निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

5.0  

निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

Drama

दीये वाले तराजू..!

दीये वाले तराजू..!

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दीवाली की अगली सुबह...कहूंगा जीवन की सबसे एकाकी दीवाली की सुबह..! एकाकी इसलिए क्योंकि इस बार दफ्तर से छुट्टियां न मिलने के कारण दीवाली घर से दूर, परिवार के सदस्यों से दूर पुणे में मनानी पड़ी !

नौकरी की वजह से पुणे तबादला होने के उपरांत से यहां अकेला ही रहता था। ऑफिस की तरफ से 2 कमरों का एक फ्लैट मिला हुआ था जहां मेरा अस्थायी निवास स्थल था। हुआ यूँ कि इस बार एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में व्यस्त होने के कारण दीवाली की छुट्टियों में घर जाने का अवसर नहीं मिला पाया। अतः घर से मिलों दूर, स्वजनों से दूर दीवाली मनाना कुछ खास रोचक नहीं था। 

जैसे तैसे लक्ष्मी पूजन और दीपक जलाकर, पड़ोसी मिश्रा जी के परिवार के सदस्यों को दीवाली की शुभकामनाएं दे कर दीवाली मनाई। 250 ग्राम लायी हुई मिठाई भी इस बार ज्यादा लग रही थी और पूरी खत्म न हो पाई। सोसाइटी के बच्चों को रंग बिरंगे पटाखे चलाते देख बचपन की यादें ताजा हो आयीं थी।

जैसे तैसे दीवाली की रात नीरस रंग में डूब कर बीती और अगली सुबह नींद जल्दी खुल गयी। बालकनी में बाहर आकर खुली हवा में सांस लेने की कोशिश तो की, पर ये ठहरी दीवाली की अगली सुबह, अन्दाज़ा लगा सकतें है हवा की "एयर क्वालिटी इंडेक्स" का..! कितनी प्रदूषित सुबह रही होगी। धुंध और पटाख़ों के धुएं के संयोजन से एक "स्मॉग" बन चुका था जो निश्चित रूप से स्वास्थ्य के लिए उत्तम न था।

अचानक दृष्टि दीवाली की रात जलाए गए उन मिट्टी के दियों पर गयी जो सुबह तक कालिख की परत लिए बुझ चुके थे, अनायास ही मन बचपन की यादों में दौड़ पड़ा। उन दियों को इकट्ठा कर दीवाली के अगले दिन होड़ लगती थी हम मित्रों में , दिए के तराजू बनाने की। 

कलात्मक, चित्रकारी वाले दो दियों को लेकर पहले सावधानी से एक नुकीली कील द्वारा दिए के दोनों सिरों पर समान अंतराल पर 1 मिली मीटर त्रिज्या के दो छिद्र बनाना, फिर धागे के साथ त्रिपाद गांठ से बांध कर उन्हें एक लकड़ी के डंडे से बांध देना, ताकि वो तराजू का रूप ले सकें, यह प्रक्रिया अपने आप में एक इंजीनियरिंग से कहीं कम ना था।

ये बाल मन का वो मनोविज्ञान होता था जो चिंता और तनाव से कोसों दूर एक नए विज्ञान को जन्म देता था, और एक बढ़िया सी कलात्मक तराजू बना लेने के बाद मन की आत्मसंतुष्टि एक उपलब्धि से कम न होती थी। सिर्फ ऐसे तराजू बनाने की लालसा को लेकर दीवाली की सुबह खास हो जाया करती थी।

आज उन बचपन की यादों और उन दिनों के अद्भुत मनोविज्ञान को याद कर आंख फिर भर आयी थी।


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