आखिर हमें आना है जरा देर लगेगी
आखिर हमें आना है जरा देर लगेगी
इंसान के इस दुनिया में आते ही उसके साथ न जाने कितने रिश्ते खुद ब खूद जुड़ जाते हैँ I मां -बाप ,भाई- बहन, बेटा- बेटी...ना जाने कितने रिश्तो से वह जन्म से ही जुड़ जाता है I जीवन के हर दौर में उसे रिश्तो की जरूरत होती है I बिना रिश्तो के अकेला रहना बहुत मुश्किल हैँ I पर ये भी उतना ही सच हैँ की एक एक कर नये रिश्ते जुड़ते है और पुराने रिश्ते कही पीछे छुटते जाते हैँ I यहाँ तक की मां बाप भी बच्चों के समझदार होने तक उनका साथ निभाते हैं I भाई बहन भी जब तक अपनी जिंदगी में व्यवस्थित नहीं हो जाते, साथ रहते हैं I एक समय बाद हर रिश्ता खुद ब खुद दूर होता जाता हैं I पर एक रिश्ता जो जीवन पर्यंत साथ रहता है, जो एक दूसरे का पूरक है, वह है पति पत्नी का रिश्ता I यह रिश्ता ऐसा है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है, अपूर्ण है I और जब सारे रिश्ते एक-एक कर उसका साथ छोड़ कर चले जाते हैं,तब एक यही रिश्ता होता है जो उसके अकेलेपन का साथी होता है I पर कितना अजीब है ना जो रिश्ता जीवन पर्यंत साथ होता है, हमें उसी रिश्ते की अहमियत बहुत देर से पता चलती है I क्योंकि हम हमारे जीवन की उलझन में ही इतना व्यस्त रहते हैं,सारे रिश्तो को संजोने में इतना व्यस्त रहते हैं की इस रिश्ते पर ध्यान ही नहीं देते I हमेशा इस डर से की दूसरे रिश्ते हमसे दूर ना हो जाए, इस रिश्ते को ताक पर रख देते हैं I बस इसी सोच के साथ की पति और पत्नी अलग थोड़े ना हैँ,वो तो एक हैँ, मानो अपना अस्तित्व ही एक-दूसरे में समाए हैं I और कहते है ना इंसान दूसरों को खुश रखने के लिए सबसे ज्यादा खुद को ही चोट पहुंचाता है I आज मैं आपको इसी रिश्ते की ओर ले चलती हूं, जो जानते हम सभी हैं, पर कभी ध्यान ही नहीं देते I
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चेतना जी सुबह से अनमनी सी थी I कितनी खुशी खुशी इतने दिन से अपने बेटे के आने की तैयारियों में व्यस्त थी I उनका बेटा विवान बहुत सालों पहले अमेरिका में जाकर रहने लगा था I एक बेटी थी नित्या,उसकी भी शादी हो चुकी थी I जब से पता चला उनका बेटा विवान इतने सालो बाद अमेरिका से भारत आ रहा है, तब से उसकी पसंद के बेसन के लड्डू, मठरी, उसकी पसंद का कैरी का अचार ना जाने क्या-क्या बना रही थी I भले शरीर साथ नहीं देता, पर बेटे के मोह में ना जाने कहां से इतनी ताकत आ गयी I
महेश जी,उनके पति उनको इतना उत्साहित और व्यस्त देख चिढ़ कर कहते भी,
'मैं जब तुमसे कुछ बनाने को कहता हूं तो कहती हो मेरे घुटनों में दर्द है I अब कहां से इतनी ताकत आ गई ',
चेतना जी बड़बड़ करती बोली ,
'अरे अपनी उम्र और सेहत को तो देखो, जुबान को थोड़ा लगाम दो I इस उम्र में सादा खाना ही खाना चाहिए'I
पर आज सुबह उनके बेटे विवान का फोन आया,
'पापा मैं नहीं आ पाऊंगा I इतनी छुट्टियां नहीं मिल रही और जो थोड़ी छुट्टी है उसमें बच्चे यही घूमना चाहते हैं',
अपने बेटे की बात सुन महेश जी ने कहा भी,
' बेटा तुम्हारी मां तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रही है, उसको दुख होगा ',
'ओह कमोन पापा आप तो समझदार हो ना, मां को समझा दो, अगली बार जरूर आ जाऊंगा 'I
कहते हुए विवान ने फ़ोन रख दिया I इधर महेश जी खुद से ही बोले,
'हाँ बेटा मैं तो समझदार ही हूँ,इसिलए तेरी माँ को मना करता हूँ I पर वो बेवकूफ पता नहीं कब अपना मोह छोड़ेगी, कब अकल आएगी उसे 'I
इधर चेतना जी ने सब सुन लिया I महेश जी ने जैसे ही उन्हें देखा, वो कुछ कहते उससे पहले ही चेतना जी अपने आंसुओं को छुपाती बोली,
' अरे काम होगा उसे,अब कोई फालतू थोड़ी ना है, आखिर इतनी बड़ी कंपनी में हैँ I और वैसे भी कोई पड़ोस में तो रहता नहीं,जो जब मन आया मुँह उठाये और चला आये I अरे सात समंदर पार रहता हैँ ' I
वो नहीं चाहती थी कि महेश जी अपने बेटे के खिलाफ कुछ भी बोले I इसिलए वो कुछ कहते उससे पहले खुद ही उसकी सफाई में बोले जा रही I महेश जी बोले,
'बन गयी अपने बेटे की वकील,शुरू हो गयी तुम्हारी दलील I और तुम जो इतने दिन से उसके लिए तैयारी कर रही थी, कितनी बेचैन थी तुम्हारी ये आँखे उसे देखने के लिए ',
चेतना जी फिर किसी कुशल वकील की तरह दलील देने लगी,
'' अरे मेरा क्या है,कुछ काम नहीं है इसलिए बना लिया, अब चुप रहो काम करने दो मुझे 'I
कहती वह बिना बात कमरे की अलमारियों को साफ करने लगी I आदत थी उनकी,जब भी दुखी होती खुद को और ज्यादा व्यस्त कर लेती I पर महेश जी से उनकी उदासी, उनकी झटपटाहट छिपी नहीं I उन्होंने चेतना जी को कुछ नहीं बोला और खुद रसोई में जाकर दो कप चाय बनायीं और चेतना जी को जबरदस्ती बुला कर कुर्सी पर बिठाया और चाय का कप पकड़ाया I चेतना जी महेश जी का सामना करने से कतरा रही थी I डर था उन्हें उनके अंदर जो गुबार था कही वो फट ना पड़े I महेश जी उनकी हालत समझ रहे थे, उन्होंने चाय का घुट मुँह में भर बोला,
' मुझसे छुपाओगी अपने आंसू, बहने दो इन्हे, कर लो अपने दिल को हल्का ',
महेश जी के इतना कहते ही चेतना जी के सीने में दबा बांध टूट गया I वो बच्चों के जैसे फूट-फूट कर रो पड़ी I महेश जी ने अपनी चाय का कप टेबल पर रखा और चेतना जी के हाथ में पकड़ा कप भी लेकर टेबल पर रख दिया और उन्हें सीने से लगा लिया,
' कब तक अपने को दुखी करोगी ',
चेतना जी कुछ नहीं बोली, बस महेशजी के सीने में मुँह छिपाये सिसकती रही ,
जाने कब तक वो आंसू बहा अपना मन हल्का करने की कोशिश कर रही I मन में भरा दुख कम भले ना हो पर कुछ समय के लिए हल्का तो होता ही है I और जब आंसू बहाने को अपना कन्धा हो तो कौन अपना दुख,अपना गम बाँटना नहीं चाहेगा I
महेशजी ने भी आज उन्हें नहीं रोका, रो लेने दिया I काफ़ी देर बाद जब चेतना जी बहुत रो ली,महेशजी ने उन्हें पानी पिलाया, चेतना जी पानी पी ग्लास को रखती हुई बोली,
''मेरी तो हमेशा से दुनिया बच्चे हैं ,पर उनकी व्यस्त दुनिया में हमारे लिए समय ही नहीं I आप मुझे कितना समझाते थे, पर मैंने आपकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया I सच कितनी खराब हूं मैं, कितने नाराज होंगे आप मुझसे I सबको प्यार देने के कारण आपको प्यार देने में भी कंजूसी करी I आपको सबसे बाद में रखा I कभी दो घड़ी आपके लिए फुरसत नहीं निकाली 'I
चेतना जी मानो आज पछता रही थी I महेश जी हॅसते हुए बोले,
'अरे क्या मैं जानता नहीं तुम कितनी ख़राब हो ',
महेशजी के ऐसा बोलने से चेतना जी ने उन्हें देखा तो उनकी हसीं से समझ गयी की वो अभी भी उसे परेशान कर रहे हैँ I महेश जी मुस्कुराते हुए बोले,
'तुम मुझे कितना प्यार करती हो ये बताने की जरुरत नहीं I हाँ यह अलग बात है तुमने कभी मुझे I लव यू नहीं बोला' ,
कहते हुए उन्होंने चेतनाजी को हलकी सी आँख मारी, चेतना जी इस उम्र में भी शर्म से लाल हो गयी I महेश जी उनकी आँखों में देखते हुए बोले,
'पर तुम्हारे प्यार और त्याग के आगे बोलने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई I हमारे रिश्ते की यही खासियत तो इसे सबसे अलग बनाती हैँ, जहा कुछ कहने, सुनने, सफाई देने की जरुरत ही महसूस नहीं होती 'I
चेतना जी को महेशजी की बात से थोड़ा सुकून मिला I कप में पड़ी चाय ठंडी हो चुकी थी I चेतना जी कप उठाती बोली,
'आप बैठो तब तक मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूँ ',
जैसे ही वो उठने लगी, एकदम से उनके घुटने में दर्द उठा I महेश जी ने उन्हें आंख दिखा चुपचाप बैठने को कहा और दर्द का तेल लेकर आये और उनके पास नीचे बैठकर उनके घुटने की मालिश करने लगे I चेतना जी ने मना भी किया पर महेश जी के गुस्से में छिपे प्यार के कारण कुछ नहीं बोली I चेतना जी उनको देख रही तो महेश जी बोले,
' क्या देख रही हो',
चेतना जी गहरी सांस ले बोली,
' यही कि सारे रिश्तो के लिए जिस रिश्ते की परवाह नहीं करी I फिर भी जिंदगी के हर मोड़ पर मेरा इतना साथ दिया ',
महेश जी जी बोले,' पगली तेरा मेरा रिश्ता हैँ ही ऐसा , चाहे इसको हम रोज सीचे या ना सीचे, यह तो किसी जंगली पौधे की तरह अपने आप फलता फूलता है' I
महेश जी प्यार से चेतना जी के घुटने की मालिश कर रहे I वो मालिश करते हुए बोले,
'पूरी जिंदगी बच्चों और मेरे पीछे भागने का नतीजा हैँ,जो आज इन घुटनो ने भी जवाब दें दिया ',
महेशजी के ऐसा बोलने से चेतना जी जैसे अपनी यादों में कहीं खो गई I वह महेश जी से बोली,
'आपको याद हैँ जब विवान घुटनों पर चलना सीख ही रहा था, कितना परेशान करता था मुझे I एक पल यहां तो एक पल वहां I मैं तो उसके पीछे भागती भागती परेशान हो जाती थी ',
चेतना जी की आंखों में आज भी बिलकुल वही चमक आ गई जैसी तब आयी होंगी जब विवान घुटनों पर चलना सीख रहा था I महेश जी उनके घुटने में मालिश करते बोले,
'तभी तो उसके पीछे भागते भागते खुद के घुटनों में दर्द करवा लिया और अब मालिश मुझसे करवा रही हो ',
चेतना जी बनावटी गुस्से में बोली,
'जाओ रहने दो, मालिश क्या कर रहे हो आप तो अहसान जता रहे हो ',
महेशजी हॅसते हुए बोले,
'गुस्सा तो तुम्हारी नाक पर बैठा रहता हैँ I पर आज भी सबका गुस्सा बस मुझ पर ही उतरता हैँ I अरे बाबा मैं तो मजाक कर रहा हूं I अरे मेरा बस चले तो अपनी हीरोइन को पलकों पर बिठा कर रखू ',
चेतना जी उन्हें झिडकते हुए बोली,
'कुछ तो शर्म करो, बुढ़ापा आ गया और यहाँ इनको दीवानगी सूझ रही हैं I अरे किसी ने सुन लिया तो कहेगा, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम ',
महेश जी बोले,
'बोलता हैँ तो बोलने दो I अरे अब मुझे किसी की परवाह नहीं I जवानी के दिन तो हमने घर गृहस्थी और जिम्मेदारियों में बिता दी, अब दो घड़ी फुरसत मिली तो ये पल भी गँवा दू I सबकी परवाह करते पहले ही बहुत कुछ गवा चुका, अब गवाने की भूल नहीं कर सकता ',
कहते वो चेतना जी की गोद में किसी बच्चें की जैसे सिर रख लेट गए I चेतना जी को भी उन पर किसी बच्चें की ही तरह प्यार आया I वो उनके बालो में हाथ फिराने लगी I महेश जी उनकी गोद में लेटे लेटे ही बोले,
'पता है जब तुम विवान और उसकी बहन नित्या में व्यस्त रहती,कितनी ही दफा मैंने मूवी की टिकट,जो मैं कितना खुश हो लेकर आता था,बिना तुम्हे बताये फाड़ देता I घर पर मूड बना कर आता आज कैंडल लाइट डिनर करेंगे , पर घर आता तो देखता कभी तुम बेटे की नैप्पी बदलने में व्यस्त हो तो कभी बेटी की पढ़ाई में I
चेतना जी को उनकी आवाज में उन अनमोल पलों को खोने की कसक महसूस हो रही थी I उन्होंने उनके सिर को अपनी गोद से हटाया तो महेश जी बोले भी,
'कभी तो दो घड़ी मेरे पास बैठा करो, तुमको तो मेरे लिए फुरसत ही नहीं, अब कहा चल दी ',
पर चेतना जी बिना उनकी सुने चल दी I महेशजी तुनकते रहे I चेतना जी जब आयी तो उनके हाथों में तेल था I वो महेश जी से बोली,
'आपको तो उल्टा पड़ने की आदत हैँ I इधर आओ ',
और वो कुर्सी पर बैठ महेश जी के बालों में मालिश करने लगी I महेशजी बोले,
'अरे क्या कर रही हो, मुझे जरुरत नहीं I अभी तुम्हारे हाथो में दर्द हो जायेगा ',
चेतना जी बोली,
'अरे बाबा मैं तो तुम्हारा कर्ज चुका रही हूं,नहीं तो सुनाते रहोगे,'मुझसे मालिश करवाती हो खुद तो मेरे बालो में कभी मालिश नहीं करती ',
महेश जी रूठते हुए बोले,
'बस क्या इतना ही समझी मुझे ',
चेतना जी उन्हें मनाती हुई बोली,
'तुम भी ना मजाक भी नहीं समझते I हर बात को गंभीऱ ले लेते हो, और बच्चों की जैसे रूठ जाते हो I अब क्या बच्चों की जैसे मनाऊ भी ',
कहती वो महेश जी के गुलगुली करने लगी I दोनों पति पत्नी किसी बच्चें की तरह बेसाख्ता हॅसने लगे I चेतना जी उनके बालो में मालिश करती बोली,
' याद है जब मैं दोनों बच्चों के बालों में मालिश करती तो तुम कभी कभी गुस्सा हो कहते,
' कभी तो मेरे बालो में भी कर दिया करो मालिश ',
और मुझे भी मलाल होता I मन बनाती आज तो इनकी शिकायत दूर करुँगी I और दोनों बच्चों से फ्री होकर जब तुम्हारे पास तुम्हारे बालो में मालिश करने आती, तब तक तुम मेरे इंतजार में घोड़े बेच कर सो चुके होते I सच जब तुम्हें देखती तो खुद पर गुस्सा भी आता 'I
वह दोनों अपनी यादों में खोए थे, इतने में काली घटाएं छा गयी I चेतना जी लड़खड़ाते कदमो से बाहर कपड़े उठाने को भागी , मसाले भी धूप लगाने को रखे थे, वो भी उठाने थे I तब तक महेशजी रसोई में चाय बनाने लगे,साथ में विवान के लिए बनाये लड्डू और मठरी भी ले आये I अब तो चेतना जी भी कुछ नहीं कहेंगी,नहीं तो उनको हाथ भी नहीं लगाने देती, कहती
' सब तुम ही खा जाओगे, कुछ विवान के लिए भी छोड़ोगे'I
पर अब जब विवान ही नहीं आ रहा तो किसके लिए बचाती I महेश जी ने चेतना जी को चाय पकड़ाई और दोनों बरामदे में रखे झूले पर बैठ गए I बाहर बारिश शुरू हो गयी थी I महेश जी बोले,
'याद हैँ तुम्हारा कितना मन था इस झूले को घर लाने का I इस पर हम दोनों बैठे, गप्पे लड़ाए, चाय पिए I मैं कितनी ख़ुशी से ये झूला लाया, तुम भी इसे देख कितना ख़ुश थी I पर कसक मन में ही रह गयी I कभी तुम बच्चों के टिफ़िन में व्यस्त कभी चूल्हे चौके में I मैं अकेला चाय पी लेता और तुम भी वो ठंडी चाय एक घूंट में ख़तम कर जाती I और ये झूला हमारा और हमारी फुरसत में बिताये पलों का इंतजार ही करता रह गया 'I
महेश जी मठरी खाते बोले,
'तुम्हारे हाथो में तो आज भी जादू हैँ ',
कह उन्होंने चेतना जी के हाथ चूम लिए I आज चेतना जी ने भी अपना हाथ नहीं छुड़ाया I महेश जी उनके हाथ को अपने हाथ में ले बोले,
'बेटे के बहाने सही, कम से कम मुझे लड्डू मठरी खाने को तो मिल रहे हैं I नहीं तो मैं तो स्वाद ही भूल गया था' I
भले महेश जी ने ये बात मज़ाक में कही थी, पर आज चेतना जी को भी दुख हुआ I आज उन्होंने भी महेश जी को खाने से नहीं रोका I उनको तो आज महेश जी को यू खाते देख तस्सली सी मिल रही थी, साथ ही दुख भी था I हमेशा बच्चों की पसंद के आगे उनकी पसंद पर ध्यान ही नहीं दिया I वो कुछ बनाने को कहते तो बस यही कहती ,
'बच्चों को ये सब पसंद नहीं' I
और महेश जी भी बच्चों की पसंद में ही खुश हो जाते I बाहर बारिश जोर पकड़ चुकी थी I इधर महेश जी और चेतना जी अपने यादों में डूब चाय के घुट भर रहे Iचेतना जी बोली,
' मुझसे ही क्या कह रहे हो I इधर जब बच्चे बड़े हो रहे,अपनी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए और जब मुझे थोड़ा समय मिला तो तुम अधिकतर काम से बाहर रहने लगे',
महेश जी भी उन दिनो को याद करते बोले,
'क्या करता चेतना, बच्चों के भविष्य के लिए काम भी तो ज्यादा करना था I उनकी पढ़ाई उनकी शादी ',
चेतना जी चाय के ख़ाली कप और प्लेट रखते हुए बोली,
'सच आपके बिना ना जाने कितनी रातें तकिये पर करवटे बदलते बितायी I बच्चों के पास जाती तो वह बेचारे अपनी पढ़ाई में व्यस्त Iसच कितनी बातें होती तुमसे साझा करने को I और ये बातें भी तो दगाबाज होती हैँ,जब आप होते तो या तो याद ही नहीं रहती या बताने को समय नहीं होता I और जब आप नहीं होते तो सोचती आप आओगे तो यह कहूंगी, आप आओगे तो वह कहूंगी I और जब आप आते तो या तो मैं व्यस्त या आप व्यस्त I सच जिंदगी के कितने ही अनगिनत पल यूं ही गवा दिए I हर रिश्ते को सवारने में अपने रिश्ते को बेतरतीब कर दिया ',
महेश जी को चेतना जी की आँखों में कसक और नमी साफ दिख रही I वो चेतना जी का हाथ अपने हाथ में ले बोले,
' फिर भी देखो जब सारे रिश्ते बेतरतीब हो गए,तो हमारा रिश्ता ही सबसे ज्यादा सवर गया I पहले तुम कितना भिनभिनाती थी एक कप चाय भी नहीं बनाते और अब हमारी महारानीजी को बेड टी के बिना उठने की आदत नहीं ',
महेश जी के इतना बोलते ही चेतना जी आँखे दिखाती बोली,
'हां तो तुम भी तो कहते थे मेरे लिए समय नहीं I और आज तुम्हारे तौलिये से लेकर तुम्हारे खाने, तुम्हारी दवाई हर चीज का ध्यान रखती हूं I आज कितना समय हैँ हमारे पास एक दूसरे के लिए I पता है यही होता है पति पत्नी का रिश्ता I उनको पता होता है जब सारे रिश्ते उनसे दूर हो जाएंगे, तब एक यही रिश्ता साथ रहेगा 'I
चेतना जी महेश जी से बोली,
'एक बात कहू हसोगे तो नहीं ',
महेशजी बोले,
'नहीं हसूंगा और हँसा भी तो क्या,मेरा खून ही बढ़ेगा, उसका फायदा तुम्हे ही होगा, ज्यादा खून चूसने को मिलेगा ',
चेतना जी नाराज होते बोली,
'जाओ मैं नहीं बताती',
महेशजी बोले
'पगली नहीं हसूंगा, अब बोल भी दो,क्यों पहेलियाँ बुझा रही हो ',
चेतनाजी शरमाते हुए बोली,
'पता हैँ आज गाने की ये पंक्तियों बिलकुल हमारे रिश्ते पर सटीक बैठती हैँ ',
महेशजी ने आँखों से ही जैसे पूछा, कौनसा गाना,
चेतना जी महेशजी को देखते गुनगुनाने लगी,
' आखिर तुम्हें आना है,ज़रा देर लगेगी...'
उस गाने को आगे बढ़ाते महेश जी बोले,
'बारिश का बहाना हैँ, जरा देर लगेगी ',
दोनों की दोनों एक दूसरे से सिर भिड़ा हॅसने लगे I महेश जी हॅसते हुए बोले,
'सही कहा देर सवेर सही, हमें एक दूसरे के पास ही आना हैँ I इसी बात पर आज तो प्याज के पकोड़े हो जाये I बारिश में मजा आ जायेगा ',
चेतना जी बोली,
' बस चटोरी जुबान चालू हो गयी I बनाती हूँ बाबा, नहीं तो कहेँगे मेरे कहने पर तो बनाती नहीं,अभी इसके बच्चें बोले तो झट बना दें ',
वो उठ कर रसोई में जा ही रही थी, तभी उनकी बेटी नित्या का फोन महेशजी के मोबाइल पर आ गया,
' पापा मैं कल आ रही हूं,कुछ दिन आपके पास ही रहूंगी, माँ से कहना अब रोज़ उनके हाथ का स्वादिष्ट खाना चाहिए ',
फ़ोन स्पीकर पर ही था,महेश जी अपनी बेटी से बोले,
'बेटा तेरी माँ सब सुन रही हैँ तू खुद ही बोल दें ',
नित्या बोली,
'माँ तुम्हे तो मेरी पसंद नापसंद पता ही हैँ ',
चेतना जी हॅसते हुए बोली,
'हाँ बेटा तू तो बस जल्दी आजा, सब तेरी पसंद का बनेगा ',
फ़ोन कट चुका, चेतना जी बोली,
' सुनो जी अब कोई पकोड़े नहीं I मैं कुकर में खिचड़ी चढ़ा रही हूँ I कल से वैसे ही सब आपकी बेटी की पसंद का खाना बनेगा , और दोनो बाप बेटी मेरी सुनोगे नहीं I थोड़ा अपनी सेहत का भी सोचो I और हाँ अब काम करने दो,आपको तो कोई काम नहीं पर यहाँ तो सत्तर काम हैँ ',
कहती वो रसोई की तरफ बढ़ गयी I बेटी के आने की ख़ुशी उनके चेहरे के साथ उनकी चाल में भी झलक रही थी I महेश जी चेतना जी को जाते देख गाने लगे ,
'आखिर तुम्हें आना हैँ...',
उनकी बात काटती चेतना जी बोली,
' तुम्हे नहीं... हमें, आखिर हमें आना है... ज़रा देर लगेगी'I
दोनों की हसीं की आवाज से पूरा घर खनक रहा था I जो घर बेटे के नहीं आने से कुछ देर पहले उदास था,वही घर अब बेटी के आने से खुश था I इधर महेश जी के मोबाइल पर विवान का मेसेज आया,
'पापा अब तो माँ खुश हैँ ना, दीदी को बताया तो वो बोली चिंता मत कर मैं हूँ ना ',
महेश जी ने विवान को खुश रहने का आशीर्वाद दिया और दिल की इमोजी भेजी I सच बच्चों के इतना भर करने से माँ बाप झट सब भूल जाते हैँ I तभी रसोई से चेतना जी बोली,
'अब ये मोबाइल में क्या खिचड़ी पका रहे हो, इधर आकर जरा हाथ बटा दो ',
महेश जी उठते हुए बोले,'खिचड़ी मैं नहीं तुम पका रही हो ',और दोनों फिर हॅसने लगे I

