आशा।
आशा।
आशा को कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था। वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। प्रखर शाम को घर पर आने वाले थे। आशा के ससुराल वाले भी साथ में आ रहे थे। वह चार महीने की गर्भवती थी। उसकी दो बेटियां थी- नीर और प्रत्यूषा।
आशा इस बार एक लड़के की माँ बनना चाहती थी। उसका मानना था कि एक लड़के के जन्म से परिवार पूरा हो जाता है, लड़कियों को उनका भाई मिल जाता है और बुढ़ापे में किसी का सहारा मिल जाता है।
उधर प्रखर का मानना था कि परिवार पूरा करने के लिए लड़के का होना जरूरी नहीं, बच्चों को सही परवरिश सही संस्कार की जरूरत होती है। उनके बड़े होने पर उस समय के सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार कर उसके साथ कदमताल करते हुए चलना चाहिए।
शाम को जब प्रखर और बाकी सब आशा के मायके आये तो आशा के मन में कुछ उम्मीद बंधी कि प्रखर से बात करके वह भ्रूण का लिंग परीक्षण करवायेगी और अगर इस बार भी लड़की हुई तो वह गर्भपात करवा देगी।
लेकिन वह प्रखर की विचारधारा से भी परिचित थी इसलिए वह कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं कर सकी।अगली सुबह जब वह नियमित जांच के लिए क्लिनिक गई तो उसने डॉक्टर से पता करने की कोशिश की लेकिन डॉक्टर ने कुछ भी बताने से मना कर दिया।
जांच के बाद जब डॉक्टर ने प्रखर को बताया कि आशा ने भ्रूण का लिंग पता करने की कोशिश की थी तो प्रखर अचंभित रह गया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि आशा के दिमाग में ऐसा कुछ भी हो सकता है।
क्लिनिक से वापस आकर वह आशा को एक वृद्धाश्रम ले गया जहां पर कितने बुजुर्ग दम्पति अपने बच्चों के इंतजार में दिन काट रहे थे यह जानते हुए कि यह उनका एक भ्रम है। प्रखर ने बताया कि यहां पर रह रहे ज्यादातर बुजुर्ग दम्पत्ति अपनी लड़कियों के इंतजार में नहीं लड़को के इंतजार में है।
आशा उस भविष्य की कल्पना करते ही सिहर गई जिसमें वह और प्रखर बिल्कुल अकेले रह गए थे। अब उसने अपने गर्भपात के निर्णय को बदल दिया था।