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Kusum Lakhera

Inspirational Others

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Kusum Lakhera

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यूँ ही नहीं लिखती कविता

यूँ ही नहीं लिखती कविता

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यूँ ही नहीं लिखती कविता

यूँ ही नहीं बहती भावों की सरिता

जब नैतिक मूल्य कराहते हैं

जब आदर्श भी शीश नवाते हैं 

जब मंच पर झूठ का मंच सजता है 

जब नेपथ्य में सत्य छिपता है 

तब सहा नहीं जाता

बिन कहे रहा नहीं जाता 

तब भीतर के भावों से 

तब अन्तर्मन की आहों से 

आँसुओं की स्याही से  कलम भिगोती हूँ

अन्तर्मन के भार को कम करके ,

थोड़ा शब्दो में , थोड़ा अर्थ में 

धीरे धीरे रोती हूँ

यूँ ही नहीं लिखती कविता

जब अन्याय का पलड़ा भारी होता है

जब न्याय सिर पकड़ कर रोता है

जब ह्रदय इन भावों को चिंता की

गठरी को धीरे धीरे ढोता है 

जब दुःख के पहाड़ टूटते हैं 

जब आँखों से सागर छलकता है 

जब मानवता दिखाई न देती है 

जब स्वार्थी भाव मानव को अंधा कर उनकी 

आँखों पर पट्टी लगाते हैं 

जब इस कलियुग में केवल हाहाकार सुनाई देता है 

जब चारों ओर समस्याओं का अंबार दिखाई देता है 

तब अपने भीतर के भावों को शब्दों का जामा पहनाती हूँ

तब मन के उद्वेग को हौले हौले समझाती हूँ 

 तब निराश मन को प्रेम से आशा का पाठ पढ़ाती हूँ 

और उम्मीदों से पूरित एक नवीन कविता लिख जाती हूँ।


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