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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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ज़िंदगी का सफ़र

ज़िंदगी का सफ़र

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न जाने किस सफ़र पे

निकल चुकी हूँ

कि चलती ही जा रही हूँ

पर मंज़िल की कोई ख़बर नहीं।


सुकून के पल तो 

कभी मयस्सर न थे।

पर अब मसरूफियत है ऐसी

दिन के मुकम्मल घंटे भी

अब कम पड़ने लगे हैं।


खुद रोज़ ही बढ़ाती हूँ हदें अपनी

और ज़िद है रोज़ खुद 

अपनी ही हदों को

पार कर जाने की।


यूँ तो मुकाबला मेरा किसी से नहीं

बस ज़िद तो है खुद से ही जीत जाने की।

इस छोटी सी ज़िंदगी में

सब कुछ ही कर गुज़रना है।


हैं खुली आँखों में सपने बहुत

और हर सपने को पूरा करना है।

आसान नहीं है यूँ तो

आगे ही आगे कदम बढ़ाते जाना।


पर जब हौसले हों इतने बुलंद

तो कदमों को भी 

कहाँ नसीब होता है डगमगा पाना ?


सफ़र अब भी जारी है

मंज़िलें दूर ही सही

पर मंज़िलों को पाने का जज़्बा 

आज भी सुकून के पलों पर भारी है।


इन आँखों में नींद कहाँ

इन आँखों में तो बस

जीत के मंज़र को 

बसा लेने की तैयारी है।


बस एक ज़ज़्बा ही तो है 

खुद का मुक़ाम हासिल करने का

कि हम खुद को तपिश में जलाए जाते हैं

वर्ना दुनिया में खाली हाथ आने वाले

अक्सर खाली हाथ ही रह जाते हैं।


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