आधी मुस्कुराहट गुणा दो
आधी मुस्कुराहट गुणा दो
मैं सदियों पुरानी अलग-अलग भाषाओं की कुछ किताबें लेकर एक उबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रहा था। रास्ते में 'ह' सम्प्रदाय का एक आदमी मिला। मुस्कुराते हुए उसने मुझे नमस्कार किया और किताबों को देखते हुए कहा, "विश्व की सबसे अच्छी पुस्तकें संस्कृत में ही हैं।"
मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा, "उन पुस्तकों का ज्ञान संस्कृत में बोल कर सुनाओ।"
यह सुनकर उसकी मुस्कुराहट आधी रह गयी। उसे वहीं छोड़कर मैं आगे चल दिया।
आगे 'म' सम्प्रदाय का एक आदमी खड़ा था, जो गर्मजोशी से मुस्कुराते हुए मुझसे गले मिला और किताबों पर नज़र डालते हुए बोला, "दुनिया की सबसे अच्छी किताबें अरबी में ही हैं।"
मैंने भी मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "उन किताबों के राज़ अरबी में लिख कर बताओ।"
सुनते ही उसकी मुस्कुराहट भी आधी रह गयी और मैं भी दो सम्प्रदायों की आधी-आधी मुस्कुराहटें अपने होंठों पर ढोकर आगे चल दिया।
कुछ दूर चलने के बाद किसी विद्यालय के बच्चों का एक समूह दिखाई दिया। एक जैसी वेशभूषा देखकर मुझे जिज्ञासा हुई और उन बच्चों के पास जाकर मैंने पूछा, "कौन हो तुम सब? 'ह' या 'म'?"
मेरी बात सुनकर बच्चों ने मुझे यों देखा जैसे मैं कोई पागल हूँ और वे खिलखिला कर हंसने लगे। उनमें से एक हंसते हुए ही बोला, "बच्चे हैं हम।"
'हम' – यह सुनते ही मैं भी सच में किसी पागल की तरह ही ठहाके लगाते हुए हंसने लगा। मैंने अपने हाथ में थामी हुई किताबें भी हवा में उछाल दीं।
और मैंने देखा कि उन किताबों के सारे-के-सारे पन्ने कोरे होकर हम सभी के साथ निर्विघ्न खिलखिला रहे थे।