निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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4.7  

निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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इश्तेहार

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 "सीमा ! सीमा ! अरे सुनती हो ! मेरा मोबाइल फोन मिल नहीं रहा, यहीं तो रखा था, कहाँ गुम हो गया ?” राजेश झल्लाते हुये सोफे के इर्द गिर्द अपना मोबाइल फोन ढूंढ रहा था। “तीन दिनों से नए नौकरी की तलाश में हूँ, फोन पर naukri.com app पर रोजाना भर्ती के विज्ञापनों के बीच माथापच्ची करनी पड़ती है ताकि किसी अच्छी कंपनी में नौकरी मिल सके, और पता नहीं किसने मेरा फोन यहाँ से हटा दिया?”- झुँझलाते हुये राजेश पत्नी सीमा से कह रहा था।

“ये रहा तुम्हारा मोबाइल, सोफ़े पर ही बाबू जी के अखबार के नीचे दबा पड़ा हुआ था !”- सीमा ने राजेश के हाथ में मोबाइल पकड़ाते हुये कहा।

“बाबू जी, कितनी बार आपको कहा है, अखबार पढ़कर सलीके से मेज पर रख दिया कीजिये, कहीं भी फेंक देते हैं, पता है आपको ना कि जब से नौकरी गयी है मैं खुद कितना परेशान हूँ, ऊपर से आज आपने मोबाइल के ऊपर अपना अखबार रख दिया। ” पिता की ओर देखते हुये राजेश बोल पड़ा, झुंझलाहट साफ थी राजेश के चेहरे पर। “आप नहीं समझेंगे ,आज कल नौकरी ढूँढने में सबसे बड़ा सहायक मोबाइल ही है ,कितना समय बर्बाद हो गया,आपकी लापरवाही की वजह से, मुझे फटाफट अब app में लॉगिन कर देखना होगा नयी भर्तियों का विज्ञापन !“

चेहरे पर झुंझलाहट भरी लकीरें लिए राजेश फिर से मोबाइल की 5 इंच स्क्रीन की दुनिया में खो गया। पिता डॉ. शर्मा अखबार समेटते हुये मंद आवाज़ में बोल पड़े-“मैंने तो सुबह से अखबार हाथ भी नहीं लगाया, शायद कामवाली मीनू ने अखबार उठाकर सोफ़े पर रख दिया होगा।” राजेश अब भी उन्हें अनसुना कर मोबाइल की मायावी दुनिया में विचरण कर रहा था।

डॉ. शर्मा भी उसके बगल में सोफ़े पर बैठ अखबार के पन्नों के बीच मग्न हो गए। अगले कुछ घंटों पिता पुत्र की खामोशी के मध्य सिर्फ अखबार के पन्नों के पलटने और मोबाइल के keypad की ध्वनि ही सुनाई पड़ रही थी। अखबार के श्याम - श्वेत पन्नों के बीच विचारमग्न डॉ. शर्मा और दूसरी ओर मोबाइल की रंगबिरंगी दुनिया में app के जरिये नयी भर्तियों के बीच अपने लिए अवसर तलाशता राजेश।

डॉ. शर्मा की अंगड़ाई ने स्तब्धता पर विराम लगाया और वो अखबार छोड़ उठ कर दूसरे कमरे में चले गए ! राजेश अब भी मोबाइल की स्क्रीन से चिपका हुआ था। करीब 20 मिनट बाद जब राजेश की तंद्रा भंग हुयी तो पाया कि पापा फिर से अखबार सोफ़े पर छोड़ कर अपने कमरे में जा चुके थे। एक बार फिर झल्लाहट के साथ राजेश बड़बड़ा उठा- “कितनी बार एक ही बात समझानी पड़ेगी बाबू......बू...जी....! अचानक राजेश खामोश पड़ गया , जब उसे अखबार के इश्तेहार वाले पन्नों के बीच निकले भर्ती के विज्ञापनों पर बाबा द्वारा कलम से घेरे गए कुछ चुनिन्दा भर्ती के विज्ञापन नज़र आए !

“तो बाबू जी अखबार के इश्तेहार वाले कॉलमों के मध्य मेरे लिए नौकरियाँ ढूँढने का प्रयास कर रहे थे?” और मैं अनायास ही उन पर चिल्ला रहा था। राजेश की आँखें नम हो चुकी थीं, पंखे की हवा से उड़ते अखबार के पन्ने मानों उसे चिढ़ा रहे थे।

क्या वाकई ये दो पीढ़ियों का अंतर था या पिता-पुत्र के बीच 'तकनीक रूपी दीवार'! राजेश विचारमग्न था! 


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