निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

5.0  

निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

अच्छे श्रोता बने, वक्ता नहीं

अच्छे श्रोता बने, वक्ता नहीं

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अच्छी तरह बालों को खुशबूदार शैम्पू से धोकर कंडीशनिंग भी किया,फिर बाहर आकर अच्छी तरह बालों को संवारने में जुट गया। आज महत्वपूर्ण दिन था , एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर के पद हेतु 'ग्रुप डिस्कशन' और 'साक्षात्कार' था। बड़ी मुश्किल से एक कठिन लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात यह अवसर मिला था तो जी जान से जुटना था इस अंतिम पड़ाव को पार करने हेतु। 

बढ़िया नए खरीदे फॉर्मल कपड़ों में, पैंट बिल्कुल सलीके से क्रीज़ की हुई और शर्ट पैंट बिल्कुल कंट्रास्ट रंगों के , ऊपर से मैचिंग टाई। एकदम जेंटलमैन का रूप धारण कर लिया था। अपने मार्कशीट और अन्य दस्तावेजों की फ़ाइल फिर से एक बार चेक किया, काले रंग के चमचमाते बूट के साथ मैं बिल्कुल तैयार था " ग्रुप डिस्कशन " के लिए !

कुछ करंट अफेयर्स के विषयों के बारे में जानकारी ले ली थी ,साथ ही विज्ञान और तकनीकी के कुछ नवीन अन्वेषणों के बारे में भी पढ़ लिया था जिनकी काफी संभावनाएं थी की 'ग्रुप डिस्कशन' के "हॉट टॉपिक्स" होंगे।

पूरी तैयारी के साथ समय पर साक्षात्कार केंद्र पहुंच गया। कुल 40 प्रतिभागी चयनित हुए थे इस अंतिम पड़ाव के 10 रिक्त पदों हेतु, अर्थात 1:4 का अनुपात। एक रिक्त पद हेतु 4 उम्मीदवार थे , जिन्हें दो चरणों अर्थात ग्रुप डिस्कशन एवं निजी साक्षात्कार के पश्चात सेलेक्ट किया जाना था।

ग्रुप डिस्कशन हेतु कुल 4 टीमें बनाई गयीं , 10 प्रतिभागी हर एक टीम में जिनमें से हर टीम से आधे सदस्य निजी साक्षात्कार यानी पर्सनल इंटरव्यू हेतु सेलेक्ट किये जाने थे।

टीम क्रमांक 2 में, मैं बतौर सदस्य नामित हुआ। और बाकी अन्य 9 सदस्यों के साथ अंदर कॉन्फ्रेंस हॉल में जा बैठा। बाकी अन्य 9 प्रतिभागी भी मेरी तरह बिल्कुल जेंटलमैन अवतार में नज़र आ रहे थे। सभी सूट बूट धारी प्रतिभागियों के बीच उत्सुकता उनके  चेहरे पर दर्शनीय थी। जाने क्या विषय होगा डिस्कशन का। चिंता की लकीरें माथे पर विदित थी सबकी। सिवाय एक प्रतिभागी के जो शांत चित्त, एकदम 'कूल मुद्रा में निश्चिंत भाव से मंद मुस्कान लिए सभी प्रतिभागियों का एक एक कर निरीक्षण किये जा रहा था। अचानक हम दोनों की नज़रें मिली और दोनों बेबस मुस्कुरा दिए। जाने क्यों वो प्रतिभागी बाकियों की तुलना में एक अलग ही छवि छोड़ गया मेरे मनोमस्तिष्क पर।

डिस्कशन शुरू हुआ और विषय था "चक दे इंडिया फ़िल्म में शाहरुख खान के अतिरिक्त आपका पसंदीदा पात्र?"

सभी के लिए आश्चर्य से भरा विस्मयकारी विषय मिला था,किन्तु मजेदार था। कॉन्फ्रेंस हॉल जल्द ही मछली बाज़ार में तब्दील होता नज़र आया। "प्रीति सब्बरवाल" और "कोमल चौटाला" फ़िल्म की दो प्रमुख नायिकाएं, इनके चहेतों की कमी न थी , और जल्द ही टीम क्रमांक 2 दो गुटों में विभाजित नज़र आयी। पूरे समूह में मैं और मि. कूल ही मात्र दो ऐसे प्रतिभागी थे जिन्होंने लीक से हटकर " विद्या शर्मा - इंडिया कैप्टन, इसके भी कुछ माने हैं " को चुना अपने पसंदीदा पात्र के रूप में।

मैंने भी 'विद्या शर्मा' के तारीफों के पुल बांधते हुए उन्हें एक शांत चित और समझबूझ में परिपक्व खिलाड़ी बताकर अपनी बात रखी। और मि. कूल के अनुसार पेनाल्टी शूटआउट में उनके द्वारा बचाया गया आखिरी निर्णायक गोल निश्चित तौर पर मैच का 'एक्स फैक्टर' था।

इक्का दुक्का प्रतिभागियों को छोड़ बाकी सभी ने बढ़ चढ़ कर परिचर्चा में प्रतिभाग किया। कोई प्रतिभागी अपनी बात पूरी कर पाता उससे पहले दूसरा प्रतिभागी अपने पसंदीदा पात्र के कसीदे गढ़ने लगता। अचानक तीसरा प्रतिभागी भी मैदान में कूद पड़ता। स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की मानों होड़ लगी थी। मैं भी इस मत्स्य बाजार का अनायास ही हिस्सा बन चुका था। निर्णायक अधिकारियों द्वारा एक बार चेतावनी भी दी गयी कि एक वक्ता के साथ श्रोता बनने की भी कोशिश कीजिये और उन्हें भी बोलने का मौका मिले जो अब तक कुछ बोल न सके थे या सकुचा रहे थे। परंतु प्रतिभागियों द्वारा उस आदेश की भी मानों उपेक्षा कर दी गयी। 

अचानक 'मि. कूल' की बुलंद आवाज़ कमरे में गूंजी -" सभी सम्मानीय प्रतिभागियों , आप सब ने एक एक कर अपने विचार रख दिए हैं , समय सीमा खत्म होने को है अतः आप से अनुरोध है कि हमारे दो -तीन प्रतिभागी जो कि काफी देर से अपने अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, और उन्हें बोलने का अवसर प्राप्त नहीं हो पा रहा , कृपया बचे खुचे समय में उन्हें बोलने का अवसर दें , धन्यवाद ! " इतना कहकर उसने उन तीन प्रतिभागियों का उत्साहवर्धन करने की कोशिश की और उन्हें बोलने का अवसर दिलाया। वैसे तो कुछ खास प्रभाव नही छोड़ पाए वे प्रतिभागी अपने वाक्पटुता से और मिले अवसर का लाभ भी नही उठा सके , किन्तु 'मि. कूल' की वाक्पटुता और ओजस्विता से निर्णायक समेत सभी प्रतिभागी प्रभावित हो चुके थे। कारण यह कि, जहां एक ओर अन्य प्रतिभागी स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में भेड़चाल में व्यस्त अपने ही विचारों के एकाकी वक्ता बने हुए थे , वहीं दूसरी ओर 'मि.कूल' एकमात्र ऐसे प्रतिभागी के तौर पर उभरे , जिनके अंदर एक अच्छा श्रोता भी विद्यमान था। न केवल उन्होंने बाकी सदस्यों को अवसर दिलाया अपनी बात रखने का, अपितु एक अनन्य श्रोता की तरह उनके विचारों को सुना भी। 

परिचर्चा समाप्त हुई, चयनित 5 प्रतिभागियों में मैं भी सम्मलित था किन्तु श्रेष्ठ प्रतिभागी के तौर पर 'मि.कूल' ( बाद में नाम पता चला श्री प्रभाकर) मुक्त कंठ से प्रशंसा के पात्र थे।

निश्चित रूप से एक अच्छे वक्ता के साथ एक अत्यधिक अच्छे श्रोता के तौर पर उनका लोकव्यवहार अनुकरणीय था। आज भी 'मि.कूल' का वो लोकव्यवहार मेरे मन मस्तिष्क पर अमिट छाप की भाँति विराजमान है।


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