Minni Mishra

Drama

4.4  

Minni Mishra

Drama

अहिल्या

अहिल्या

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 “माँ, कहानी सुनाओ ना।” बेटा माँ से मनुहार करने लगा।

“अरेसो जा , बहुत रात हो गई। सबेरे तुझे स्कूल भी जाना है।”

“ सबेरे स्कूल ? माँ, कल रविवार है ! ओह! तुमको कुछ याद नहीं रहता ! मुझे ना तो कल पढाई की चिंता है और ना ही होमवर्क की ! तुम्हारे पास कहानी का खजाना है। रामायण, महाभारत, पुराण को खोलकर तुम हमेशा उसमें डूबी रहती हो। जल्दी से एक मजेदार कहानी सुनाओ।”

“ बड़ा हठी है।कहानी सुने बिना तू सोयेगा नहीं ! ठीक है, सुनाती हूँ। ध्यान से सुन ,

प्राचीन काल की बात है, ‘गौतम ऋषि’ न्याय दर्शन के महान विद्वान माने जाते थे। मिथिला के ब्रह्मपुरी में उनका निवास स्थान था। उस समय मिथिला के राजा ‘जनक’ थे। राजा जनक प्रकांड विद्वान तथा बीतरागी थे। इसलिए गौतम को जनक ने अपना कुलगुरु बनाया था। गौतम की पत्नी का नाम ‘अहिल्या’ और पुत्र का नाम ‘सदानंद’ था। अहिल्या अतिसुन्दर, व्यवहार कुशल और कर्मठ महिला थीं। दोनों पति-पत्नी सुखपूर्वक जीवन यापन कर रहे थे। गौतम की उत्कट इच्छा थी कि वह न्याय दर्शन की एक विद्यापीठ की स्थापना करें। जिसमें देश-विदेश से बच्चे आकर अध्ययन का लाभ उठा सके। अहिल्या की भी यही इच्छा थी कि उसके पति के द्वारा एक विद्यापीठ स्थापित हो जाय। और ऐसा ही हुआ, विद्यापीठ की स्थापना हो गयी।

विद्यापीठ के उद्घाटन समारोह का आयोजन हो रहा था। राजा जनक और देवताओं के राजा, इन्द्र भी उसमें पधारे | अनेक गणमान्य लोगों के बीच समारोह सम्मानित हो रहा था। अतिथिगण के ठहरने और खाने का भी उत्तम प्रबंध था। समारोह सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।रात हो गई थी। सभी लोग भोजन करने के बाद सोने चले गये |

गौतम और अहिल्या भी थककर विश्राम करने लगें | लेकिन, देवराज इन्द्र को चैन नहीं था। क्योंकि, देवता होने के उपरांत भी वो कामुक विचार के थे। अहिल्या की सुंदरता और निश्छलता को देखकर वह मोहित हो गये। इसी मोहपाश में फंसकर, उन्होंने मेहमानी का नाजायज फायदा उठाने का निश्चय किया और रात के स्याह अँधेरे में उसने छल पूर्वक अहिल्या का शीलहरण कर लिया।

यह बात जंगल की आग की तरह फ़ैल गई और चारों ओर दुष्कर्म की निंदा होने लगी। इसी बीच देवराज इन्द्र वहाँ से रातों-रात भाग निकले | लेकिन भागते-भागते उन्होंने उल्टे अहिल्या पर ही झूठा लांछन लगाया ‘कि अहिल्या की सहमति से उसने ऐसा करने का दुस्साहस किया। ‘ चूँकि, देवराज इन्द्र सर्व शक्तिमान थे, इसलिए उनसे प्रतिवाद और प्रतिरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। यहाँ तक कि राजा जनक भी कुछ नहीं कह सके ! सब कुछ जानकर भी वो चुप रहे ! “

“माँ, धर्म की आड़ में अनाचार का बढाबा ?! ऐसे धर्मात्मा या न्य्याविद कहलाने से क्या फायदा, जो अनाचार के प्रति आवाज ना उठाये !? उनलोगों को तो खुलकर विरोध करना चाहिए था। न्यायपीठ के अंदर अन्याय हो रहा हो और सभी धर्माचारी चुप्पी साध लें !यह कैसा न्याय ?! “किशोर बेटे ने झुंझलाकर बोला।

“अरे बेटा, आगे तो सुन। फिर सब सही से समझ में आ जाएगा।” माँ के चेहरे पर दिव्य आभा झलक रही थी। शांत भाव से वह आगे सुनाने लगी “गौतम और अहिल्या के सपने पर तो मानो कुठाराघात हो गया ! अहिल्या के कथित धर्म भ्रष्टता के कारण गौतम समाज की नजरों में अब इस लायक नहीं समझे जाने लगे कि वह विद्यापीठ का नेतृत्व कर सके ! इसलिए गौतम को अहिल्या का साथ देना, उस समाज की नजरों में भीषण दोष माना जाने लगा ! अहिल्या बेहद उदास रहने लगी ! उसको अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा ! उन्हें यह बात बहुत अधिक कचोटती थी कि उसके ही कारण, पति का न्यायपीठ बनाने और उसे स्थापित करने का सपना धाराशायी हो गया। 

बेटा, अब तू ही बता, ये सारे विचार अहिल्या की पतिव्रता और कर्तव्य निष्ठा के परिचायक ही हैं ना ? बेटा निःशब्द माँ को देखता रहा।

“अब, और सुन। इतना होने के बावजूद भी गौतमअपनी पत्नी अहिल्या को निष्कलंक तथा निर्दोष समझते रहे। इसलिए तो सामाजिक बहिष्कार और प्रताड़ना के बाबजूद, गौतम ने अहिल्या का साथ देने का निश्चय कर लिया और देवराज इन्द्र को उनके अपराध की सजा देने हेतु वह दृढ़प्रतिज्ञ हो गए। 

इस बात की जानकारी होते ही अहिल्या बेचैन हो गई।तब जाकर अहिल्या ने निश्चय किया कि वह पति तथा पुत्र को सदा के लिए अपने से दूर, मिथिला की राजधानी भेज देगी और यहाँ अकेली स्वयं तपस्या में लीन हो जायेगी | जिससे विद्यापीठ स्थापित होने में कोई सामाजिक अड़चन नहीं आएगी। तभी जाकर गौतम के लिए विद्यापीठ का नेतृत्व करना संभव हो जायेगा और साथ-साथ पुत्र की शिक्षा-दीक्षा भी पूरी हो जायेगी | अहिल्या ने उसी क्षण ऐसा करने का प्रण ले लिया। उसने विद्यापीठ और परिवार की शांति के लिए अपने शेष जीवन को तपस्या में लीन कर लेना उचित समझा। गौतम इस बात का पुरजोर विरोध करते रहे और अहिल्या से बारम्बार मनुहार करने लगे ”तुम हमदोनों को छोड़कर मत जाओ।”

पर, गौतम के लाख मनुहार करने के बाबजूद, अहिल्या ने यह बात

 ‘गौतम राजधानी में विद्यापीठ का नेतृत्व करते हुए संचालन करेंगे और अहिल्या अकेले परित्यक्ता की तरह जीवन यापन करते हुए तपस्या करेगी।‘

को आख़िरकार गौतम से मना ही लिया। अहिल्या के प्रण के आगे गौतम नतमस्तक हो गये। एक स्त्री जब कुछ ठान लेती है तो वह करके ही दिखाती है।

अहिल्या एक परित्यक्ता स्त्री की तरह समाज से अलग-थलग, शिलावत होकर अकेली भगवद भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करने लगी |

इधर गौतम ऋषि , मिथिला की राजधानी में न्यायविद्यापीठ का सञ्चालन करने लगे।  उनके विद्यापीठ और विद्वत्ता के प्रताप का डंका सम्पूर्ण भारत में बजने लगा। विद्वत परिषद् की बैठक में गौतम ने यह निर्णय किया कि अब से मिथिला में देवराज इन्द्र की पूजा नहीं होगी। उस समय मिथिला का ही व्यवहार सम्पूर्ण भारत में मान्य था। देवराज इन्द्र की पूजा सम्पूर्ण भारत में बंद हो गयी। भारत के सनातन धर्म में देवराज इन्द्र इस प्रकार बहिष्कृत हो गए ! अहिल्या के साथ किये गए अपराध के लिए देवराज इन्द्र को गौतम ने यह भीषण सजा दिलवाई

इधर दिन, सप्ताह, महीने, बर्ष बीतते गए। अहिल्या को कुछ भी भान नहीं होता था। वह अपनी तपस्या और दिनचर्या में लीन होकर स्थितप्रज्ञ, पत्थर सामान हो गयी थी। 

दीर्घकाल के बाद, श्रीरामजब अपने भाई लक्ष्मण के साथ ,गुरु विश्वामित्र के निर्देशन में मिथिला जा रहे थे, तब गुरु द्वारा अहिल्या के दुखद वृतांत को सुनकर श्रीराम उनके आश्रम में गए। अहिल्या का पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया तथा उनके हाथ से जल लेकर श्रीराम ने पान किया।

भारत का सर्वश्रेष्ठ सूर्यवंशी महाप्रतापी राजा ‘दशरथ’ का ज्येष्ठ पुत्र ‘ श्रीराम’ श्रेष्ठ्तम धनुर्धर तथा अनेक राक्षसों का संघारक ने अहिल्या को सम्मान और स्वीकार्यता प्रदान किया | इस तरह अहिल्या की तपस्या सफल हुई और श्रीराम के प्रयास से अहिल्या को अपने एकाकी जीवन से त्राण मिला। पति गौतम और पुत्र सदानंद के साथ, पूर्व की भांति वह फिर से प्रसन्नतापूर्वक रहने लगी। “

इतना कहते-कहते, माँ का गला रुंध गया , आँखें भर आई।  

 माँ के दैदीप्यमान चेहरे और नम आँखों को अचरज भरी नजरों से बेटा निहारने लगा। वह भावुक होकर बोला, “माँआज मैं अच्छी तरह से समझ गया कि नारी को ‘शक्ति स्वरूपा’ क्यों कहा जाता है !

सुनते ही माँ की आँखों से अमृत रस झरने लगे।नन्हें शिशु की भांति उसने बेटे को अपने छाती से चिपका लिया। माँ-बेटे की आँखें सपनों के सुनहरे संसार में कब विचारने लगे समय को भी पता नहीं चला !


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