गौरांगी

गौरांगी

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लंबे समय से बंद उस दरवाज़े को  ख़ोलने के लिये मुझे कुछ ज़्यादा ही ज़ोर लगाना पड़ रहा था ।  मेरे ज़ोर लगाने पर वो पुरानी चौख़ट एक बेबस  रिरियाहट के साथ अपने पल्लों को ख़ुद से छुड़ाये जाने का विरोध कर रही थी

“ईईई ……ऽआं……ईईईई”।

उसकी यह घुटी-घुटी सी दिल चीरती चित्कार मुझे स्मृति के गर्त में खींच ले गयी ।

 

सरकारी काम के सिलसिले में कुछ महीने पहले मुझे नोएडा जाना पड़ा था । काम के दिनों के बीच एक दिन का राष्ट्रीय अवकाश पड़ जाने के कारण गेस्ट-हाउस की बोरियत से बचने के लिये कहिये या इतने भीड़-भाड़ वाले इस शहर में अपरिचितों के बीच बेग़ानेपन का अहसास कहिये , मैंने अपनी दिमाग़ की डाइरेक्टरी के पन्नों पर से अपनी याददाश्त की उंगलियां फ़िराते वहां रहने वाले अपने  परिचितों के नाम ख़ंगालने शुरू किये । एक नाम पर आ कर उंगली रुक गयी , “मयंक कानिटकर” , मुझसे उम्र में कोई दस साल छोटा , मेरा क़ज़िन है , वैसे तो  मुझे भाई साहब क़हता है , पर कभी कभार मिलने पर एक आध पैग चुस्की का याराना है । आम मराठी मानुस से, उसे थोड़ा अलहदा इसलिये कहुंगा कि अपनी सामुदायिक परंपरा से  अलग जाकर , सफ़ेद-कालर नौकरी के बज़ाय उसने एक व्यवसायी बनने जैसा दुस्साहसिक निर्णय लिया था । कोई छ: साल पहले हुई उसकी शादी में मैं भी शरीक़ हुआ था ,             “ गौरांगी” उसकी पत्नी, उसके बचपन में उसका परिवार बरसों पहले मेरे ही मोहल्ले में रहता था , बरसों बीत गये थे मिले हुये । शादी में भी फ़ोटो ख़िंचवाने भर की मुलाक़ात थी , इसलिये उम्मीद नहीं थी कि वो मुझे पहचान पायेगी , मैं खुद भी उसका चेहरा याद करने की कई असफ़ल कोशिश कर चुका था । सुना था उनका एक बेटा भी है , उसके उम्र का अन्दाज़ा लगाते हुये , एक ख़िलौना गिफ़्ट-पेक करा लिया , साथ ही दिल्ली के तक़रीबन हर व्यस्त मार्केट के कोने पर मौज़ूद रहने वाली “अग्रवाल – मिष्ठान्न” से एक अच्छी सी मिठाई भी साथ ले ली ।

छ; साल पहले का ‘मयंक’ औसत निकलता क़द , खुलता रंग , सर पर हल्की-हल्की पड़ती गंज  और बस दौड़ पड़ने को आतुर किसी धावक की तरह , उसका वज़न भी बस एक इशारा पाने भर के इन्तज़ार में तैयार था । हंसमुख चेहरा , पतली फ़्रेम से झांकती चमक़दार आंखें, उसकी ज़िन्दादिली और आत्मविश्वास की साफ़ चुगली करती थी । शादी उसने अपने परिवार की पसंद से ही की थी  , पर नोएडा में बसने के उसके फ़ैसले के बाद से तो उसका अपनी रिश्तेदारी में महाराष्ट्र आना-जाना भी गाहे-ब-गाहे ही हो पाता था । वहां भी जैसा कि मैने अपनी मां से सुना है कि मयंक ही रिश्तेदारी निभाता है , उसकी बीवी तो मयंक के परिवार से बस समय-पूर्ती संबंध ही रख़ना पसंद करती है  । हो सकता है  , वो मयंक के परिवार वालों की तुलना में अपने रिश्तेदारों  को ज़्यादा सभ्य और संस्कारी मानती हो या फ़िर ख़ामख़ाह  अच्छी बहू कहला कर ससुराल वालों की चाकरी करने के मुसीबत कौन ओढ़े इस बात के मद्देनज़र वो ख़ुद को  सदा के लिये ऐसे झमेले से बचाये रखना चाहती है । पारिवारिक समारोहों या मयंक के  घर में उसके ऐसे रवैये से उपज़ी रिक्तता को पाटने की मंशा से मयंक का कभी-कभी कुछ  ज्यादा ही व्यवहारशील हो जाना , उसे कभी कभी बहुत ही असहज़ बना डालता था  ।  बेचारा सज़्ज़न था, परिवार के सभी सदस्यों के बीच एक सहज़ अपनेपन की चाह रखता था  , इसीलिये ऐसा करता था , पर उसकी बीवी को इन सबसे कोई वास्ता नहीं था , बल्कि वो तो जानबूझ कर ऐसी हरकतें कर देती थी  या अच्छे ख़ासे मौकों पर भी ऐसी बातें बोल देती , कि मयंक की आत्मा कचोट जाये    वो ज़ानती थी कि ये अपनी सज़्ज़नता यहां छोड़ नहीं सकता , बातें तो बुरी लगेगी ही उसे ,पर फ़िर भी वो बेचारा अंदर ही अंदर कचोट-कचोट जायेगा । इसके दो फ़ायदे मिल जाते थे उसे , एक तो पति के आत्म्विश्वास को कुचलने से मिला  पर-पीड़ा प्रेम  और इस बात की गारंटी से कि अपने सदा कुचले जाते आत्म्सम्मान के चलते मयंक कभी भी अपने पति होने के अधिकार दिखा उससे अपनी कोई  बात  मनवा नहीं पायेगा । ये सब देख-सुन , उसके सरल और स्नेही परिवार वाले भी उससे कोई अपेक्षा न रखते , हुआ भी यही था , मयंक का अपनी बेबसी से यूं शर्मशार होना जब उसके परिवार वालों से देखा नहीं गया तो , उन्होंने ही कह दिया था ,--’बेटा हमारी वज़ह से घर में कलह मत होने देना , हम तुझे चाहते हैं और तू हमें , यही काफ़ी है हमारे लिये’ ।

 जैसा कि अक़सर होता है , पारिवारिक समारोहों के समाप्त होते ही अपने-अपने घरों को लौटते लोग औपचारिकतावश कहते ही हैं , ‘कभी आओ हमारे यहां भी’, ‘अगली बार जब भी आओ जलगांव तो हमारे यहां ही रुकना’  ।  पर गौरांगी के मुंह से कभी नहीं निकला कि दिल्ली आना हमारे घर , बेचारा मयंक अपने छोटे भाई-बहन के आंखों में दिल्ली देख़ने के सपनों को मरते देख़ मन मसोस कर रह जाता । गौरांगी का मानना था –‘हमें इनकी और इनके गांव-शहरों की कौन सी गरज़ पड़नी है , पर दिल्ली जैसे शहर में तो लोगों को सैकड़ों काम पड़ते हैं, इन्हे ज़रा सी लिफ़्ट दे दें तो ये गले की हड्डी बन जायेंगे’ ।

टैक्सी-ड्राइवर को पते की स्लिप पकड़ाता , मैं पिछ्ली सीट पर पसर गया , मुझे पता था दिल्ली के ट्रेफ़िक में पहुंचने में वक़्त लगेगा । फ़ोन पर अपने आने की सूचना मयंक को सुबह ही दे दी थी , उसे आज़ किसी डेलीगेशन से मिलना था ,सो दोपहर बाद घर पर लंच पर मिलना तय हुआ था । आंख़ें मुंदे मैंने  ख़ुद को पिछले वक़्त में ख़ो जाने दिया ।

गौरांगी , जिसके  बचपन से जुड़े एक वाकिये को  मैं जानता था , बचपन में उसके पिता भी हमारी कालोनी में ही रहते थे , जिनका पड़ोसी मेरा एक  सह्कर्मी ‘खान’ हुआ करता था । जिन्हें हम दोस्त लोग  “बन्दूकची-ख़ान”/ “शिक़ारी-ख़ान” या कभी-कभी “चिड़ीमार-ख़ान” कहते थे । अपने जीव-जंतु पालने के अजीब शौक के चलते उस बार खान ने कहीं से पकड़ के लाये एक ‘कबरबिज़्ज़ू’ को भी पिंज़रे में रखा था । गौरांगी को पिंज़रे में कैद उस ‘कबरबिज़्ज़ू’ को कोंच-कोंच कर चित्कारने के  लिये मज़बूर करने में बड़ा आनंद आता था  । उस ‘कबरबिज़्ज़ू’ की दर्द भरी तड़प और पिंज़रे की परिधि में मर्यादित होने के कारण उसके बदला न ले पाने बेबसी ,गौरांगी को बार-बार ऐसा करने को उक़साती रहती थी । उस दिन तो वो और उसकी एक सहेली बहुत दु:खी हुई थी जिस दिन इनकी प्रताड़णाओं से तंग आकर उस बेचारे ‘कबरबिज़्ज़ू’ ने ज़ान दे दी थी , उसका मनोरंजन जो ख़त्म हो गया था । वो अपनी सहेलियों से कहती फ़िरी थी , बड़े ज़ल्दी मर गया , कितना मज़ा आता था ना उसकी बेबस दर्दीली कलप सुनने में , कैसे घूरता था ना , जैसे समूचा निगल जायेगा । पर ये बरसों पहले की बात है । बाद में उसके पिता का स्थानांतरण हो गया , फ़िर उनकी कोई ख़बर नहीं रही। मयंक की सगाई जिससे हुई है ,वो वही  गौरांगी है, इसका पता भी मुझे देर से चला था ।  

दिल्ली जैसे शहर में , मयंक  एक अच्छी की रहवासी कालोनी में ग्राउंड फ़्लोर पर एक डुप्लेक्स रखता है , यह देख़कर अच्छा लगा था । मेरी उंगली ने जैसे ही डोरबेल की बटन दबाई , दूर कहीं कोई तान छिड़ी , कुछ पलों का इंतेज़ार और दरवाज़ा खुला ,वो काम वाली बाई थी । उससे नज़र मिलते ही मैनें अपना परिचय दिया –

“मैं भास्कर  , नागपुर से”

“ज़ी , आप ही आये होंगे कर के बोला था मैडम ने” मेरे आने की पूर्व-अपेक्षा से उसने कहा ।                                          

 मेरी नज़र अंदर पहुंची , बाहरी दरवाज़े और भीतरी ड्राइंग-रूम के दिखते दरवाज़े के बीच एक छोटा सा बरामदा अपने को कस कर समेटे बैठा था  । जिसके एक कोने में शूज़-रेक से लगी दो मामूली फ़ोल्डिंग कुर्सियां पड़ी थी,जो शायद उन आगंतुकों के लिये थी जो अंदर ड्राइंग रूम में बिठाये जाने के क़ाबिल नहीं समझे जाते हों  । दिवार पर ठुकी एक छोटी रेक़ पर कुछ सामानों के अलावा कई बदरंग पड़ रहे ख़िलौने रख़े थे । एक हाथ से बरामदे का दरवाज़ा पकड़े  मुझे अंदर आने का रास्ता देते उसने अपनी नज़र  बरामदे ठंडी की फ़र्श पर ख़ेलती  एक नन्ही सी बच्ची पर टिकाये रखी थी । मेरी आंख़ें  भी उसकी  नज़रों का पीछा करती उस ओर उठी । उम्र बमुश्किल एक-डेढ़ साल , रेक पर रखे खिलौनो में से ही एक दिखता ख़िलौना पकड़े , और अपने में मग़न । कामवाली बाई की आंखों की ममता को देख कर ही लग गया कि ये बच्ची उसकी बेटी है, पर बेटी तो अपनी मां के आंखों से बरसते नेह की बारिश से बेखबर , कुछ घुटनों पर चलते कुछ पेट के  सरकते धीरे धीरे वो ड्राइंग-रूम के दरवाज़े के करीब पहुंचती जा रही थी ।

मेरे अंदर आते ही उसने दरवाज़ा भिड़ा दिया  और झुक कर उसने अपनी बेटी को गोद में उठाकर उसके गाल से अपना गाल दबा अपना प्यार ज़ताया । पर बेटी तब भी अपने हाथों में कसकर पकड़े ख़िलौंने में ही व्यस्त थी । मां ने उसे उठाकर ड्राइंग-रूम के दरवाज़े से दूर , ज़ूतों की रेक़ के पास बिठा दिया , कदाचित बच्ची को कालीन बिछे ड्राइंग रूम में आये जाने की इज़ाज़त नहीं थी ।

मुझे बैठने को कह वो अपनी मालकिन को मेरे आने की सुचना दे , अपने काम पर लग गयी । ठीक-ठाक संपन्न्ता दिख़ाता ड्राइंगरूम था । जिस सोफ़े पर मैं बैठा था उसकी पुश्त ड्राइंग रूम के बाहर बरामदे में ख़ुलते दरवाज़े की ओर था । कुछ ही देर में गौरांगी एक ख़ुबसूरत ट्रे में पानी का गिलास लिये प्रगट हुई ।

“नमस्ते भाई साहब , दिल्ली में क़ब से हैं ??

मैं कुछ उठने को हुआ , पर अपनी उम्र वरीयता के लिहाज़ ने मुझे ऐसा करने से रोक़ दिया लिहाज़ा सिर्फ़ पहलु बदल कर रह गया । मेरे उत्तर देने के पहले ही उसने दूसरा सवाल दाग़ दिया ।

“और कब तक़ रहेंगे , दिल्ली में” , ठहरें कहां हैं ??

 पानी का गिलास मेरे सामने रख़ते हुए ,उसने दूसरा सवाल किया । प्रश्न का यह टुकड़ा भी पहले प्रश्न की छिपक़ली की टूटी फ़ड़फ़ड़ाती पूंछ ही थी , लहज़ा भी ऐसा ही था कि इससे उसकी ज़िज्ञासा नहीं वरन उसकी बेसब्री दिख़ रही थी । उसकी आंख़ों में मेरे ज़ल्द उत्तर का बेचैन इंतेज़ार  ,साफ़ दिख़ रहा था , कि कहीं ऐसा न हो कि अपने इस प्रवास काल में मैं उन पर अपनी मेहमानी का बोझ डाल दूं , जो उसे  सख़्त नापसन्द है ।

“तीन दिनों से हूं यहां , दो दिन का काम और बाकी है   , अपनी कंपनी के गेस्ट-हाऊस में ही ठहरा हूं ,वहां से मेरा आफ़िस भी सुविधाज़नक़ दूरी पर है।“  मैनें ट्रे पर से गिलास उठाते हुए एक ही सांस में कह दिया।

पूंछ की फ़ड़फ़ड़ाना रुक गया । “ ओ…ह !!”

कानों की श्रवण सामर्थ्य से परे, पर दिल की गहराईयों से महसूस किये जा सक़ने वाली एक इंफ़्रासोनिक़-ध्वनि तरंग के साथ उसकी  इत्मिनान भरी नि:श्वास का अनुभव मैंने किया । उसके चेहरे का घटता तनाव मैं साफ़ महसूस कर सक़ता था । पानी का एक घूंट भरकर गिलास वापस ट्रे में रख़ता , मैने उससे पूछा –

“बेटा कहां है ?? , काफ़ी बड़ा हो गया होगा अब तक़ तो , नाम क्या रख़ा है ?? ” मिठाई का पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए और बातचीत का सिलसिला न टूटने देने की ग़रज़ से  मैनें पूछा ।

“अजिंक्य” !! , पांच साल का है , स्कूल से आता ही होगा बस” , उसने घड़ी की तरफ़ निगाह डालते हुए कहा ।

दीवार पर लगे एल सी डी को आन कर , उसने रिमोट मेरी ओर सरकाते हुए उसने कहा – “मैं क़ाफ़ी ले कर आती हूं”

टी वी पर आती ज़ाती परछाईयों , रंगों के संयोज़न-नियोजनों से विरक़्त हो , मैं टेबल पर पड़ी पत्रिका के पन्ने पलटने लगा ।

“काफ़ी…………” – उसने प्याला मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा ।

 “तुम नहीं लोगी ??” एक ही कप देख़कर मैनें पूछा ।

“मैं हर कभी ,हर कहीं नहीं पीती  ……सुबह और शाम एक-एक बार बस । आप तो लो … मैं लंच का देखती हूं”

“हां … , वो मयंक का फ़ोन आया था कुछ देर पहले वो लंच तक नहीं आ पायेंगे , उन्होंने कहा था , आप को समय पर लंच करा दूं ।“

काफ़ी पीते एक बात मुझे कचोट रही थी ,कि इसने मुझसे  मेरे पत्नी-बच्चों , और तो और उसकी बचपन से परिचित मेरी मां के बारे में भी कुछ नहीं पूछा था अब-तक़ । काफ़ी ख़त्म होते-होते डोर-बेल का संगीत गूंजा । गौरांगी अंदर से निक़ल कर दरवाज़े की ओर बढ़ती हुई बोली  , “अजिंक्य आ गया” । दरवाज़ा खुलने की आवाज़ पर मैनें भी सिर घुमाकर पीछे देख़ा ,   पांच-छ: बरस का एक बालक दिखा , गोरा-नारा , सदा चिप्स-स्नैक्स को साफ़्ट-ड्रिंक्स से गटकते रहने के आदी आज़कल के बच्चों  सा , जिन पर श्रम के आभाव और मां बाप के वैभव की छाप साफ़ झलक रही थी । मां ने उसके कंधे से बेग लिया , अजिंक्य को देख कामवाली की उस बच्ची ने उसे पहचानने के भाव से खुश हो कर ज़ोरदार किलकारी मारी , पर उसके इस मासूम स्नेह को अनसुना अनदेखा करते ,उसके वज़ूद को नकारते  दोनों मां बेटे अंदर आ गये । मुझसे नज़र मिलते ही अजिंक्य ने सवालिया निगाह से अपनी मां की ओर देखा ।

“ये पापा के दोस्त हैं ,नागपुर से दिल्ली टूअर पर आये हैं ”। बज़ाय इसके कि मेरा उनसे कोई रिश्ता भी हो सकता है , उसने सपाट लहज़े में बताया ।

“हलो , मैने दोस्ताने लहज़े में कहा ,और उसे गोद में उठा लिया , एक हाथ से उसे अपने लाये हुए ख़िलौने का गिफ़्ट देते हुए उससे पूछा – “बेटे कौन सा खेल पसन्द है तुम्हें” ।

“फ़ुटबाल – साकर……… एंड थैंक्स फ़ार दिस” ।

मैनें आश्चर्य से उसका शरीर देख़ा और उसका भारी वज़न महसूस करते हुए पूछा -“अच्छा !! कहां ख़ेलते हो”

“कंप्युटर पर”- उसने उतनी ही सहज़ता से उत्तर दिया ।

“चलो नीचे उतरो , बहुत हुआ , जा कर हाथ मुंह धोकर आओ” – गौरांगी ने कहा तो यही था ,शायद , पर मुझे उसके लहज़े से ऐसे सुनाई आया – “ बहुत हुआ , चलो उतारो नीचे”।

मुंह हाथ धोकर अजिंक्य भी खाने की टेबल पर आ गया , मुझे भी टेबल पर आने का न्यौता मिला । कामवाली ने जल्द ही मेज़ पर खाना लगा दिया  था । खाने का पहला कौर ही तोड़ा था कि अजिंक्य ने कहा -“अंकल , पता है हमारे स्कूल में हमें संस्कृत में श्लोक भी सिखाते हैं ।

“अच्छा !!”- मैं भी चकित था , भला इन कान्वेट वाले कब से संस्कृत के टीचर्स भर्ती करने लगे और पढ़ाने लगे हैं ।

“कौन पढ़ाता है आपको संस्कृत”-मैनें जानना चाहा

“इंग्लिश की सिस्टर “ – उसने कहा

“अच्छा, कोई श्लोक सुनाओ”- मेरा कुतुहल स्वाभाविक था  ।

“ढरम शेट्रे कुड़ू शेटरे, साम वेटा यो यो ट्सवा”

वो कौर जो मैंने बस निगला ही था वो मेरे गले में फ़ंस गया , मुझे जोर का ठसका लगा , वो बेचारा ये कहना चाह होगा

“धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः”

“अंकल और सुनाऊं ?” मेरे जवाब देने से पहले ही वो शुरु हो गया । उस  श्लोक को कुछ ऐसा होना था

“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत”

पर वो हो कुछ ऐसा गया –“ यडा यडा ही  ढरमस्या ………”

“चुपचाप अपना खाना ख़त्म करो” गौरांगी ने दहाड़ते हुए कहा । बेचारे की बोलती बंद हो गयी और मैनें भी कोई फ़रमाइश न करने में ही अपनी भलाई समझी ।

टेबल पर खाना लगा देना ये शायद उस कामवाली बाई का  सुबह का  आख़री  काम था ,वो हाथ पोंछती , मालकिन की अनुमति की प्रतिक्षा में थी कि  इतने में उसकी नज़र रेंग कर ड्राईंग रूम की कालीन पर आ बैठी , ख़िलौने को अपनी छाती से भींचे ,अपनी बेटी पर पड़ी , अचानक वो लपकी और बेटी को गोद में उठा लिया , मेरा अंदाज़ा सही था , बच्ची का अंदर आना ,मालकिन को नागवार था , गौरांगी की घूरती आंखों ने इस बात की तस्दीक कर दी थी , पर मेरी मौज़ूदगी का लिहाज़ कर शायद वो गुर्रायी नहीं थी । अपने अपराध-बोध में कामवाली ने जाते-जाते बच्ची के हाथ से ख़िलौना छीनकर उसे रोज़ की तरह अपनी जगह रखने के कोशिश की  , पर उसकी बेटी की उसे न छोड़ने की ज़िदभरी चित्क़ार   मुझे अंदर तक चीर गयी । ऐसा क्या घट जाता उस घर का , यदि एक बदरंग , बेकार ख़िलौना कम हो जाता उस घर से , बच्ची के चेहरे पर एक मुस्कान ही आ जाती अगर,  पर शायद नहीं , ऐसी कोई गुंज़ाइश वहां हो ही नहीं सकती थी । बच्ची के रुदन

“मां……ईईई ……ऽआं……ईईईई”

ऐसी ही थी ये रिरियाहट भी ,पर उन  पल्लों को भी आख़िरकार मैनें  दरवाज़े की चौखट से छुड़ाकर अलग कर ही दिया था ।


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