहार में अपने प्रति आये बदलाव के कारण उसने अलग रहने का निर्णय ले लिया था । अपने स्कूल के पास एक मकान लेकर जब अपना निर्णय सुनाया तो माँ ने उसके निर्णय का विरोध अवश्य किया किन्तु इस विरोध के पीछे छिपी संतुष्टि को वह चाहकर भी नहीं छिपा पाई थी । अपनों के चेहरे पर आई संतोष की रेखा अपनों को बेगाना बना गई थी । अब उसे महसूस हो रहा था उसके माँ पिताजी जब उसे नहीं अपना पाये तो सास-ससुर तो पराये ही थे ।


  दीदी से कविता के बारे में सारी बातें पता चलती रहती पर दूसरों के मामले में दखल न देने की मानसिकता के कारण वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी पर यह जानकर ख़ुश थी कि नौकरी से उसका खोया आत्मविश्वास फिर से लौटने लगा है । स्वयं को संभालने के बावजूद रात के अंधकार में वह अपने एकाकीपन से भयभीत हो उठती थी , वहीं जब वह अपनी हमउम्र सहेलियों को अपने पति और बच्चों के साथ घूमते देखती तो वह अपनी स्थिति से असंतुष्ट हो उठती । अधूरेपन का अहसास उसे तोडने लगा था किन्तु फिर भी वह स्वयं को व्यस्त रखकर इस़ स्थिति से उबरने का प्रयत्न करती रहती ।  

कविता के अलग रहने के कारण दीदी लोगो के बेतुके प्रश्नों से तो मुक्ति पा गई थी किंतु अपराध बोध से ग्रस्त उनका मन स्वयं को दोषी बना गया था जिसके कारण वह बीमार पड़ गई तथा एक दिन ऐसी सोई कि उठ ही नहीं पाई ।


अभी कविता माँ की मृत्यु के सदमें से उबरने का प्रयत्न कर ही रही थी कि एक दिन स्कूल में एक छात्रा के शैतानी करने पर दंड देने हेतु उसका हाथ उठ गया । वह छात्रा किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की पुत्री थी । बात मुख्य अध्यपिका तक पहुँची…


मुख्य अध्यापिका ने उसे बुलाकर डाँटते हुए कहा, '‘ कविताजी,बड़े शर्म की बात है कि स्त्री होते हुए भी आपके मन में बच्चों के लिये जरा भी प्यार नहीं है....। आपको इतना भी नहीं पता कि बच्चों को मार से नहीं वरन् प्यार से समझते हैं....। बच्चों को मारना अब अपराध की श्रेणी में आता है । शायद इसीलिए प्रकृति ने भी आपको कभी माँ न बन पाने का अभिशाप दिया है.... । इस बार तो मैं कोई कार्यवाही नहीं कर रही हूँ अगर अगली बार ऐसा हुआ तो मुझे आपके विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये विवश होना पड़ेगा ।’


मुख्य अध्यापिका के आरोप ने एक बार फिर कविता को अर्धविक्षिप्त कर दिया था । शायद इसीलिये प्रकृति ने भी आपको कभी माँ न बन पाने का अभिशाप दिया है....बार-बार मुख्य अध्यपिका के शब्द उसके कानों में गूँज कर उसे विक्षिप्त बनाने लगे । उसने स्कूल जाना छोड़ दिया । घर में बैठी रात दिन शून्य में निहारती रहती । न उसका खाने का मन करता और न ही किसी से बातें करने का,कभी वह बच्चों की तरह रोने लगती तो कभी बेवजह हँसने लगती ।


जीजा जी को जब उसकी ऐसी हालत का पता चला तो वह कविता को घर ले आये । कविता की ऐसी हालत देखकर जीजाजी ने उसे फोन कर आग्रह युक्त शब्दों में कहा,' वनिता, मैं कविता को इस हालत में देख नहीं पा रहा हूँ । मैं जानता हूँ तुझसे कविता को बहुत लगाव है । वह तेरी कोई बात नहीं टालेगी....। हो सके तो तू उसे अपने साथ ले जा....।’  


जीजाजी का आग्रह मानकर,कविता की ऐसी हालत देखकर वनिता उसे अपने साथ इस आशा के साथ ले आई थी कि स्थान परिवर्तन तथा उसके प्यार भरे व्यवहार से शायद उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आये । कम से कम यहाँ आस-पड़ोस की दयनीय नजरें तो उस पर नहीं रहेंगी । उसे उनके व्यंग्यबाणों , उसके भविष्य के प्रति लोगों की दुश्चिंतायों से मुक्त होकर वह अपने नए जीवन का प्रारंभ कर पाये । 


यहाँ वह उसकी भतीजी है जो उसके पास पढ़ने के लिये आई है किंतु सदा सोचा हुआ पूरा कहाँ हो पाता है ? अपने गमों ,अपने अतीत को भुला पाना इतना सहज होता तो दुनिया कि आधी से अधिक समस्याएं ही दूर हो जाती । कविता के साथ भी यही समस्या थी । वह नई जगह में भी अकेले नहीं आई थी,अपने साथ अपने अतीत को भी ले आई थी या उसे अतीत के साथ रहने की आदत पड़ गई थी.....।


विनय ने अपने डाक्टर मित्र से बात की तो उन्होंने कविता को साइकियाट्रिस्ट को दिखाने की सलाह दी तथा अपने एक मित्र से बात करके अपाइन्टमेंट भी ले लिया । ट्रीटमेंन्ट लेते-लेते महीना भर हो चला था । डाक्टर नीरज के प्रश्नों का उत्तर देते-देेते एक बार कविता उससे ही प्रतिपप्रश्न कर बैठी थी,‘ डाक्टर, भगवान ने मुझे आधा-अधूरा क्यों बनाया ?’


‘ आप आधी-अधूरी कहाँ है ? आप तो एक संपूर्ण औरत हैं....। क्या बच्चा पैदा न कर पाने की अक्षमता के कारण आप स्वयं को आधा-अधूरा समझतीं हैं....? कोई बच्चा गोद लेकर तो देखिये.....उसे देखकर क्या आपके मन में ममता का स्त्रोत जाग्रत नहीं होगा....? क्यों आप व्यर्थ के प्रश्नों के अंदर स्वयं को क़ैद किये हुए हैं ? मन के बंद दरवाजों को खोलकर देखिये दुनिया आज भी वैसी ही हसीन है जैसी कि तब थी जब आपके साथ यह दुर्घटना नहीं घटी थी ।’   

  

   ‘ डाक्टर साहब, तब आशायें थी, आकांक्षाएं थी तथा स्वप्न थे लेकिन अब तो चारों तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा है ।’ कविता ने मायूस स्वर में कहा था ।


  ‘कविता जी, यह मत भूलिये कि हर अँधेरे के पश्चात उजाला होता है । अँधेरों से डर कर चुपचाप बैठ जाना तो जिंदगी नहीं है । मन के अँधेरों से बाहर निकल कर बाहर की खुली धूप में सांस लेने की कोशिश कीजिए, सारी समस्याएं अपने आप ही हल हो जायेंगी ।’ डाक्टर नीरज ने उसे समझाते हुए कहा था ।


डाक्टर नीरज के मुख से कविताजी सुनकर कविता के साथ-साथ वनिता भी चौंक गई थी किन्तु मरीज के साथ डाक्टर का आत्मीय हो जाना स्वाभाविक ही है,सोचकर विशेष ध्यान नहीं दिया था ।


कविता का ट्रीटमेंन्ट चलते लगभग दो महीने हो चले थे । एक दिन वनिता धूप में बैठी बाल सुखा रही थी कि कालबेल की आवाज सुनकर दरवाजा खोला । सामने डाक्टर नीरज को देखकर चौंक गई । अंदर आने का निमंत्रण देते हुए आने का प्रयोजन पूछा । 


डॉक्टर नीरज ने बिना किसी लाग लपेट अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा,‘मैम, अगर आपको कोई आपत्ति न हो तथा अगर कविता चाहे तो मै कविता को अपनाना चाहता हूँ ।’


‘ डाक्टर साहब आप यह क्या कह रहे हैं ? आप तो जानते हैं कि कविता....।' कहकर वनिता ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।


‘ हाँ मेम, मैं जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि कविता की यह हालत उसके माँ न बन पाने की प्रतिक्रिया स्वरूप है । मैं आपको यह बता देना अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मैं विवाहित हूँ तथा मेरे दो बच्चे हैं । मेरी पत्नी का देहान्त दो वर्ष पूर्व हो चुका है । मेरे माता-पिता काफी दिनों से मेरे विवाह के लिये जोर दे रहे हैं किन्तु मैं ऐसी युवती की तलाश में था जो मेरे साथ मेरे बच्चों को भी अपना सके....। कविता को देखकर लगा कि मेरी तलाश पूरी हो गई है । इस संबंध से कविता को न केवल बच्चे वरन् बच्चों को माँ भी मिल जायेगी । यदि कोई समस्या आई भी तो पति तथा डाक्टर रूप में भी मैं तो सदा उसके पास रहूँगा ही ।’ कहते हुए नीरज ने अपनी बात रखी ।


धन्य हो तुम बेटा , चाहकर भी नहीं कह पाई सिर्फ इतना ही कहा,‘ बेटा, प्रस्ताव तो तुम्हारा बहुत अच्छा है लेकिन कविता से भी पूछना पड़ेगा ।’


‘ यह तो मैं पहले भी आपसे कह चुका हूँ, अगर आप और कविता चाहे तो... मुझे भी कोई जल्दी नहीं है में आपका जो भी निर्णय होगा, मुझे स्वीकार होगा ।’ कहकर नीरज चला गया था ।


विनय तो प्रस्ताव सुनकर बहुत ही ख़ुश हुए थे । जीजाजी से पूछा तो वह बोले,‘बीना के पश्चात तुम ही उसकी माॅं हो। तुम्हारा जो भी निर्णय होगा, मुझे स्वीकार होगा ।’


कविता ने इस संबंध के लिये स्पष्ट रूप से मना कर दिया । वह पहले विवाह की कटु स्मृतियों से ही अब तक उबर नहीं पाई थी । अब वह फिर से विवाह बंधन में बंधने के लिये तैयार नहीं थी । उसके तथा विनय के उसको समझाने के सारे प्रयास विफ़ल हो गये थे । 


एक दिन कविता अपने कमरे में अधखुली खिड़की से डूबते सूरज को निहार रही थी। चेहरे पर छाई विषाद की रेखा से दुखित होकर वनिता ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए स्नेह भरे स्वर में कहा,‘ क्या सोच रही है बेटा?’


‘ कुछ नहीं मौसी...।’ कहते हुए भी वह मन के विषाद को नहीं छिपा पाई थी। 


 ‘ तेरी हालत मुझसे छिपी नहीं है बेटा, लेकिन जिंदगी ऐसे ही तो नहीं कटती । याद है एक दिन तूने मुझसे पूछा था....मौसी मेरे भाग्य में एक टुकड़ा धूप भी क्यों नहीं है ? उस समय मैं तुझे कोई जबाव नहीं दे पाई थी लेकिन बेटा आज कहती हूँ जो मिल रहा है उसे अपने आँचल में सहेज ले....। नीरज बहुत अच्छा लड़का है, हो सकता है उससे तुझे वह सारी खुशियाँ मिल जाएं जिससे तू आज तक वंचित रही है ।’


‘ आप ठीक कह रही हैं मौसी...। जिंदगी एक जुआ ही तो है,एक बार दांव लगा कर और देख लूँ, शायद अपने हिस्से का सुख पा लूँ ।’ कहते हुए उसने उसके कंधे पर सिर रख दिया था । इस बार उसके शब्दों में पीड़ा नहीं जीवन को नए सिरे से जीने की आशा थी, आकांक्षा थी ।


उसकी स्वीकृति पाते ही घर भर में खुशियाँ छा गई थीं । जीजाजी की आँखों के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे । पंद्रह दिन के अंदर ही नीरज और कविता की इच्छानुसार एक सादे समारोह में विवाह का आयोजन किया गया... आज उसका विवाह है ।  


‘ मौसी , आप कहाॅं है ? ’ कविता की आवाज ने उसे अतीत से वर्तमान में ला दिया ।

 

‘ बेटी, मैं तैयार हो रही हूँ ।’ उसकी आवाज सुनकर हाथ में पकड़ी साड़ी को जल्दी से छिपा कर वनिता ने शीघ्रता से कहा ।


ब्यूटी पारर्लल से मेकअप करवा कर लौटी कविता बेहद खूबसूरत लग रही थी । इन पंद्रह दिनों में कविता का वह पुराना चुलबुला रूप लौटा देखकर वनिता मन ही मन बहुत ख़ुश थी । उसके माथे पर प्यार भरा चुबंन अंकित कर उसे विवाह मंडप की ओर ले जाते हुए सोच रही थी कि पहले विवाह की प्रतीक उस साड़ी को कल ही किसी को दे दूँगी....। इस घर में अब कोई भी ऐसी चीज नहीं रहने दूँगी जिसे देखकर कविता को बीते दिनों की याद आये....। इतनी कम उम्र में ही वह काफी दुख झेल चुकी है । कम से कम इस बार तो वह खुशियों से भरी भरपूर जिंदगी जी सके, न कि इस बार भी नदी के पास पहुँच कर भी प्यासी ही रह जाए ।





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