अनकहे रिश्ते

अनकहे रिश्ते

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न जाने उसमें ऐसी क्या कशिश थी ? न चाहते हुए भी मेरी नजर उसकी ओर चली जाती थी।

रांची यूनिवर्सिटी के पीजी क्लास में काफी दिनों तक हम दोनों दो किनारों पर बैठते रहे लेकिन एक अदृश्य डोर हमें जरूर खिंचती थी।

यह डोर तब प्रकट हुआ जब हम पहलीबार फील्डवर्क में निकले। रोलनम्बर आसपास होने की वजह से हमदोनों को एक ग्रुप में रख दिया गया। पहली बार बातचीत हुई और बीच में पड़ी संकोच की दीवार ढह गई।

उस ग्रुप में हमदोनों का एक अलग ग्रुप बन गया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया। दोस्ती धीरे धीरे प्यार में कब बदल गई पता ही नहीं चला। लेकिन प्यार होता क्या है ये उससे मिलकर ही जाना। क्लास के बीच भी हमारी बातचीत इशारों में और चिट्ठों में चलती रहती। हम तो बस अपनी ही दुनियां में खोने लगे। पढ़ाई खत्म होने के बाद भी मिलना जुलना जारी रहा, उसके घर भी जाने लगा।

धीरे-धीरे प्यार परवान चढ़ने लगा,उसके बिना एक एक पल जीना दुश्वार लगने लगा। मन करता हरवक्त उसके ही साथ रहूँ।वो हरक्षण मेरे पास बैठी रहे। जब भी मुझे कुछ होता वो परेशान हो जाती। मुझे गुस्सा आता तो वह घबरा जाती, मैं भी उसके रूठने पर बैचेन हो जाता।उसकी मुस्कुराहट से मेरी सांसे चलती। उसका किसी और से बातें करना,मिलना-जुलना, किसी और कि तारीफ करना, मैं बर्दास्त नही कर पाता और नाराज हो जाता था।

शायद हमारा कई जन्मों का रिश्ता था। हमारा दिल एक हुआ। हम एक हुए । जमाने ने हमें साथ कर दिया लेकिन समाज और परिवार की दीवार ऊंची पड़ी गयी। कुछ प्रतिष्ठा के बंधन और कुछ ऊंच-नीच की दीवार ने हमें विवश कर दिया। मैं भी अपने प्यार को तकलीफ नहीं देना चाहता था। मेरी जान किसी और की हो गयी,मैं खड़ा देखता रहा।

कितना विवश,कितना लाचार था मैं ? चाह कर भी कुछ नहीं कर सका। जी कह रहा था वहीं चिल्ला चिल्ला के कहूँ-

"प्रिया तुम सिर्फ मेरी हो ! तुम कहाँ जा रही हो ?"

पर लब खामोश पड़ गए। उसे रुसवा कैसे करता भला ?वह भी तो मजबूर थी,उसे भी तो दर्द हो रहा था। हमसे बिछड़ते,जाते जाते कह गयी-

"प्रिया तो सिर्फ तुम्हारी है! वह तो कोई और है जो ब्याह कर किसी और के साथ जा रही है।"

हां सच ही तो है!

प्रिया हरपल मेरे साथ है वह तो कोई और है जिसे मैंने विदा किया। प्रिया के साथ तो हमारा कई जन्मों का नाता है। भला वह कैसे टूट सकता है ? हम तो बने हैं इक दूजे के लिए ! कौन अलग कर सकता हैं हमें ?


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