अंग्रेजी शासन का देशद्रोह
अंग्रेजी शासन का देशद्रोह
अगर बात करे भारतीय स्वतंत्रता की क्रांति और उन क्रांतिकारियों की जिनके प्रयासों से देश को आज़ादी मिली तो इतिहास के पन्नों में शायद हज़ारों नाम दबे मिले। किंतु हम केवल कुछ नामों से ही परिचित हैं। इन सभी महान आत्माओं के बलिदान को जानने की आवश्यकता है। वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के शिरढोणे गांव में हुआ था। वे बचपन से ही बड़े तेजस्वी और बहादुर बालक थे। उन्हें वनों और पर्वतों में घूमने का बड़ा शौक़ था। कल्याण और पुणे में उनकी शिक्षा पूरी हुई। अपने 15 वर्षों के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में काम के दौरान वे कई स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क में आए। यहां महादेव गोविंद रानाडे का उन पर असीम प्रभाव पड़ा। एक बार जब उनकी माता जी बीमार पड़ीं, वे अंग्रेज अधिकारी के पास अवकाश का प्रार्थना पत्र देने गए लेकिन अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें छुट्टी नहीं दी। फड़के अनुमति की परवाह किए बिना अपने गांव चल पड़े। किंतु तब तक मां चल बसी थीं। इस बात का उन पर बहुत असर हुआ और उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर कोळी, भील तथा धांगड जातियों को एकत्र कर ‘रामोशी’ नाम का क्रान्तिकारी संगठन खड़ा किया और 1879 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले वासुदेव बलवंत फड़के भारत के पहले क्रांतिकारी थे।
13 मई, 1879 को रात 12 बजे वासु
देव बलवन्त फड़के अपने साथियों सहित एक भवन पहुंचे जहां सरकारी बैठक आयोजित थी। उन्होंने अंग्रेज़ अफ़सरों को पीटा तथा भवन को आग लगा दी। इससे अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया। किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में वासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए कि जो अंग्रेज़ अफ़सर ‘रिचर्ड’ का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा। अंग्रेज़ अफ़सर इससे बौखला गए और सर गर्मी से उनकी तलाश शुरू हो गई।
फड़के की सेना और अंग्रेजी सेना में कई बार मुठभेड़ हुई, हर बार उन्होंने अंग्रेजी सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया। लेकिन फड़के की सेना का गोला-बारूद धीरे-धीरे खत्म होने लगा। ऐसे में वे पुणे के पास के आदिवासी इलाकों में छिप गये।
20 जुलाई, 1879 को फड़के बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे।किसी ने उनके वहाँ होने की खबर ब्रिटिश अफ़सर को दे दी। उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गयी।
विख्यात वकील महादेव आप्टे की पैरवी के बाद उनकी मौत की सज़ा को कालापानी की सज़ा में बदल कर उन्हें अंडमान जेल भेज दिया गया। 17 फरवरी, 1883 को कालापानी की सज़ा काटते हुए जेल के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गई।
साल 1984 में भारतीय डाक सेवा ने उनके सम्मान में एक पोस्टल स्टैम्प जारी किया। दक्षिण मुंबई में उनकी एक मूर्ति स्थापित है।