अनपेक्षित शिक्षक
अनपेक्षित शिक्षक


शहर की भीड़-भाड़ में कहीं एक छोटा सा चौराहा होना कोई ख़ास बात नहीं है और उसके बगल में कूड़ेदान का होना कोई नई बात नहीं है। उसी कचरे से उठती मधुर गंध, जी हाँ, एक समय के पश्चात नाक गंध की इतनी अभ्यस्त हो जाती है कि वो विचार में लग जाती है कि गंध के आगे सु प्रत्यय लगाएं या दुर्। ख़ैर, कूड़ेदान के आसपास बहुत भीड़ जमा थी और वहीं पास ही शिशु-रुदन गुंजायमान था। मैं भी उसी गंध में डूबी एक दूकान में बैठा चाय पी रहा था कि वो क्रंदन मेरे भी कान तक पहुँचा। बाकी भीड़ की तरह मैंने भी तमाशा देखना उचित समझा। चिलचिलाती धूप में शिशु रुदन तेज़ हो रहा था और वर्तमान में फ़ैली महामारी से संक्रमित होने के भय से कोई हिम्मत नहीं कर रहा था उस मासूम को उठाने की। वक़्त दिन का भी गुज़र रहा था और शिशु के जीवन का भी। तभी न जाने कहाँ
से एक अट्ठाहस गुंजित हुआ, तो देखा एक विक्षिप्त महिला उसी प्रहसन की अवस्था में उस भीड़ की तरफ़ बढ़ी चली आ रही है। अपनी ही मस्ती में मस्त, दुनिया के लिए विक्षिप्त, महिला उस तमाशबीन भीड़ के पास पहुँची। उसका ध्यान भी भीड़ की तरह ही, उस शिशु-रुदन की तरफ़ गया। वो आगे बढ़ी और ग़ौर से उस शिशु को देखने लगी। अनायास ही वो शिशु को उठा लेती है और उसे अपने वक्ष से लगा लेती है। धीरे-धीरे शिशु-रुदन शांत हुआ तो तमाशबीनों का ध्यान गया कि वही विक्षिप्त महिला उस शिशु को स्तनपान करवा रही थी। वहाँ उपस्थित लोगों की आँखें झुक गयीं थीं, उस विक्षिप्त का ममत्व देख और अपनी समझदारी पे सब शर्म महसूस कर रहे थे। आज वहाँ उपस्थित लोगों को एक अनपेक्षित शिक्षक मानवता का पाठ पढ़ा गया था।