अलख

अलख

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"सुधि... किसी ने इतने प्यार से पुकारा कि हवाओं में रस भर गया।"

आदरणीय धर्मवीर भारती जी द्वारा रचित 'गुनाहों का देवता' की ये पंक्तियां पढ़ते हुए अठारह बरस कि सुमिता के गालों पर गुलाबीपन छा गया था। उसे वो लम्हा याद आ रहा था जब पहले-पहल किसी ने उसे इसी तरह पुकारा था।

"सुमि..." सुनकर सुमिता के पांव सहसा ठिठक गये। इससे पहले की वो पीछे मुड़कर देखती उसने सोचा, कोई उसे इस तरह क्यों पुकारेगा भला? वो भी कॉलेज के पहले दिन जहां कोई उसे जानता भी नहीं।

लेकिन जब फिर से वही आवाज़ आयी तब उसने पलटकर देखा। सामने एक सुदर्शन युवक खड़ा था। सुमिता हिचकिचाते हुए उसके पास पहुँची। इससे पहले की वो कुछ कहती, उसी युवक ने बातचीत शुरू करते हुए कहा, "आप अपना पहचान पत्र पुस्तकालय में भूल आयी थी।"

"जी, धन्यवाद। पर मेरा नाम सुमिता है, सुमि नहीं।" सुमिता ने कार्ड लेते हुए कहा।

"सुमि ज्यादा जंचता है मुझे|” ये कहता हुआ वो युवक बिना सुमिता की प्रतिक्रिया का इंतजार किये विद्यार्थियों की भीड़ में गायब हो गया।

सुमिता हैरान सी खड़ी रह गयी।

कॉलेज के साथ-साथ अनाथालय की दुनिया से बाहर की इस नई दुनिया में भी आज सुमिता का पहला दिन था। अब तक सुमिता अनाथालय की तरफ से संचालित विद्यालय में ही पढ़ती आयी थी। बारहवीं में पूरे राज्य में तीसरे स्थान पर आने की वजह से उसे शहर के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ने का अवसर मिला था।

कक्षा में प्रवेश करते हुए सुमिता के कदम लड़खड़ा रहे थे। वो उत्साहित भी थी और थोड़ी डरी हुई भी। अपने-अपने दोस्तों के दल में व्यस्त सभी विद्यार्थियों के बीच वो सीधी-सादी सी लड़की नितांत अकेली थी।

लेकिन जब कक्षा शुरू हुई और सभी विद्यार्थियों के सामान्य परिचय के दौरान शिक्षक द्वारा पूछे गए कुछ प्रश्नों के सुमिता ने सटीक उत्तर दिए तो सारी कक्षा ने उसके लिए जोरदार तालियां बजायीं। साथ ही कई सहपाठियों के मित्रता भरे हाथ उसकी तरफ बढ़ चुके थे।

सुमिता जिस अनाथालय में रहती थी वहां की संचालिका को सभी 'अम्मा' कहकर संबोधित करते थे।

एक दिन जब सुमिता ने उनसे पूछा था, "अम्मा, मेरी पहचान क्या है?"

तब उन्होंने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा था, "बिटिया, तुम्हारी योग्यता ही तुम्हारी पहचान है।"

आज कक्षा में बजती हुई तालियां अम्मा की बातों को सच साबित कर रहीं थी।

सारी कक्षाओं के खत्म होने के बाद कॉलेज से निकलते हुए सुमिता की आँखें सुबह मिले उस युवक को ढूंढ रही थी, लेकिन वो उसे कहीं नहीं दिखा।

लगभग एक महीने के बाद एक दिन सुमिता पुस्तकालय में बैठी थी। तभी किसी की आवाज़ आयी, “क्या मैं यहां बैठ सकता हूँ?"

सुमिता ने किताब से नज़र हटाई तो सामने वही युवक खड़ा था। उसे देखते ही सुमिता का चेहरा खिल उठा। लेकिन अगले ही पल अपनी भावनाओं को संयत करते हुए उसने धीमे स्वर में कहा, "हाँ, बिल्कुल बैठिए।"

"मैं अखिल, द्वितीय वर्ष से।" कहते हुए उस युवक ने हाथ आगे बढ़ाया।

उससे हाथ मिलाते हुए सुमिता के हाथ कांप रहे थे।

"क्या हुआ? आपकी तबियत तो ठीक है? आप कांप क्यों रही हैं?" अखिल ने परेशान होते हुए पूछा।

सुमिता ने सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, "हाँ-हाँ बिल्कुल ठीक हूँ मैं। मेरी कक्षा का वक्त हो गया है। मैं चलती हूँ।"

अखिल एकटक सुमिता को जाता हुआ देखता रहा।

कॉलेज का पहला वर्ष बीतते-बीतते अखिल और सुमिता एक-दूसरे के बहुत करीब आ चुके थे। सारे कॉलेज में उनकी जोड़ी मशहूर हो चुकी थी। इस नए-नए प्यार के खुमार में सुमिता इस कदर डूब गयी थी कि उसका ध्यान अब पढ़ाई में कम और अखिल द्वारा भविष्य के दिखाए गए सब्ज-बाग में ज्यादा रहने लगा था।

अम्मा की अनुभवी नज़र से सुमिता की ये स्थिति ज्यादा दिनों तक छुपी नहीं रह सकी थी। उन्हें डर लग रहा था कि सुमिता अपने उज्ज्वल भविष्य पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी ना मार ले। अपना दायित्व समझकर उन्होंने सुमिता को समझाने की बहुत कोशिश कि लेकिन युवावस्था के जोश और अखिल की संगत का रंग उस पर कुछ ऐसा छाया था कि वो अम्मा को ही अपना दुश्मन समझने लगी और उनसे कटी-कटी रहने लगी।

प्रथम वर्ष की परीक्षा के दिन नज़दीक आ रहे थे। अपने और अखिल के रिश्ते पर उठ रही ऊँगलियों को गलत साबित करने के लिए सुमिता ने जोर-शोर से पढ़ाई में मन लगाने का इरादा बना लिया था।

"आज अखिल से बोल दूंगी की अब हम परीक्षा के बाद ही मिलेंगे।" ये सोचते हुए सुमिता कॉलेज पहुँची तब अखिल के दोस्तों ने बताया कि वो कुछ दिनों के लिए अपने गांव गया है।

"कम से कम मुझे बताना तो चाहिए था। ऐसे कैसे चला गया?" सोचती हुई सुमिता परेशान हो उठी और बिना कक्षा में गए वापस अनाथालय चली गयी। जब कहीं उसका मन नहीं लगा तब हारकर उसने अपनी प्रिय पुस्तक 'गुनाहों का देवता' उठा ली और उसे पढ़ते हुए अखिल के ख्यालों में डूबती चली गयी।

करीब एक हफ्ते के बाद जब अखिल वापस आया तब उसके उतरे हुए चेहरे को देखकर सुमिता ने घबराकर पूछा, "क्या हुआ अखिल? गांव में सब ठीक है ना?"

"नहीं सुमि, कुछ ठीक नहीं है। माँ बहुत बीमार है। शायद अब ज्यादा दिन जीवित भी ना रहे। उनकी अंतिम इच्छा है कि वो एक बार अपनी बहू को देख लें।" अखिल ने आँसू भरी आँखों के साथ कहा।

उसके आँसू पोंछते हुए सुमिता बोली "तो इसमें क्या मुश्किल है? तुम अम्मा से आकर मिल लो। फिर मैं और अम्मा तुम्हारे साथ गांव जाकर माँ जी से मिल लेंगे।"

"यही सोचकर मैं तुम्हारी अम्मा से मिलने गया था सुमि। लेकिन उन्होंने मुझे बेइज्जत करके बाहर निकाल दिया। तुम तो जानती हो कि वो हमेशा से हमारे रिश्ते के खिलाफ रहीं है। शायद वो नहीं चाहती कि स्नातक होकर उनके अनाथालय से निकलने के बाद तुम्हें एक संघर्षपूर्ण जीवन की जगह आरामदेह और सुंदर पारिवारिक जीवन मिले।" अखिल उदासीन भाव से बोला।

ये सुनकर सुमिता का अम्मा के प्रति क्रोध और तीव्र हो गया।

"मैं तुम्हारे साथ चलने के लिए तैयार हूँ अखिल। बोलो कब चलना है?" सुमिता ने अखिल का हाथ थामते हुए कहा।

"हो सके तो आज शाम ही सुमि। हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है।" अखिल की आवाज़ में उदासी थी।

शाम में जरूरी काम का बहाना बनाकर कुछ जरूरी सामान अपने छोटे से हैंडबैग में रखकर और अम्मा के लिए एक चिट्ठी छोड़कर सुमिता अनाथालय से निकल गयी।

जब देर रात तक सुमिता वापस नहीं लौटी तब अम्मा को कुछ संदेह हुआ। वो उसके कमरे में गयी तो मेज़ पर उनके नाम लिखी हुई सुमिता की चिट्ठी उन्हें मिली।

"अम्मा,

मैं आपके अनाथालय को छोड़कर अपने घर जा रही हूँ, अपने अखिल के साथ। मुझे ढूंढने की कोशिश मत कीजियेगा।

सुमिता"

इस चिट्ठी ने अम्मा को सकते में डाल दिया। वो सर पकड़कर बैठ गयी। उन्हें किसी अनहोनी की आशंका हो रही थी। आँखों ही आँखों में रात काटते हुए वो सुबह होते ही सुमिता के कॉलेज पहुँची और प्राचार्य को सुमिता की चिट्ठी दिखाकर उनसे अखिल के घर का पता लिया।

अखिल के दिये हुए पते पर जब उन्होंने अनाथालय के एक कर्मचारी को भेजा तब मालूम हुआ कि वो पता गलत था। अब अम्मा समझ गयीं की सुमिता किसी गलत चक्कर में पड़ गयी है। उन्होंने तुरंत पुलिस थाने का रुख किया। लेकिन चौबीस घंटे इंतज़ार करने के लिए कहकर थानेदार ने रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया।

उधर रात भर का सफर तय करने के बाद अगली सुबह जब सुमिता अखिल के साथ एक अंजान स्टेशन पर उतरी तो एक तरफ जहां उसके मन में कई दुविधाएं और डर दस्तक दे रहे थे, तो दूसरी तरफ एक नई खुशहाल ज़िन्दगी की उम्मीद से वो खुश भी थी।

अखिल और सुमिता को लेने के लिए स्टेशन पर गाड़ी मौजूद थी। गाड़ी जब पूरे गांव को पार करके सुनसान रास्ते पर चलने लगी तो सुमिता चौंकि। जब उसने अखिल से पूछा तो अखिल ने जवाब दिया, "ओह्ह सुमि, परेशान मत हो। माँ बहुत बीमार है ना तो सबने उसे गांव से बाहर एक छोटे से घर में रखा है। हम अभी वहां पहुँच जाएंगे।"

अब सुमिता को घबराहट होने लगी थी, लेकिन सिवा इंतज़ार करने के उसके हाथ में कुछ भी नहीं था। थोड़ी ही देर में उनकी गाड़ी वीराने में बने हुए एक छोटे से घर के आगे रुकी।

घर का दरवाजा खोलकर जब अखिल सुमिता के साथ अंदर गया तो वहां अखिल की माँ की जगह दो लोग मौजूद थे। इससे पहले की सुमिता कुछ समझ पाती, अखिल ने हँसते हुए कहा, "लीजिये भाई, आपकी मांग मैंने पूरी की। अभी-अभी इस हुस्न की परी ने अठारह बरस पूरे किए है।"

उनमें से एक आदमी ने अखिल के हाथ में पैसों का बंडल दिया और पूछा, "कोई लफड़ा तो नहीं होगा ना?"

अखिल कुटिलता से मुस्कुराते हुए बोला, "बिल्कुल नहीं। इस बेचारी अनाथ लड़की के पीछे भला कौन आने वाला है?"

अब सुमिता सब कुछ समझ चुकी थी। उसने अखिल को थप्पड़ मारते हुए इतना ही कहा, "आखिर क्यों?"

"क्योंकि मुझे सिर्फ पैसों से मोहब्बत है।" कहता हुआ अखिल वहां से चला गया।

सुमिता उन दो अजनबी लोगों को देखकर थरथरा रही थी। फिर भी उसने मन ही मन सोचा कि अगर किसी ने उसे हाथ लगाने की कोशिश कि तो वो अंतिम साँस तक उनसे लड़ेगी। लेकिन ये नौबत आने से पहले ही वो लोग सुमिता को बेहोशी की हालत में पहुँचा चुके थे।

अठारह घंटे की गहन बेहोशी के बाद जब सुमिता की आँखें खुली तब उसने खुद को उस छोटे से कमरे की जगह एक आलीशान कमरे के मखमली बिस्तर पर पाया।

सुमिता को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसने आस-पास देखा लेकिन उसे उन दो लोगों में से कोई भी नज़र नहीं आया।

थोड़ी देर में एक नर्स कमरे में आयी औऱ सुमिता को होश में आया हुआ देखकर उसका भलिभांति चेकअप किया।

सुमिता ने डरते-डरते उससे पूछा, "मैं कहाँ हूँ? आप बता सकती है?"

"आप इस वक्त दुबई में बड़े शेख साहब की हवेली में है। इससे ज्यादा मैं आपको कुछ नहीं बता सकती।" कहकर नर्स चली गयी।

कुछ वक्त गुजरने के बाद एक और महिला सुमिता के कमरे में आयी। उसने अपना परिचय देते हुए कहा, "मैं इस हवेली की मुख्य परिचारिका हूँ। मुझे यहां आपको तैयार करके शेख साहब के समक्ष पेश करने के लिए भेजा गया है।"

अपने देश से इतनी दूर अनजान लोगों के बीच किसी बात का विरोध करने की हिम्मत सुमिता में नहीं बची थी। ना जाने यहां उसका क्या हश्र हो? दुबई के कुछ अय्याश शेखों द्वारा लड़कियों के खरीद-फरोख्त, उनके साथ होने वाले अत्याचार, और गुमनामी में उन लड़कियों की मृत्यु की कई खबरें वो पढ़ चुकी थी।

उसे अम्मा की बातें, उनकी हिदायतें याद आ रही थी। लेकिन अब उसके हाथ में कुछ नहीं रह गया था। उसने स्वयं को नियति के हवाले कर दिया।

भारत में अम्मा की भी यही स्थिति थी। अपनी तरफ से सुमिता को ढूंढने की उन्होंने हरसंभव कोशिश की लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। अब दिन-रात सुमिता की सलामती की प्रार्थना में उनके हाथ भगवान के आगे जुड़े हुए रहते थे।

थोड़ी देर में हवेली की मुख्य परिचारिका सुमिता को सजा-संवारकर शेख साहब के कमरे में पहुँचाकर जा चुकी थी।

"आओ मेरे पास। मोहब्बत की दुनिया में तुम्हारा स्वागत है।" सुमिता को देखकर अधेड़ शेख साहब बोले।

उनकी बात सुनकर सहसा सुमिता हँस पड़ी।

उसे यूँ हँसते हुए देखकर शेख साहब ने क्रोध से तिलमिलाते हुए कहा, "मूर्ख लड़की, मेरी बात पर हँसकर गुस्ताखी करने की जुर्रत भी तुमने कैसे की?"

"नहीं-नहीं, मैं आपकी बात पर नहीं, इस 'मोहब्बत' लफ्ज़ पर हँस पड़ी।" सुमिता की आँखें डबडबाई हुई थीं।

शेख साहब ने जाने क्या सोचकर सुमिता से इसकी वजह पूछ डाली।

"कहाँ मैं सोच रही थी कि मेरी मोहब्बत मुझे मेरा घर देगी, मेरी पहचान देगी, और कहाँ मेरी रही-सही पहचान भी इस मोहब्बत के नाम पर मुझसे छीन ली गयी।" सुमिता से अखिल द्वारा किये गए फरेब की बातें सुनकर शेख साहब बिना कुछ कहे वहां से चले गए।

दूसरे कमरे में जाकर उन्होंने अलमारी से एक पुरानी अल्बम निकाली। उसके पन्ने पलटते हुए उन्हें बरसों पहले खोयी हुई अपनी बिटिया याद आ गयी जिसे किसी ने इसी तरह प्यार के नाम पर बहलाकर उसका सौदा कर दिया था। इससे पहले की शेख साहब उसे ढूंढ पाते वो आत्महत्या कर चुकी थी।

मन ही मन कुछ सोचकर शेख साहब फिर से सुमिता के पास पहुँचे और बोले, "अगर तुम्हें ज़िन्दगी में अपनी मर्ज़ी से कोई एक काम करने का अवसर मिले तो तुम क्या करोगी?"

सुमिता ने जवाब दिया, "मैं कोशिश करूँगी की कुछ ऐसा करूँ की फिर कोई सुमिता किसी अखिल के जाल में फँसकर इस तरह बर्बादी के कगार पर ना पहुँचे।"

"जाओ मैंने तुम्हें ये मौका दिया। आज से अभी से सब तुम्हें मेरी बेटी के तौर पर जानेंगे।और मेरे नाम में कितनी ताकत है इसका अंदाजा तुम इस बात से लगा सकती हो कि रातों-रात तुम भारत से यहां आ गयी और कोई मुझ तक पहुँचने की हिम्मत नहीं कर सका। आज से ये सारी ताकत मैं तुम्हें सौंपता हूँ। तुम चाहो तो भारत वापस जाकर भी अपना नया जीवन शुरू कर सकती हो।" शेख साहब सुमिता के सर पर हाथ रखते हुए बोले।

शेख साहब की बातें सुनकर सुमिता हतप्रभ सी खड़ी थी। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि अभी-अभी जो उसने सुना वो सच है, की कुछ देर पहले बदकिस्मती के दरवाजे पर खड़ी उसकी ज़िन्दगी एक लम्हे में इस तरह बदल भी सकती है।

अपनी बात कहकर शेख साहब वहां से जा चुके थे। उनके जाने के बाद जब मुख्य परिचारिका ने आकर सुमिता को बरसों से बंद पड़े शेख साहब की बिटिया के कमरे की चाभियाँ सौंपी तब सुमिता को विश्वास हुआ कि वो सच कह रहे थे।

रात के खाने पर जब सुमिता की मुलाकात शेख साहब से हुई तब उसने कहा, "क्या मैं आपको बाबा बुलाऊँ?"

शेख साहब के हामी भरने के बाद सुमिता बोली, "बाबा, मैं यहीं रहना चाहती हूँ और आपसे जीवन जीने की गुण सीखना चाहती हूँ, ताकि अपने जैसी लड़कियों को बचाने का अपना सपना पूरा कर सकूँ। बस एक बार भारत से मेरी अम्मा को बुलवा दीजिये। उनके मुझ पर बहुत अहसान है और बदले में मैंने उन्हें दुख के सिवा कुछ नहीं दिया।"

"जरूर बिटिया। तुम निश्चिन्त रहो और अब अच्छे से खाना खाओ। तुम्हारे लिए अलग रसोई में खास शाकाहारी खाना बना है। तंदुरुस्त रहकर ही दुश्मनों का मुकाबला किया जा सकता है।" शेख साहब ने सुमिता को तसल्ली देते हुए कहा।

धीरे-धीरे सुमिता शेख साहब के साथ सहज हो गयी। जहां शेख साहब एक जिम्मेदार पिता की तरह उसे भविष्य में अपना सारा व्यवसाय संभालने के लिए तैयार करने के साथ-साथ आत्मरक्षा के गुण भी सीखा रहे थे, वहां सुमिता एक आज्ञाकारी बेटी की तरह उनकी सारी बातों पर अमल करने के साथ-साथ एक स्नेही माँ की तरह उनका ख्याल भी रखती थी।

शेख साहब सुमिता को प्यार से 'छुटकी अम्मा' कहकर बुलाते थे।

कुछ दिनों के बाद जब भारत से अम्मा आकर सुमिता से मिली तो उसे देखकर उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ कि ये वही सुमिता है जो किसी की एक साधारण घुड़की से भी सहमकर उनकी गोद में आकर रोने लगती थी।

"शेख साहब मेरी बिटिया का जीवन संवारने के लिए मैं आपका जितना आभार व्यक्त करूँ कम है।" अम्मा कातर स्वर में बोली।

शेख साहब ने विनम्रतापूर्वक कहा, "ये आप कैसी बातें कर रहीं है बहन जी। मैंने उस पर कोई अहसान नहीं किया है, बल्कि मेरी छुटकी अम्मा की वजह से तो मुझे अपने कुछ पाप कम करने का अवसर मिला है।"

सुमिता की तरफ से निश्चिन्त होकर और उसे ढ़ेर सारा आशीर्वाद देकर अम्मा वापस भारत लौट गयीं।

धीरे-धीरे तीन बरस गुज़र गए।

एक दिन सुमिता ने शेख साहब से कहा, "बाबा, अब मुझे लगता है कि मैं अपने उद्देश्य की तरफ पहला कदम बढ़ाने के लिए तैयार हूँ।"

"बोलो छुटकी अम्मा, तुम्हारी क्या योजना है?" शेख साहब ने पूछा।

सुमिता ने विस्तार से उन्हें अपनी योजना बताते हुए कहा, "बाबा, मैं एक संस्था बनाना चाहती हूँ जिसमें कुछ जासूस हों, कुछ ताकतवर लोग जो वक्त पड़ने पर किसी से भी लड़ सकें, ताकि उनकी मदद से मैं खरीद-फरोख्त के जाल में फँसी हुई लड़कियों का पता लगवाकर उन्हें छुड़वाने में और फिर से उन्हें सामान्य जीवन जीने में मदद कर सकूँ।"

शेख साहब ने इसके लिए हामी भर दी और अपने कई विश्वासपात्र लोगों को सुमिता की संस्था से जोड़ दिया।

अपनी संस्था की मदद से सुमिता ने ऐसी कई लड़कियों का जीवन बर्बाद होने से बचाया। जिन लड़कियों का कोई परिवार, कोई अपना नहीं था उन्हें सुमिता अपनी संस्था में ले आती, जहां उन्हें रहने की जगह के साथ-साथ उनकी योग्यता के अनुसार काम दिया जाता था।

अब उसकी ज़िन्दगी का एकमात्र उद्देश्य ही यही रह गया था।

असहाय लड़कियों के लगभग उजड़े हुए जीवन में सम्मान के साथ फिर से जीने की नई अलख जगाने की जो मुहिम सुमिता ने शुरू की थी वो उसकी संस्था के बढ़ते हुए दायरे के साथ निरंतर तेजी से अपना विस्तार कर रही थी।

वक्त अपनी रफ्तार से गुजरता जा रहा था। शेख साहब की मृत्यु के बाद उनकी इच्छानुसार सुमिता उनके व्यवसाय की बागडोर संभालने के साथ-साथ अपनी संस्था से जुड़े हुए अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी बखूबी कर रही थी। सुमिता के द्वारा किये गए नेक कामों और सभी के साथ उसके सरल-सहज व्यवहार के कारण सभी कर्मचारियों से लेकर समाज में भी सुमिता का मान-सम्मान दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था।

एक दिन सुमिता को भारत से आने वाली एक लड़की के बारे में खबर मिली। हवाई-अड्डे पर तत्परता से मौजूद सुमिता के लोगों ने उस लड़की को अपने संरक्षण में लेते हुए उसे यहां लाने वाले लोगों को पुलिस के हवाले कर दिया।

वो लड़की जब सुमिता के पास पहुँची तब सदमे के कारण वो कुछ भी बोलने की हालत में नहीं थी। जब सुमिता ने उसे सुरक्षित होने का भरोसा दिलाया तब वो सहसा उसके गले लगकर फूट-फूटकर रो पड़ी। बहुत देर तक रोने के बाद उस लड़की जिसका नाम 'शालू' था ने सुमिता को अपने घर का पता बताया।

शालू का चेहरा बार-बार सुमिता को किसी की याद दिला रहा था। कुछ सोचकर सुमिता ने तय किया कि शालू को भारत में उसके घर तक पहुँचाने वो खुद जाएगी।

उधर शालू के गायब होने पर उसके पिता ने उसे खोजने की हरसंभव कोशिश की, पुलिस में भी रिपोर्ट दर्ज करवाई, लेकिन कहीं से भी शालू की कोई खबर नहीं मिली।

जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा था, बेटी की चिंता में उसके पिता की हालत बिगड़ती जा रही थी। अपनी लाड़ली बिटिया की सलामती के लिए वो दिन-रात ना जाने कितनी मन्नतें मनाते हुए हर आहट के साथ चौंककर दरवाजे की तरफ भागते की शायद उसकी बिटिया या फिर उसकी कोई खबर आयी हो, लेकिन फिर निराश होकर बैठ जाते। बरसों पहले पत्नी के छोड़कर चले जाने के बाद अब बस एक शालू ही तो उनके जीने का सहारा थी।

जब सुमिता शालू को लेकर उसके घर पहुँची तब भी उसके पिता दरवाजे पर ही खड़े थे।

उन्हें देखते ही शालू दौड़कर उनके गले से लग गयी।

अपनी बिटिया को सही-सलामत देखकर उसके पिता सुमिता के पैरों पर गिर पड़े और रोते हुए बोले, "इस अहसान के बदले आप जो कहेंगी मैं आपको देने के लिए तैयार हूँ।"

धयान से उस शख्स का चेहरा देखते हुए सुमिता जोर-जोर से हँस पड़ी और बोली, "जिसने प्यार जैसी पवित्र भावना को बदनाम करके मुझसे मेरा सब कुछ छीन लिया वो भला मुझे क्या दे सकता है? शालू के चेहरे ने मुझे तुम्हारी याद दिला दी थी अखिल, या जो भी तुम्हारा असली नाम है, इसलिए मैं स्वयं इसे लेकर तुम्हारे पास आयी, ताकि देख सकूँ की एक धोखेबाज प्रेमी फिक्रमंद पिता के रूप में कैसा दिखता है।"

अखिल ने चौंककर सुमिता की तरफ देखा, "सुमि...तुम?"

"सुमि नहीं, सुमिता सिर्फ सुमिता।" और सुमिता के कदम तेजी से वापस जाने के लिए मुड़ गये।

"मुझे माफ़..." अखिल के शब्द हवा में तैरते ही रह गए।

इस तरह अचानक सुमिता को सामने देखकर और उसकी बातें सुनकर अपने दागदार अतीत को याद करता हुआ अखिल अब अपनी बेटी की नज़रों का सामना कर पाने में असमर्थ था।


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