Mamta Kashyap

Abstract Inspirational

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Mamta Kashyap

Abstract Inspirational

अम्मा, झुमकी और बहू

अम्मा, झुमकी और बहू

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बिल्कुल अपने बाबू पर ही तो गया है छोटे, झुमकी सोच रही थी। उसने चुपके से दालान के बाहर से ही बेटे बहु के कमरे में झांका, बेटा तो घर पर था नहीं और उसकी हिम्मत नहीं हुई बहु को बुलाने की। किस मुह से बुलाये। घर की चुप्पी ऐसी थी की काटने को दौड़े। क्या करे क्या नही सोचते हुए, भंसा घर जा कर दो रोटियां सेंकी, उतने में ही उसके घुटने जवाब दे गए। पैरों को घसीटते हुए, आंगन में अपनी बीसियों साल पुरानी चौकी पर आ बैठी, जाड़े की धूप में, झुमकी करुआ तेल से अपने झुर्रीयों भरी, ढीली चमड़ी वाले घुटनो की मालिश करते करते छोटे के छुटपन में पहुँच गयी।

दो साल का था छोटे, सुबह उठते ही झुमकी दातुन भी न करती, पहले उसके लिए दूध गरम करती, कमर में साड़ी खोसे, छोटे के बाबू के लिए कपड़े, लत्ते, चाय जुटाती, और उसकी गोदी में चिपका रहता छोटे, बंदर के बाच्चे की तरह। खाना नाश्ता एक हाथ से बनाते बनाते, उसकी हिम्मत जवाब देने लगती, दो सांसे ले कर फिर जुट जाती। अम्मा बोलती भी की नीचे रख दे बच्चे को,थोड़ा रोयेगा और क्या ही होगा, पर छोटे के बाबू को छोटे का रोना बिल्कुल नही अच्छा लगता, वो बिदक जाते थे और अम्मा भी बेटे के सामने चुप हो जाती थी। जैसे आज वो हो गयी थी।

धीरे धीरे, छोटे के आंसू न निकले, उसकी हर ज़िद पूरी होती गई, और उसके शौक भी तो उसके बाबू के शौकों जैसे ही थे,महेंगे, चमकीले, बड़े। अब हर बार चाँद जैसी चीजें कहा से लाई जाए। लेकिन बाबू हर बात उसकी आंख मूंद कर मानते और झुमकी एक गहरी हारी हुई सांस ले कर। अम्मा देखती रहती, इसी चौकी पर बैठ कर।

जैसे जैसे छोटे बड़ा होता गया, उसके शौक सुरसा के मुह की तरह बड़े होते गए, साईकल से मोटर साईकल, और फिर चार पहिया की ज़िद, होस्टल में रहने से ले कर मोबाइल फोन और कम्प्यूटर की ज़िद, खाना मन पसंद न होने पर थाली फेंकने की ज़िद। अपने बाबू पर ही तो गया था छोटे। अम्मा हमेशा यह बात बोलती।

कभी कभी छोटे झुमकी पर बहुत दुलार बरसाता, उसकी गोदी के तकिये पर सिर रखता और उसकी आँचल को चादर बना कर ओढ़ लेता, उसके फटे रूखे हाथों को चूम लेता, उसके अधपके बेतरतीब बालो को संवारता। और फ़िर उनसे वो मांगता जो वह खुद अपने बाबू से न मांग पाता, झुमकी बन जाती संदेशवाहक। बस। और जब वो माँ बेटे का प्यार देख कर पुलकती अम्मा की ओर देखती तो उसे ऐसा लगता जैसे छोटे अपने बाबू की परछाई ही है, एकदम उनके जैसे।

उसे याद है जब पहली बार छोटे के बाबू ने पहली बार उस पर हाथ उठाया, गलती क्या थी झुमकी को याद नही, पर शायद उसी की रही होगी। बाद में तो उसे आदत हो गयी, पर उस दिन उसे बहुत शरम थी, कैसे कमरे से बाहर निकले, कही उसके चोट दिख तो नही रहे, अम्मा क्या बोलेंगी। कमरे से झांक कर दालान के बाहर आंगन में इसी चौकी पर उसने अम्मा को देखा था, बेबस सी, लाचार सी।

आज झुमकी ही अम्मा है, बहु झुमकी। और छोटे? छोटे तो बाबू पर ही गया था न, वो कहाँ कभी उसका छोटे बन पाया, बाबू जैसा दिखता था, बाबू जैसी हरकतें थीं, बाबू का ही रहा। झुमकी ने खुद अपने हाथों से उसे उसके बाबू जैसा गढ़ा था। तो क्या अम्मा की तरह वो भी लाचार थी, तब और अब? बूढ़ी हड्डियों में वही दो सांस वाली हिम्मत भर कर झुमकी करूआ तेल की कटोरी ले कर बहु के कमरे में घुस गई। उसने सोच लिया था, की उसकी बहू भले आज झुमकी बन गयी हो, वो उसे कल अम्मा नहीं बनने देंगी।


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