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Geeta Upadhyay

Inspirational

4  

Geeta Upadhyay

Inspirational

आत्मग्लानि

आत्मग्लानि

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अरे यार निशांत तुम यहाँ कैसे ? मेरे बच्चों के विद्यालय का उत्सव मनाया जा है। पुरस्कार वितरण के लिए बहुत बड़े कवि आने वाले हैं। शायद नाम भी कुछ भला-भला सा है अभी याद नहीं आ रहा।

दोनों मित्र बहुत दिनों के बाद मिले थे। कुछ काम था निशांत ने जवाब दिया। कुछ देर बातचीत करते रहे तो सुधीर बोला-निशांत तू भी तो लिखता था।

छोड़ यार चलता हूँ।काफी देर हो गई फिर मिलेंगे, यह कहकर निशांत मुस्क़ुराते हुए चला गया।सुधीर कुछ देर के लिए अपने कॉलेज के दिनों में खो गया। कितनी मस्ती कितनी धूम दोस्तों के समूह में निशांत ही कुछ ऐसा था की एकदम शांत। न कोई धमाचौकड़ी न शरारत बिलकुल गंभीर। सब दोस्त मिलकर उसे बहुत छेड़ते थे। उसे लिखने का बहुत शौक था। यह उन सब के मज़ाक का विषय था।

कोई उसे देखकर जम्भाइयाँ तो कोई खर्राटे मरने की अदाकारी करता।

कोई इंजीनियर,डॉक्टर वकील बनने की बाते करते तो निशांत को लेखक कहकर उसका मजाक उड़ाते थे। किन्तु निशांत एकदम शांत पलट के कुछ भी ना कहकर मुस्कुराते हुए चला जाता था। पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई थी की उसके पिता का तबादला दूसरे शहर में हो गया था। आज कई बरसों बाद मिले थे। बिलकुल भी नहीं बदला था निशांत। तभी तालियों की गूंज ने उसे चौंका दिया।सामने मंच पर निशांत मुख्य अतिथि बनकर खड़ा था। शयद उसके उपनाम की वजह से सुधीर नहीं पहचान पाया। आज वह खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहा था। उसका रोम-रोम आत्मग्लानि से भर गया।   


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