अन्जाना सफर

अन्जाना सफर

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जो कोई उनकी जोड़ी देखता एक बार मुड़ कर दुबारा जरुर देखता और फिर नाक भौ सिकोड़ लेता।

कहाँ पूर्णिमा की चमकती दमकती चांदनी कहाँ अमावस का चाँद !

एक रेशमी नखरीली नार तो दूसरा स्टोर रूम में पड़ा कबाड !

पर लैला मजनूँ, शीरी फरहाद जैसे सब नाम फीके पड़ गये थे उन दोनों के प्यार के सामने !

एक दिन तो बड़े बाबू ने लविशा को केबिन में बुलाकर समझाया भी -

"मिस लविशा आप इस ऑफिस में ट्रेनिंग पर आई है इसलिए आप मितेश के बारे में ज्यादा नहीं जानती। मुझे कहना तो नहीं चाहिए पर बड़े होने के नाते नेक सलाह दे रहा हूँ उससे दूर ही रहिये।"

"नॉट पॉसिबल !"

टका सा जवाब दे लविशा बाहर आ गई।

सुबह साथ आना, साथ लंच करना, शाम को साथ ही वापिस जाना !

"पता नही रात में भी अपने अपने घर जाते है कि नही !" ऑफिस के लोग अक्सर दबी जुबान में गुफ्तगू करते। पर वे दोनो लव बर्ड बिना किसी परवाह के बेखौफ पंख फैलाए उड़ान भरते रहते।

"जान ! क्या सोचा शादी के बारे में !"

रेस्तराँ में बैठी लविशा के गोरे चिट्टे हाथ को अपने काले भद्दे हाथ में लेते हुए मितेश ने उसके कंधों पर झुकते हुए पूछा।

"मितेश पापा को मनाना बहुत मुश्किल काम है ! उन्हें तो कोई हाई फाई दामाद चाहिए बस !"

"तो भाग चलें !"

"पागल हो तुम ! जाएँगे कहाँ !"

"सब इंतजाम है डार्लिंग ! बस तुम हाँ तो करो !"

"अफोर्ड कर पाओगे सब !"

"तुम्हारे लिये तो जान भी हाजिर है मेरी जान !"

कहते हुए मितेश ने लविशा के हाथ को चूम लिया।

लविशा शरमा कर उसके गले लग गयी।

यानि कि लाईन क्लीयर !

दो ही दिन में दोनों ने सारी तैयारी कर ली।

मितेश बेकरार था तो लविशा भी कम रोमांचित न थी।

नियत दिन, नियत समय, नियत स्थान पर दोनों मिले और उड़न छू हो गए। किसी को कानों कान खबर न हुई।

शहर में पहुंचते ही मितेश ने होटल में कमरा लिया और लविशा के गले में बाहें डालते हुए बोला-

"यार लविशा ! तुमने तो मेरी जिन्दगी बना दी !"

"सच !" लविशा उसकी बाहों में सिमटते हुए बोली।

"मुच !" मितेश ने कसकर उसे सीने से लगाया और झट अलग करते हुए बोला -

"अच्छा तुम फ्रेश हो जाओ, मैं बस थोड़ी देर में आया।"

"कहाँ चल दिये !"

"सरप्राईज फ़ॉर यू,,,, जस्ट वेट !"

कहते हुए मितेश तेजी से कमरे से निकल गया।

लविशा ने दरवाज़ा अंदर से लॉक किया और सामने खुली खिड़की से बाहर देखने लगी। दूर तक फैला नीला आसमान धीरे-धीरे स्याह होता जा रहा था। सारा दिन के थके हारे हरे भरे पेड़ अब शिथिल से खड़े थे।

दूर कहीं घड़ी ने टन टन करके घंटा बजाया। रात के आठ बज चुके थे।

मितेश को गए घंटा भर हो चुका था। अचानक किसी ने हौले से दरवाजा खटखटाया। लविशा ने की होल से झांक कर देखा, मितेश को देखते ही झट दरवाज़ा खोल दिया।

उसके साथ एक आदमी भी था। अधेड़ उम्र, साँवला रंग, दबे नैन नक्श, होंठों में सिगरेट दबाए मंद मंद मुस्कराते हुए एकटक लविशा की ओर निहारता हुआ, मानो उसकी देह का मुआयना कर रहा हो।

लविशा ने कुछ पूछने के लिये मुँह खोला ही था कि मितेश ने उसके होंठों पर उंगली रखते हुए कहा -

"अब आयेगा जिन्दगी का असली मजा ! सोचो एक रात की इतनी कीमत तो जिन्दगी भर की.... ! लविशा डार्लिंग तुमने तो मेरी पौ बारह कर दी ! अब तो उंगलियाँ घी में और सिर कड़ाही में !"

वह अधेड़ आदमी लविशा की ओर बढ़ा ही था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। मितेश हड़बड़ा कर दरवाजे की ओर लपका ही था कि धड़ाम से दरवाजा खुला। इंस्पेक्टर रवि मेहता अपने दो कांस्टेबल के साथ खड़े थे। मितेश के चेहरे का रंग उड़ गया, वह दो कदम पीछे हुआ ही था कि लविशा की आवाज कानों में पड़ी -

"लीजिये सर, आपका अपराधी ! बहुत पापड़ बेलने पड़े इसे पकड़वाने के लिये !"

"लविशाssss तुमने मुझसे छल किया !"

क्रोध की अनगिनत लकीरें मितेश के चेहरे पर उभर आई। दांत पीसते हुए उसका काला रंग और काला दिखने लगा।

"माई डियर मितेश ! जेल की सलाखों के पीछे बैठ कर सोचना कि किसने किसके साथ छल किया !"


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