STORYMIRROR

Ashish Kumar Trivedi

Inspirational

3  

Ashish Kumar Trivedi

Inspirational

अधूरी बाज़ी

अधूरी बाज़ी

4 mins
470

मेरे सामने मेज़ पर शतरंज पड़ा था जो एक बाज़ी के अधूरे रह जाने की गवाही दे रहा था।

मैं अभी भी जतिन दा की उपस्थिति को महसूस कर सकता हूँ। वो पूरे उत्साह के साथ मुझे हरा देने का दावा कर रहे हैं। शतरंज पर पड़े मोहरे उनके स्पर्श को आकुल प्रतीत हो रहे हैं जैसे वे भी उनकी तरह मुझे हराना चाहते हों।


जतिन दा मेरे मौसेरे भाई थे। उम्र में मुझ से कुछ ही महीने बड़े थे किंतु उनका मेरे प्रति प्यार एक बड़े भाई की भांति था। इसीलिए मैं उन्हें जतिन 'दा' कह कर बुलाता था। वैसे हमारी मित्रता कॉलेज के दिनों से आरम्भ हुई थी। हम साथ साथ घूमते, फिल्में देखते खूब मस्ती करते थे। उन दिनों हमारे भीतर बहुत जोश था। हम अक्सर राजनीति, धर्म, सामाजिक कुरीतियों पर गर्मागर्म बहस करते। हममें उन दिनों बहुत कुछ बदलने का जुनून था।


उन्हीं दिनों मुझे एक नया शौक लगा था। फोटोग्राफी का। मैं अपना कैमरा लेकर निकल जाता और जो कुछ पसंद आता उसकी तस्वीर खींच लेता। वैसे उन दिनों तस्वीरें खींचना आज के जैसा नहीं था। इधर तस्वीर खींची और स्क्रीन पर देख लिया कि कैसी आई है। तब तो जब तक निगेटिव डेवलप नहीं होकर आता था बस कयास ही लगा सकते थे। कई बार तो जिस तस्वीर के लिए सबसे अधिक उत्सुक होते थे वही खराब निकल जाती थी। तब बस कोफ्त होता था। पर जतिन दा जब मेरी खींची तस्वीरों को देखते तो कहते कि "तुम्हें फोटोग्राफी की अच्छी समझ है। इसे छोड़ना नहीं।"

हँसते खेलते ना जाने कब कॉलेज के दिन ख़त्म हो गए। कॉलेज की पढ़ाई के बाद हम दोनों ज़िंदगी की जद्दोजहद में फँस गए। उसके बाद घर गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ आ गईं। अब जीवन में वो बेफ़िक्री नहीं रही थी। समय के साथ साथ सारे शौक भी समाप्त हो गए थे। हम दोनों भी अब यदा कदा किसी रिश्तेदार की शादी में मिलते थे या साल में एक आध बार एक दूसरे को चिट्ठी या कोई कार्ड भेज देते थे। हमारे बीच अब यही संपर्क था।


दो वर्ष पूर्व हमारी दोस्ती की दोबारा शुरुआत तब हुई जब जतिन दा ने भी उसी बिल्डिंग में फ्लैट ख़रीदा जहाँ मैं रहता था। हम दोनों ही अवकाश प्राप्त थे और अकेले थे। किंतु मेरी मानसिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अपनी इकलौती संतान की मृत्यु का दर्द मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। हालांकि जतिन दा भी अकेलेपन से जूझ रहे थे किंतु उन्होंने जीवन से हार नहीं मानी थी। 68 वर्ष की उम्र में भी उनके भीतर एक जुझारूपन था। उनके इसी उत्साह ने जीवन के उस कठिन दौर से बाहर निकलने में मेरी सहायता की।

हम रोज़ सुबह टहलने जाते, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर बहस करते। अक्सर हम फिल्म देखने या बाहर खाना खाने भी जाते थे। मेरे पीछे छूट चुके फोटोग्राफ़ी के शौक को फिर से जीवित करने का श्रेय भी जतिन दा को ही जाता है। उन्होंने ही मुझे मेरा नया निकोन का कैमरा दिलाया। सबसे पहली तस्वीर मैंने उन्हीं की खींची। उसे देख कर चहकते हुए बोले थे।

"देखो आज भी मैं कितना हैंडसम लगता हूँ। " 

मैंने उस तस्वीर को फ्रेम करा कर उन्हें भेंट कर दिया। जिसे उन्होंने उस दीवार पर टांग दिया जहाँ हम शतरंज खेलते थे।


शतरंज हमारे इस रिश्ते की एक मज़बूत कड़ी थी। रोज़ दोपहर ठीक चार बजे जतिन दा मेरे फ्लैट की घंटी बजाते थे। मैं कॉफ़ी तैयार रखता था। कॉफ़ी पीते हुए हम गपशप करते थे फिर उसके बाद जमती थी शतरंज की बाज़ी। जब भी वे मुझे अपनी किसी चाल में फंसा लेते थे तो बहुत उत्साहित होकर कर कहते थे।

"अब बच कर दिखाओ।" 

या जब कभी स्वयं मेरी किसी चाल का तोड़ निकालते तो ख़ुशी से उछल पड़ते 

"देखा ऐसे निकलते हैं चाल से।"


परसों भी ठीक चार बजे उन्होंने फ्लैट की घंटी बजाई। हमने कॉफ़ी के साथ गपशप की फिर शतरंज खेलने बैठे। पिछली दो तीन बाजियाँ मैंने जीती थीं। जतिन दा ने पूरे उत्साह के साथ मुझे चुनौती दी।

"देखना आज की बाज़ी तो मेरे ही नाम होगी।" 

हमारा खेल बहुत रोमांचक स्थिति में था। मैं अपनी चाल सोच ही रहा था कि मैंने देखा जतिन दा अपना सीना पकड़े हुए हैं। वे पसीने से तर थे। मैंने फ़ौरन उन्हें बिस्तर पर लिटाया और एम्बुलेंस को फोन किया। किंतु कोई फ़ायदा नहीं हुआ। जतिन दा जा चुके थे।

अक्सर शतरंज खेलते हुए जतिन दा कुछ दार्शनिक भाव से कहते थे।

"ये जीवन भी शतरंज की बिसात है जिस पर हम सब नियति के साथ खेल रहे हैं। नियति अपने मोहरे इस प्रकार चलती है कि कभी कभी हम उसकी चाल में फँस कर रह जाते हैं। यदि उसकी चाल से बाहर निकल आते हैं तो खुश होते हैं यदि न निकल सके तो दुःखी होते हैं। ऐसे ही सुख और दुःख के बीच जीवन चलता रहता है। फिर एक दिन नियति अचानक ही हमारा खेल समाप्त कर देती है और हम यूं ही बाज़ी को छोड़कर चले जाते हैं।"


जतिन दा को भी नियति ने मात दे दी थी। किंतु जीवन को सम्पूर्णता से जीने की सीख जो उन्होंने मुझे दी थी वो मेरी आखिरी सांस तक मेरे साथ रहेगी। जीवन में एक बार फिर मैं तन्हा हो गया हूँ किंतु इस बार टूटूंगा नहीं। मैंने दीवार पर लटके जतिन दा के चित्र को देखा फिर अपना कैमरा लेकर निकल पड़ा जीवन के बहाव की तस्वीरें लेने के लिए। 



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational