आरंभ : एक दांपत्य हास्य व्यंग्य कथा
आरंभ : एक दांपत्य हास्य व्यंग्य कथा
🌿 “आरंभ” — एक दाम्पत्य व्यंग्यकथा 🌿
✍️ श्री हरि
29.7.2025
बरामदे में कुर्सियाँ कुछ इस तरह टिकी थीं, जैसे पिछले युद्ध में घायल सेनापति दोबारा मोर्चे पर लौटने से पहले विश्राम ले रहे हों। सावन की हरियाली से भी ज़्यादा हरी-भरी बातों का मौसम था। मैं और मेरी धर्मपत्नी—जिन्हें मैं शादी से पहले “जान” और शादी के बाद “जान खाऊ” कहता हूँ—बरामदे में बैठे थे और रिमझिम फुहारों को दूर से ऐसे देख रहे थे जैसे दो प्रेमी युगल शादी के बाद शादी के पहले वाले दिनों को खयालों में देखते हैं ।
चाय की प्याली में चीनी कम और "नुक्ताचीनी" ज़्यादा डली थीं। चाय ऐसी ठंडी थी जैसे बच्चा पैदा होने के बाद बीवी "ठंडी" हो जाती है । लेकिन कहने की हिम्मत नहीं थी । कहते ही महाभारत आरंभ हो जाने का खतरा था । मन मारकर चाय का प्याला हाथ में उठाकर एक सिप लिया और उसकी प्रशंसा ऐसे की जैसे काली कलूटी पड़ोसन को "परी" कहकर उसके भाव बढ़ाता हूं । उसकी आंखों में झांक कर अतीत के सावन के दिनों को याद करते हुए मैं रोमांस का श्रीगणेश करते हुए बोला
“पिछला सावन याद है?”
“कौन-सा? वह अनमने मन से बोली । उसे डर लग रहा था कि कहीं मैं पकौड़ों की फरमाइश न कर दूं!
"वही सावन, जिसमें पहली बार मैंने तुम्हें गीले बालों में देखा था । तुम्हारे बालों से टपकती बूंदों ने मेरे मन में आग लगा दी थी" । मैंने उसकी गुलाबी आंखों की मय को पीते हुए कहा।
वो हँसीं… वैसी ही, जैसी सावन में बिजली चमकती और कड़कती है—सुंदर भी, खतरनाक भी।
“हां, अच्छी तरह याद है । मेरे साथ तुम भी भीगे थे बरसात में । दोनों ने खूब छप छप किया था । और बाद में तुमने पकौड़ों की फरमाइश कर दी थी" ! उसने तिरछी नजर से देख कर कहा ।
"हां, और तुमने मेरी मांग को ऐसे इग्नोर कर दिया जैसे सरकार कर्मचारियों की जायज मांगों को करती है" !
इस बात पर वह भड़क गई और नागिन सी फुंफकार उठी "तुमने भी तो मेरी हार की फरमाइश ऐसे ही इग्नोर कर दी जैसे कोर्ट दोनों पक्षों की समस्याएं" !
“अरे वो तो...” मैं सफाई देने ही वाला था कि तब तक बहस का पहला घड़ा फूट गया।
फिर बातों-बातों में वही हुआ जिसका मुझे हर रोमांस का आरंभ करने में डर रहता है—मेरे रोमांस का अंत "बोलचाल बंद" के मुकाम पर होता है । आज रोमांस के बदले "महाभारत" आरंभ हो गया।
पत्नी बोलीं, “तुम्हें याद है न, हमारी शादी की पहली वर्षगांठ पर तुम बधाई देना भूल गए थे? और बोले थे — 'मैं तो समझा आज गांधी जयंती है!' ”
मैं बोला, “और तुमने उस दिन जो पनीर बनाया था, वो इतना सख़्त था कि चाकू से क्या, तुम्हारे तानों से भी नहीं कटता था।”
"हूँह! और तुमने तो एक बार मेरी मम्मी को ‘ललिता पंवार’ कह दिया था" !
"अरे तो सच को सच ही तो कहूंगा ना मैं ! तुम क्या चाहती हो कि मैं ललिता पंवार को राखी या वहीदा रहमान कहूं ? ये मुझसे नहीं होगा । जिंदा मक्खी नहीं निगल सकता हूं मैं" ! बातों ही बातों में बात बढ़ गई थी ।
अब दोनों की आवाज़ें इतनी ऊँची हो गईं कि पड़ोसी के कुत्ते ने भौंकना बंद कर दिया। शायद सोच रहा हो कि ये मानव प्रजाति की कोई विशेष किस्म है—'झगड़ालु होमो सेपियन्स'। चौराहे पर ढेंचू ढेंचू करते गधे भी खामोशी से हमारा "राग मल्हार" सुनने लगे थे ।
बरामदे की हवा थम गई थी। चाय ठंडी और रिश्तों में गर्मी बढ़ रही थी । बातचीत की गाड़ी पटरी से उतरकर अशोक महान के खंडहरों में जा पहुँची थी।
अब दोनों एक-दूसरे से मुँह फुलाए ३६ का आंकड़ा बनाकर बैठे थे।
पड़ोस की चिड़ियाँ भी चहकना छोड़ चुकी थीं — शायद ‘डिस्टर्ब न करें’ मोड में चली गई थीं।
अचानक पत्नी ने दीवार की ओर देखते हुए कहा — “इस बार रक्षाबंधन पे राखी अपनी बहन को स्पीड पोस्ट से भेज देना, हम नहीं जाएंगे राखी बंधवाने!”
मैं भी तन कर बोला — “ठीक है! तो तुम भी अपने मायके से जो मिर्ची आती है, उसे भी कह दो अब से वाट्सएप पे भेज दें!”
ऐसे ही न जाने क्या-क्या ‘मसाले’ उबले — और सावन की उस भीनी-भीनी फुहार में पति-पत्नी के संवादों का बाँध टूट गया और शब्दों की बाढ़ में हम दोनों डूब गए ।
और फिर... अंतहीन मौन।
हाँ, यही था “आरंभ” — एक बरसाती शाम का, जिसमें चाय की प्याली से निकलकर महाभारत की युद्ध घोषणा हो गई।
अब दोनों चुप थे, जैसे दो देशों की सेनाएँ युद्ध के बाद घायल होकर अपने-अपने टेंट में लौट चुकी हों।
लेकिन मैं जानता हूँ...
अगले सावन में फिर वही बरामदा होगा, वही कुर्सियाँ, वही चाय...वही रोमांस और फिर एक और "महाभारत का आरंभ"।
क्योंकि विवाह — प्रेम का नहीं, नियमित महाभारत का पौराणिक ग्रंथ है ।
और बरामदे?
वो तो दाम्पत्य के कुरुक्षेत्र हैं — जहाँ हर सावन में चाय की चुस्की से युद्ध आरंभ होता है और मौन की ठंडी बारिश में समाप्त। ☕🌧️

