Ravikant Raut

Abstract Classics Inspirational

4.9  

Ravikant Raut

Abstract Classics Inspirational

ऐ छोरी ,ब्याह नहीं किया अब तक !!

ऐ छोरी ,ब्याह नहीं किया अब तक !!

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एक  महिला जब अपनी  उम्र के 35 वें पड़ाव पर ख़ुशी-ख़ुशी पहुंच रही हो,  और  वो स्वेछा से अविवाहित हो तो, उसे  इन जैसे सवालों का, ज़माने की नज़रों में उठने और उनसे बच पाने की तमाम  कोशिशें नाक़ाफ़ी पड़ने को, एक स्वाभाविक घटना मान स्वीकार लेना चाहिये । मैने भी मान लिया है, फ़िर भी सवालों के ये ऐयार  बार-बार नये रूप धरते, मेरा रास्ता रोकते खड़े मिलते हैं । मेरे अलावा सबको चिंता, कभी उन्हे लगता है मुझे लड़कों में कोई दिलचस्पी नहीं, या फ़िर मैं जैसे किसी दूसरे ग्रह से आयी हूं, जो बिना लड़कों के भी खुश रह सकती है । या सोचते हों मुझे शायद किसी नायक की तलाश है, बेधड़क, क़ातिलाना ख़ुबसूरत और मर्दानगी से भरा, कहते होंगे इसके लिये वो या तो पैदा नहीं हुआ या इसके भाग्य से पहले ही किसी और की डोर में उलझ गया है, अब इतनी देर भला कोई किसी के  इंतेज़ार में बैठा थोड़े ही रहता है ।

लड़कियां तो सभी शादी कर लेती है अब तक, फ़िर तूने क्यों नहीं की ?

दूसरी लड़कियां इमली, अमचूर, खट्टे बेर खाती, तू  क्यूं  नहीं खाती ।  “ ए तू लड़की नहीं है क्या ?  

अब खटाई का किसी लड़की से कोई जन्म जन्मान्तर का रिश्ता है क्या ? यदि ऐसा है तो उन लड़कों को क्या कहोगे, जो लड़कियों को सस्ते में फ़्लर्ट करने के लिये उन्हें हुमक-हुमक के चाट खिलाते हैं, और खुद भी लड़कियों से ज्यादा चट्खारे ले ले कर खाते हुए, देशभर में मिलने वाले चाटों और उनकी दुकानों पर अपने विश्वकोशीय ज्ञान का सागर उड़ेलते रहते हैं । यदि ख़टाई का स्त्री-तत्व से कोई सीधा रिश्ता है तो ऐसे लड़के या तो पूरे लड़के नहीं हैं, या फ़िर ये डार्विन के ‘क्रमिक-विकास’ के दौर से गुज़र रहे हैं या लैमार्क के ‘शारिरिक अंगों के अनुपयोगिता के सिद्धांत’ के रास्ते कोई नयी प्रजाति बनने के रास्ते पर अग्रसर हैं । वैसे पहनने-ओढ़ने, बोल-चाल में ज़नाना हाव-भाव और कभी सिर्फ़ औरतों को शोभने वाले बनाव-श्रृंगार को अपनाते, यूनी-सेक्स –स्पा में ‘होल-बाडी –वेक्सिंग’ कराते, न जाने किसके इस्तेमाल में आने के लिये, अपनी काया को कुंदन सा चमकाते, आजकल के  सो-काल्ड कूलएन्डकेरिंग कहलाते इन लड़कों को तो देख़कर लगता ही है कि ‘उत्परिवर्तन’ के दौर से गुज़रते लड़कों की वो ‘प्योर आदिम ब्रीड’ जल्द ही लुप्तप्राय हो जायेगी ।

“मेरे शुभचिंतक कभी ये सोच-सोच के दुख मनाते हैं,  शादी नहीं हुई तो पता नहीं क्या होगा मेरा ?  अरे इतनी भी फ़ुर्सत नहीं इस लड़की को, कि दो घड़ी रुक के अपने लिये सोच ले । फ़िर सोचते, ऐसा तो हो नहीं सकता कोई मिला न हो अब तक, अरे अच्छी खासी पगार है दिखने में माडल जैसी सुन्दर है, ऐसे में ये या तो अपनी अकड़ में ही बुढ़ा जायेगी या फ़िर कोई मीना कुमारी सिंड्रोम हो जायेगा इसे, दुःखों के प्रति शाश्वत आसक्ति और खुशी के मौकों को गंवाने वाली और फ़िर मुंह उतार के ज़माने भर की संवेदना की बाट जोहते, नये आभासी सुख के इंतज़ार में, सूनी आंखों खिड़की से बाहर ताकते रहने की लत लग जायेगी इसे । अरे शादी क्यों नहीं कर लेती, मुई ।

 

जिस कंपनी में मेरी नौकरी है, वो है तो मल्टीनेशनल, सारे स्मार्ट चाकचौबंध प्रोफ़ेशनल्स भर्ती किये हैं उसने, फ़िर भी दो ऐसे नमूनों को भी रख छोड़ा है, जो किसी सरकारी, जनपद, नगरपालिका या किसी तहसील के मटेरियल ज्यादा लगते हैं । इन्हें इन्हें भी यही चिंता है मेरी – ‘शादी क्यूं नहीं होती मेरी’ ।  नौकरी पर इन्हें  रखने का कंपनी का एक ही उद्देश्य हो सकता है, कि अपनी पूंजीवादी छवि  में प्रदर्शनात्मक सुधार कर, ख़ुद को ज्यादा समाज़वादी, लोकतांत्रिक और भारतियों का हितैषी दिखाकर ही प्रेम से भारत के बाज़ार को, लूट सकते हैं ।इन दोनों की भर्ती अपने कार्पोरेट आफ़िस में करना शायद इसी कड़ी का एक हिस्सा हो । ये दोनों ही अपनी-अपनी फ़ूहड़, कमअक्ल बीवियों के शौहर हैं, बेल्ट का बंधन तोड़ने को आतुर पेट पर झूलती बिना ‘इन’ की हुई शर्ट , पैरों में आलवेदर फ़्लोटर, बचर-बचर चबाते पान से लाल-पीले पड़ते दांत निपोरते, किसी भी औरत की चाह को भांप जाने और उनके मनोविज्ञान को पढ़ पाने में, फ़्रायड को भी पानी पिला देने दावा करते, हो-हो करते एक दूसरे की पीठ ठोकते, कारीडोर के उस हिस्से में बैठते थे, जहां से होकर स्टोर-डिपार्ट्मेन्ट को रास्ता जाता है . इनकी अपनी वैवाहिक  ज़िन्दगी में कोई सुख या शान्ति होगी ऐसा तो मुझे नहीं लगता ,

क्योंकि सुख तो उतना ही मिलेगा है जितना आप पुण्य करेंगे और शान्ति उतनी ही मिलेगी जितना घरवाली चाहेगी ।

कर्कशा बीवियों के मारे ये, फ़्रायड के रास्ते ही चल, नयी नयी फ़न्तासियां रच, अपनी कमतरी की भरपायी करते रहते हैं । किसी महिला को चाहे ये अकेले बस-स्टाप पे देखें, या अपने किसी पालतू को दुलारते, इसे ले के भी, ये फ़न्तासी की ऐसी पटकथा रचते और उसका ऐसा मौख़िक छायांकन करते कि यदि .एल.जेम्स भी सुने तो अवसाद में अपनी ‘फ़िफ़्टी शेड्श आफ़ ग्रे’ को चूल्हे में लगा दे और ख़ुद कहीं उंचे से छलांग लगा दे ।

अपने काम के सिलसिले में अक्सर मुझे उन दोनों की टेबल के बीच में से गुज़र के जाना होता है । न जाने क्यूं मुझे उनके पास से गुजरते हुए वहां की हवा में सरकारी आफ़िस के अनाथ गंधाते टायलेट और बोशिदा फ़ाइलों की टिपिकल मिली-जुली बू फैले होने का भ्रम होता है । पीठ पर से उतरती और अपने ज़िस्म की वक्र रेखाओं पर फिरती इनके नज़रों की लिज़लिज़ी उंगलियों को चित्रकारी करते मैंने कई बार महसूस किया है, जैसे न्यूड-पेंटिंग की विधा की अपनी विरासत सहेज़ने भार विख्यात पेंटर प्रोकाश कर्माकर  शायद इन्हें ही सौंप कर गये हों, या फ़िर ये दोनों अपने आपको एन्थोनी क्रिश्चियन और आगस्टी रोडिन का वंशज मानते हों उनकी अपनी कुत्सित कल्पनाओं के चित्रांकन के लिये ,किसी और के बजाय मुझे कैनवास बनाये जाने  का  जिम्मेदार भी ये मुझे ही मानते होंगेक्योंकि  इसकी एक ही वज़ह है, कि मैनें शादी क्यूं नही की अब तक ?

 मेरी एक शादीशुदा सहकर्मी हमेशा मेरे अब तक शादी करने के रहस्य को जानने मरी जाती हैवो इस बात को ले के परेशान रहती है, कि एकल रहते अपनी कायिक आवश्यक्ताओं के समाधान के लिये मेरे पास कौन-कौन से विकल्प उपलब्ध हैं, अलबत्ता उसकी मुझसे कुछ  पूछने की  कभी हिम्मत नहीं हो पायी, पर मेरे मुंह से कुछ भी सुनने की उसकी मन-मसोसती  उत्कट अभिलाषा  कभी छुपी भी नहीं एक दिन वो मुझसे कहने लगी, आज मैनें  मैट बेरी  को पढ़ापता है वो क्या कहता हैयदि तुमने किसी के साथ शादी करने की कभी सोची ही हो तो, तो उसके साथ बना तुम्हारा कोई भी सम्बन्ध कभी विवाहेत्तर सम्बन्ध कहलयेगा ही नहीं याने नो पाप, नो प्रायश्चित, नो एट्सेट्रा एट्सेट्रा….।  मुझे पता नहीं वो मेरा ज्ञान बढ़ा रही थी या मुझे उकसा रही थी  

आज़ शनिवार है,  कल लौटने में देर हो गयी थी, आफ़िस से छूटते ही, एक शादी में जाना पड़ गया था  मेरी शादी की चिंता में घुली जा रही, मां की ज़िद थीवो चाहती थी मैं रिश्तेदारी में दिखती तो रहूं, इस उम्मीद में कि शायद  किसी को देखकभी मेरा मन बदल जाये कहने लगी अरे दिल्ली में ही तो है फंक्शन, कोई तुझे चांद पे जाने को थोड़े ही कह रही हूं । मन मार के वहां इसीलिये चली गयी थी, ताकि मां के अन्तहीन प्रश्न श्रृंखला से बच जाऊं ।

वहां कुछ नौजवान दिखे जो मुझे जानते थे और मेरे अविवाह के निर्णय से परिचित और  दिग्भ्रमित से थे – उनकी नज़रों में भी वही सवाल था –

 ‘आखिर शादी क्यूं नही करती तुम’ ।

 वे  ज्ञान बघारने वाले नौज़वानों की उस भीड़ का हिस्सा थे जो स्वयं के बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाले  ‘पी जे’ छोड़ रहे थे, पी जे समझते हैं न आप “ पुअर जोक्स ” ।

 

--जानते हो औरतों को सेक्स ओब्ज़ेक्ट क्यूं कहते हैं –
क्यूंकि  ‘Whenever a woman is asked for sex , she objects .
 
 शादी की तरफ़दारी करते हुए दूसरा कहने लगा ,यार अरस्तू जैसा ज़ीनियस कह गया है – ‘ आदमी को शादी ज़रूर करनी चाहिये , ग़र शादी सफ़ल रही तो ज़िन्दगी  ख़ुशहाल, नहीं तो बंदे का दार्शनिक बनना ग़ारंटीड ।
 
पर sss याsssर …., तीसरा बीच में कूदा , ---- एक बार जब आइंस्टीन से किसी ने  पूछा – शादी करके ,क्या आप खुश हैं ?? इस पर उन्होनें कहा – ‘ मैं क्या कोई भी खुश नहीं रह सकता , क्योंकि आदमी ये सोच के शादी करता है कि औरत कभी बदलेगी नहीं ,और औरत अपने इस  विश्वास  के साथ शादी करती है कि इस आदमी को मैं जरूर बदल डालुंगी  , पर अंत में दोनों को अनिवार्यत:  निराशा ही हाथ लगती है ।’
 

सुबह से सिर भारी-सा था , सोचा आज़ दोपहर बाद सेंट्रल-प्लाज़ा में जा के कुछ शापिंग वगैरह निपटा के , हफ़्ते भर की ज़ेहनी –औ-ज़िस्मानी ग़र्द से निज़ात पाने कोई पुरसुक़ून सा स्पा लूं । स्पा सेन्टर में हेअर-सलून की लाइन में अपनी बारी का इन्तेज़ार करती शिप्रा पर मेरी नज़र पड़ी । शिप्रा याने मेरी ममेरी बहन , शादी-शुदा थी , अपने पति के साथ टोरंटो में रहती थी । जिसके साथ उसकी शादी हुई थी ,एक्चुअली वो बंदा पहले मेरा उम्मीदवार हुआ करता था । मेरे शादी न करने के निर्णय की भांप मिलते ही ,मामाजी ने  बिना देर किये  वो एन आर आई लड्डू लपक लिया । मामा पर मां का गुस्सा होना ज़ायज़ ही था , उनका मानना था , मामा ये हरक़त ना करते तो ,कुछ दिन की मोहलत मिल जाती , क्या पता मैं अपना निर्णय बदल लेती । हालांकि  मैं मानती थी , इस सब में शिप्रा का कोई दोष नहीं था , फ़िर भी तब से दोनों परिवारों के बीच एक अबोला सा पसर गया था । यही  कारण था कि एक ही शहर में मामा जी का परिवार और मेरे रहते हुए भी आना जाना बंद था , इसलिये शिप्रा के आने की खबर भी नहीं लगी । उसका मेग़्ज़ीन से सिर उठा तो हमारी नज़रें टकराई ।

‘अरे….  दी ! आप’ , वो उठ कर खड़ी होती हुई बोली ।

‘कैसी हो शिप्रा ??’ मेरी नज़र उसके फूले हुए पेट पर पड़ी , ‘कब आईं ’

‘जी , वो पंदरह दिन हो गये’

मैं समझ गयी , वो डिलेवरी  के लिये इंडिया आई है ।

 

स्पा में अभी हम दोनों की बारी आने में वक़्त था । वैसे हम दोनों में कोई दुराव नहीं था , पर खुल के कभी बात नहीं हो पाती थी , बस । आज़ भी वैसा ही असहज सा मौन पसरता देख मैंनें ही कहा , चल काफ़ी पीते हैं , और हम दोनों चुपचाप ‘काफ़ी-डे’ के काउंटर की ओर बढ़ चले । काफ़ी का मग़ हाथ में आने के बाद तक भी , हम में से कोई कुछ नहीं बोला , दोनों पहले से घुली हुई चीनी को स्ट्रा से बेमतलब घोलने का बहाना बनाते , झाग को डुलाते ,  ख़ामख़ाह की व्यस्तता दिखा रहे थे कि , वो अचानक बोली –

 

‘दी ….!! आप ने शादी क्यूं नहीं की , अब तक ।’

 

शायद मेरी उम्मीदवारी के लड़के से उसकी शादी हो जाने का अपराधबोध था उसे । शायद मेरी शादी ही उसके मन को भारमुक्त कर सकती थी , या कदाचित उसे लगता हो ,उसके पिता द्वारा रिश्ते को लपक लेने के अपराध का प्रायश्चित , मेरी शादी होने से हो जाये ।

 

‘दी ….!! बताया नहीं आपने ।’  मैं जैसे अचानक तंद्रा से जागी ।

कर लूंगी यार , ज़ल्दी ही । अच्छा ये बता , ‘बेबी’ कब आने वाला है तेरा , उसके पेट की तरफ़ निहारते हुए मैंनें कहा ,

वो समझ गयी , आज़ भी मैनें उसके सवाल को टाल दिया है । बिना कुछ बोले ,डबडबाई आंखों से वो परे देखने लगी ।

 

रविवार , सुबह छ: बजे मेरे सेलफ़ोन की घंटी बजी , दूसरी ओर पापा थे , ---‘मां आजी ’  नहीं रही ---आज़ सुबह ही साढ़े पांच बज़े ----

वो बोलते जा रहे थे , उसके बाद मुझे कुछ भी सुनाई आना बन्द हो गया , आंख़ों से आंसूओं की धार बह निकली ,ना कोई कंपन ,ना कोई हिचकी ,ना कोई रुदन , बस आसूंओं की दोनों लड़ियों के मोती ख़ामोशी से टूट-टूट कर मेरे कपड़ों में कहीं ज़ब्ज़ होते जा रहे थे , पापा का फ़ोन कब कटा ,उन्होंने आगे क्या कहा , कुछ पता नही । आंसूओं की बहती धार के बगल में बैठी मैं अतीत में खोने लगी । ‘मां आजी ’ – याने मेरी दादी , गांव में ही रहती , मेरी सबसे पहली सहेली । मेरी पैदाइश के वक़्त  पापा की नयी-नयी नौकरी लगी थी ,तन्ख़्वाह छोटी थी , मां और मुझे दादी के पास छोड़ वो पूना  आ गये थे , कुछ साल बीते, वेतन ठीक ठाक होने पर वो मां को भी साथ ले गये , वहीं मेरा भाई पैदा हुआ । मैं मां आजी  के पास ही रह गयी , उनके हाथों की बनी मीठी रोटी खाते , उनकी उंगली पकड़ स्कूल जाते धीरे-धीरे बड़ी होने लगी । उनकी गोद में सिर रखे , उनके चेहरे की एक-एक कर बढ़ती झुर्रियों को तकते ,परियों की कहानियां सुनते-सुनते, वो दिन भी आया जब मैंने अपना पहला रज़ोदर्शन किया । उस दिन मां आजी  ने मेरे मुंह में गुड़ का बड़ा सा टुकड़ा रखा , मेरे हाथों को थाम , अपने बगल से चिपका उसने पूरे दिन ज़माने भर की बातें की ,नसीहतें दीं, उस दिन उसने मुझे, मुझसे मिलवाया, उस दिन से हम अंतरंग सहेलियां बन गयीं थी । फ़िर  एक दिन मां पापा अचानक आये , मुझे शहर के अंग्रेजी स्कूल में दाखिले के लिये , मुझे मेरी सबसे प्यारी सहेली से छीन ले गये , मां आजी अपने से दूर जाते बछ्ड़े को टुकुर-टुकुर देखती गाय जैसी बेबस खड़ी देखती रही । वक़्त गुज़रता गया , मुलाकातों के बीच की दूरियां बढ़ती गयी , वो भी दिन आया ,जब उन्हें पता चला , मुझे शादी नहीं करनी , औरों की तरह उसने कभी नहीं पूछा , क्यूं ……..??? बस अपना लरज़ता हाथ मेरे सर रखा , आंखों में मैनें उनके हमेशा की तरह विश्वास पाया पिछ्ली ही गर्मियों की बात है , वहीं गांव में मेरे क़ज़िन की शादी में मां आजी से मिली थी , किसे पता था ये हमारी आख़्ररी मुलाक़ात होगी, मेरे सिर पर हाथ रख उन्होने कहा था , देख मेरा अब भरोसा नहीं किस दिन भगवान बुला ले , किसी को नहीं बताया मुझे भरोसा है , तू मुझसे कुछ नहीं छुपायेगी , बता दे लाड़ो , आख़िर क्यूं नहीं कर रही शादी तू मैनें हंसकर कहा था , मां आजी , दिवाली में आउंगी तो सब बताउंगी और मैं सच में उन्हें  सब सच बताने ही वाली थी कि आज ये ख़बर मिली , मुझसे वादा टूट गया था ,मेरी सबसे प्यारी मां आजी से , नहीं कभी नहीं , मैं उनका कभी दिल नहीं तोड़ सकती मैं उन्हें सब बताउंगी सच बताउंगी अचानक मैं अपने आपे में आयी , फ़टाफ़ट अपने आंसू पोंछे और अपनी कंपनी के हायर्ड ट्रेवल एजेंट को अपनी यात्रा की तफ़सील बता कर सारी व्यवस्था करने को कहा ।ज़ल्दी से अपनी छोटी-मोटी तैयारी कर , सोफ़े पर बैठी ही थी कि मेरा मन उड़कर  फ़िर से मां आजी के पास चला गया मैंने देखा मां आजी अपनी सफ़ेद धोती में नीचे गोबर लिपे फ़र्श पर चटाई में लेटी है मैं उन्हें पुकारा , मै समझ नहीं पायी , मेरे आने का पता उन्हें घेर कर बैठे लोगों को क्यों नहीं लगा , यहां तक कि मेरी आवाज़ भी उनके लिये अनसुनी क्यों रही पर आजी मां ने आंखे खोल दी , अपने ज़िस्म के खोल को वहीं फ़र्श पर पड़ा छोड़ वो हौले से उठ बैठी , मुझे पास बुला कर कहा , बता लाड़ो क्या बात है , अब मैं उन्हें वो सब बता रही थी , जो आज़ तक़ मैने किसी से नहीं कहा था उनका लरज़ता हाथ मेरे सिर पर था , मेरे ओंठ कह रहे थे , उनके कान सुन रहे थे , लेकिन ये सारा माज़रा  आस-पास बैठे लोगों की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता से परे था मैं कह चुकी तो मां आजी के चेहरे पर सुक़ून था ,उन्होनें मेरी पेशानी को चुमा और मेरा हाथ अपने हाथों में थामें हौले से वो उसी जग़ह लेट गई , मैनें देखा उनका वज़ूद हौले-हौले कपूर की मानिंद हवा में विलीन होने लगा , उन्हें मुक्ति मिल गयी थी , और मैं अपनी आत्मा को भारमुक्त कर चुकी थी।

अचानक मेरा सेलफ़ोन वाइब्रेट किया , स्क्रीन पर मेसेज़ चमका – “ ला कैब रीच्ड एट योर डोर स्टेप , मे

ज़ल्दी से सब समेट मैं टैक्सी के पास पहुंची , ड्राइवर दरवाज़ा खोले इन्तेज़ार कर रहा था , ट्रेवल एज़ेंट ने शायद उसे मेरे यात्रा की वज़ह बता दी थी इसलिये मुझे अकेला ही देख उसने पूछ लिया , मे आप अकेली ही ??, मेरा मतलबकोई और साथ …?? मेरे  इंकार करने पर , मैं जानती हूं उसके मन में भी वही शाश्वत सवाल चमका होगा कि …………???

 

दिल्ली पूना की फ़्लाइट में सीट की पुश्त से सिर टिकाये आंखें बन्द किये मैं सोच रही थी , मां आजी से तो मिल ही ली हूं मैं , ये तो बस  दिखावटी सफ़र है , हमेशा की तरह लोगों के मुंह बन्द रखने के लिये ।

 


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