आस्था का टीका
आस्था का टीका
त्रिपाठी जी एक मल्टीनेशनल पेंट कंपनी के वेयरहाउस मे बरसों से मुलाजिम हैं । पूजा पाठ में आस्था रखनेवाले मेहनती और ईमानदार कर्मचारी में उनकी गिनती होती है।
उनके पुराने बॉस का तबादला हो गया । उनके लिए त्रिपाठी जी एम्प्लॉयी बाद मे धर्मनिष्ठ ब्राह्मण पहले थे । उनको हमेशा वो पंडित जी ही बुलाते थे । इसके चलते ऑफिस में सबलोग उनको पंडित जी ही बुलाते थे।
नए बॉस स्वमीनाथन आए। संयोग से वो भी पूजा पाठ और अपने सनातन परंपरा में विश्वाश रखते थे ।ललाट पर चंदन का हल्का त्रिधारी टिका लगाते थे और बहुत बड़े शिव भक्त थे । त्रिपाठी जी हनुमान जी के भक्त थे रोरी का गोल लाल टिका लगाते थे । एक रोज स्वमीनाथन फुरसत में बैठे थे उन्होंने पंडित को बुलाया और कहने लगे आप मेरे जैसा चंदन का हल्का त्रिधारी टिका लगाया करो ।यह लाल गोल टिका काफी बोल्ड और एग्रेसिव लगता है । मुझे ऐसा पसंद नही है ।
पंडित जी ने हॉं में सिर हिला दिया ।अगले रोज से अपने टिका का आकार थोड़ा छोटा जरूर किया लेकिन वही लाल गोल टिका लगाना जारी रखा ।
कुछ दिन बाद फिर पंडित का सामना स्वमीनाथन से हो गया। उन्होंने पंडित से पूछ दिया मेरे कहने के बाद भी तुमने टीका नही बदला । पंडित ने बड़ी विनम्रता से कहा "आपके बताए अनुसार टीका लगाना शुरू कर दिया है।"
"किधर है त्रिधारी टिका ?"
पंडित ने अपना बेल्ट ढीला किया और गंजी उठाकर दिख दिया कि पेट पर त्रिधारी टिका लगाया है ।स्वमीनाथन ने आश्चर्य से पूछा "भला पेट पर कोई त्रिधारी टिका लगाता है क्या ?"
"मैं ललाट पर जो टिका लगता हूँ वह मेरी आस्था का टीका है । चूँकि आपके यहाँ काम करने से मेरा पेट भरता है इसलिए आपके पसंद का टिका मैने पेट पर लगाया है।"
पेट के लिए आस्था से समझौता ना तो जरूरी है और ना ही उचित है । हर रिश्ता मे अपेक्षा रखना गलत नही है लेकिन अपेक्षा के लिए रिश्ता रखना गलत है ।