अनचाही से मनचाही का सफ़र
अनचाही से मनचाही का सफ़र
असंख्य सवालपत्र सफ़हे बनकर उड़ते रहते है ज़हन में, क्यूँ आयी मैं इस दुनिया में ? किसको जरूरत थी मेरी ?
ज़िंदगी की दावत पर जन्मी मैं बस इतना एहसान रहा ज़िंदगी का मेरे उपर, फिर ज़िंदगी में कहीं ज़िंदगी दिखी ही नहीं। एक अनचाही उम्मीद की तरह इस दुनिया में आई, हर किसी की आँखों में खटकती एक तो मैं माँ-बाप की उम्मीदों से परे लड़के के बदले लड़की जन्मी उपर से श्याम वर्ण। मेरा स्वागत मुस्कुराहटों की महफ़िल ने नहीं किया नहीं, मातम और उदासीन वातावरण में पहली साँस भरी।
आँख खोलते ही दर्द की सांवली और गमगीन परछाइयों ने मुझे अपने वजूद में समेट लिया और शुरू हो गया जद्दोजहद से भरा जीने का सफर, जीना तो पड़ेगा ही, ज़िंदगी एसी है तो ये ज़िंदगी ही क्यूँ है ?
जिंदगी बहुत घटिया चीज रही है मेरे लिए, सबकी नज़रों में उपेक्षित सी जीती रही, जब पहली लड़की गोरी और सुंदर हो और आप एक श्याम और कुरुप ऐसे में एक संकुचित मानसिकता से भरे परिवार का हिस्सा होना मतलब अपने वजूद को पल-पल ध्वस्त होते देखना। फटे पुराने फर्निचर सी हालत ही समझो मुझे जीने में कभी सुकून महसूस नहीं हुआ हर किसी को बड़ी दीदी से प्यार था।
मैं अकेलेपन और तन्हाइयों के किले में कैद रही आज भी हूँ, लघुताग्रंथी से ग्रसित और मैं खुद को छोटी और बौनी समझती इस किले की चारदीवारी में सिमटकर रह गई हूँ, मैं खुद को एक नाकाम और दुनिया के और लोगों से खुद को बौना ही समझती रही। मेरे खयालों ने, मेरे एहसासों ने कभी इन दीवारों को तोड़ने की, इनसे बाहर आने की कोशिश भी नहीं की, एक डर और झुंझलाहट दोनों से घिरी रहती थी हमेशा जैसे जैसे बड़ी होती गई ये सारी सकारात्मकता और गहरी होती गई। और सच कहूँ भीतर ही भीतर दीदी के प्रति एक ईर्ष्या भाव जन्म ले रहा था, दीदी बहुत अच्छी थी पर मेरी हरिफ़ रही तो कभी-कभी ना चाहते हुए भी चुपके चुपके दीदी का कुछ अहित कर देती थी उसके लिए खेद भी रहता था। इंसान हूँ तो जायज़ है हर किस्म की भावनाएँ पनपती है मन मैं। कुछ ख़्वाब पलते थे मन में, सर भी उठाते थे पर हिम्मत नहीं हुई ख़्वाबों को सहलाने की, कुछ था मेरे भीतर जो बाहर निकलने को बेताब था, रौशन टुकड़े मेरे वजूद के विद्रोह करते रहते जिसके साथ हर पल जंग जारी रहती मेरी बौनी सोच की। मैं वो भोर हूँ जो रात के आधिपत्य के नीचे दबी उगने को बेकरार सी कोहरे की चादर लपेटे हंमेशा धुँधली ही रही। जहाँ जन्मदाता ही ख़फ़ा हो वहाँ औरों से क्या उम्मीद, ज़िंदगी ने मेरे माथे पर लिख दिया था 'अनचाही' तड़पती रही तरसती रही दो बोल प्यार के अपनेपन के कोई तो बोले, कभी-कभी ऐसा महसूस होता था मेरी ज़िंदगी अंधेरी काली रातों की गुफा है जिसमें कोई रोशनदान नहीं, आसपास अपनों का मेला मगर कोई अपना नहीं।
बस एक दर्द, एक तन्हाई है, और है एक बेमौत मरती-सी जिंदगी, जो मेरी साँसों के साथ- साथ अपना सफर तय कर रही है, बेमन से ढो रही हूँ खुद को।
सच ! श्यामवर्ण और कुरुप होना कितना बड़ा गुनाह है। कई बार चाहा दिल ने की किस्मत कुछ एसा चमत्कार कर दें जो मेरे अस्तित्व को रेखांकित करे, मेरे वजूद का अस्तित्व का आविष्कार हो मुझ में छिपी ‘मैं’ को गौरवान्वित कर पाऊँ, मैं अपने रुप की कौन सी परिभाषा लिखूँ की जिसमें मुझे अपने श्याम होने पर शर्मिन्दगी महसूस न हो सबकी नज़रों में उपर उठूँ। लेकिन, दुनिया का इतना बड़ा दिल कहां जो मुझे मेरी खुदी, मेरी ‘मैं’ मुझे हँसते - हँसते तोहफे में दे। जिंदगी बहुत ग़रीब है उस के हाथ बहुत छोटे हैं और मेरी अपेक्षा और इच्छाओं का आँचल बहुत बड़ा।
फिर भी एक आस ने कभी मेरा दामन नहीं छोड़ा , उस आहट को कान हमेशा सुनते रहते थे कोई तो भोर एसी खिलेगी जो मेरे मन के खालीपन को भर देंगी मेरी उदासियों को नोंचकर कहीं दूर फेंक देंगी और खुशियों के लिबास से मेरे आज को, मेरे वर्तमान को सजा देंगी । मेरा होना सबको अच्छा लगेगा। मेरी मौजूदगी सबको सुकून देंगी, मेरे अस्तित्व की खुशबू मेरे आस-पास के लोगों को महका देंगी। और मुझे मुझ में बसी 'मैं' ने ही रास्ता दिखाया बचपन से एक डायरी में अपने अच्छे बुरे एहसास और अनुभव लिखती रहती थी इतना कुछ लिख डाला था की एक किताब छप सके मैंने सोचा तो क्यूँ ना इसे छांट कर पब्लिश करवाया जाएँ। और फिर मैंने ग़म ही ग़म के मजमों से भरी डायरी से कुछ एहसास छांटे जो मेरी स्पेशल परवरिश से हरे भरे जख़्मो से तरोताज़ा से झिलमिला रहे थे उसे एक अनुभवी पब्लिशर्स को दे दिए।
आशा भी नहीं थी और यकीन भी नहीं था अपनी शापित तकदीर पर, बस एक दाँव लगाया था अपने वजूद को स्थापित करने का ।
पर कहते है ना ज़िंदगी की राहों में पड़ा बदनसीबी का पत्थर हट भी सकता है, और मेरी डायरी के कुछ पन्ने धीरे-धीरे मेरे लिए मील का पत्थर साबित हो रहे थे, कुछ ही दिनों में मेरी किताब छपकर आ गई और मार्केट में धूम मचाने लगी । आर्डर पर आर्डर मिल रहे थे और हर कोई मुझसे कुछ ना कुछ नया लिखने की मांग कर रहे थे, मेरी हर बुक बेस्ट सेलर साबित हो रही थी, मेरी कलम कहर ढ़ा रही थी, मैंने ज़िंदगी के हर पहलू के बारे मैं लिखना शुरू किया तो शायद सबको मेरे शब्दों मैं अपनी कहानी नज़र आ रही थी, जैसे-जैसे मेरा बैंक बेलेंस बढ़ रहा था वैसे-वैसे मेरे अपनों के दिल में इस अनमनी के लिए प्यार और अपनेपन का ढ़कोसला भी बढ़ रहा था।
मैं जानती थी ये मेरे रुप रंग का नहीं मेरे काम, नाम और दाम का करिश्मा था पर जो भी था जिसके लिए पूरी ज़िंदगी तरसती रही वो अब जाके मिला था मुझे, तो ढोंग और बनावटी अपनापन भी भाने लगा था। आज मैं सारी दुनिया से फ़ख़्र से सर उठाकर सारे असमंजस और अंतर्द्वन्द्वों से मुंह मोड़ कर नज़रें मिलाती हूँ। अब लग रहा है ये लेखनी की क्षितिज ही मेरी मंज़िल है। अब मुझे मेरे ‘स्व’ का संरक्षक मिल गया था, अपने वजूद के बिखरे कतरों को समेट कर खुद को पूर्णतः पा लिया है।आज दुनिया में मैंने अपनी एक अलग ही जगह बना ली है, मेरे अरमानों को एहसासों को परवाज़ मिल गई है, इच्छाओं को आकार मिल गया है कल्पनाएं साकार होने लगीं है। कुल मिलाकर अब मुझे जिंदगी से प्यार होने लगा है, वर्तमान सुनहरे भविष्य के ताने-बाने बुनने लगा है दिल में ख़ुशियाँ पनपने लगी है। सारा सुख एक तरफ़ माँ-बाप की नज़रों में उपर उठने का सुख एक तरफ़, अनचाही से मनचाही बनने के उस कंटीले सफ़र पर अब फूल ही फूल बिछे है। अब ज़िंदगी को कुछ-कुछ रास आने लगी हूँ मैं और मुझे ज़िंदगी कुछ-कुछ ।।