Meera Parihar

Fantasy

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Meera Parihar

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आग

आग

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गुड्डू बारह बरस की उम्र होते-होते अपनी माँ और पिता दोनों को खो चुका था। नितांत अकेले अपने छोटे से घर में अपने परिजनों की यादों के सिवाय कुछ बर्तन, चारपाई और कथरी के उढ़ावनन, बिछावन तथा बब्बा की बनाई बांसुरी थी। जिसकी पी-पी में उसकी सभी खुशियाँ समायी थीं।

बब्बा को गुजरे अभी तेरह दिन ही बीते थे। साहूकार के घर से, जहाँ उसके बब्बा काम करते थे,कारिन्दा आया। उसने कहा, गुड्डू ! भैया तुम्हारे बब्बा ने तुम्हारा खेत और ये झोपड़ी साहूकार को गिरवी रखी थी। जब तुम्हारी बहन का ब्याह करा था। अब कौन चुकाएगा पैसा ? चाहो तो तुम अपने बब्बा की जगह काम पर लग जाओ।"

 " पर भैया ! मैं कैसे काम करूँगा ? मैं तो अभी बहुत ही छोटा हूँ।"

" लखपति के घर पैदा तो नहीं हुए हो। मुझे देख ! मैं भी तो कर रहा हूँ काम। नहीं तो जमीन, झोपड़ी छोड़ के चले जाओ।"

" कहाँ जाऊँ भैया ? "

"अपनी बहन के घर या किसी रिश्तेदार के यहाँ रहो जाकर।"

" सोच के बताएँगे भैया कल सबेरे।"

"ठीक है ,मैं चलता हूँ। कल फिर आऊँगा।"

दूसरे दिन सुबह गुड्डू अपने कपड़े, बर्तन और कथरी लपेट अपने घर से बाहर खड़ा था। कारिन्दा जब आया तो उसने कहा, " भैया! खाली कर दी झोंपड़ी,अब चलता हूँ।"

" पर कहाँ ? "

" जहाँ तक ये कदम ले जाएंगे। राम-राम भैया।"

गुड्डू घर छोड़ पगडंडियों से गुज़र रहा था। लोग आग जला कर ताप रहे थे। वह भी तापने लगा। उसने महसूस किया आग से लौ निकलती है। कुरेदो तो चिंगारी चमकने लगती है। फूँको तो आग की लपटें निकलती है और उन लपटों में चेहरे चमक उठते हैं। सर्दी दूर भागती है। ये आग तो बड़े काम की है। यह उसका पहला अनुभव था। वह आगे बढ़ता गया। सड़क के किनारे गाड़िया लोहार आग में तपा कर लोहा पीट रहे थे और उनसे औजार बना देते थे।

बंजर जमीन पर बसे ये घर और ये काम बुरे तो नहीं। उसने उन्हीं के साथ रहना शुरू किया। घन पीटता, दो रोटी पा जाता। कुछ स्वयंसेवीं संस्थाएँ इनके बच्चों को पढ़ाने आती थीं। थोड़ा अक्षर ज्ञान हुआ। झोपड़ी में बजते रेडियो देश दुनिया की खबरें और मनोरंजन के कार्यक्रम ज्ञानबृद्धि का जरिया थे उसके लिए।

 बारह से अठारह का गुड्डू !

वह समझने लगा कि जब पराली जलती है तो धुआं उठता है। जब चूल्हा जलता है तो धुआं उठता है। जब प्रशासन प्रांगण में कोई आत्मदाह करता है तो धुंआ उठता है और यह सीधे सरकार,प्रशासन, मीडिया कानून के रखवालों तक पहुँच जाता है और तब शुरू होती हैं योजनाएँ और उन योजनाओं के जनक उड़ा रहे होते हैं हर फिक्र को धूएं में और गुड्डू भी सीख जाता है हर फिक़्र को धूएं में उड़ाने का गुर और निकाल कर अपनी बांसुरी गाने लगता है किसी शायर की लिखी ये पंक्तियाँ, , 

"बर्बादियों का शोर मनाना फिजूल था।

बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया।।


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