यथार्थ- दो शब्द
यथार्थ- दो शब्द
जानते हैं सभी
मृत्यु
जीवन का आखिरी सोपान होता है
मगर फिर भी न जाने क्यों
एक एक पल को छीनकर सीने से
लगाये रखने का सुप्त अरमान होता है
और यही वह पल हैं जो हम किसी से
जाने अनजाने में छीन लेते हैं
शायद जीने की सुगबुगाहट में
मरने के लिए दो लकड़ियों और बीन लेते हैं
भूल जाते हैं
जो दर्द का अहसास हमारे सीनें मे धधकता है
वही दरिया, वही अरमान, वही आरजू
कहीं और भी किसी के दिल में भी रक्त सा बहता है
हम अपनी तृप्ति के क्षणिक आनंद में
इतनी बेखबरी से खो जाते हैं
किसी के दर्द में छलकती आंखो की बूंदें
और बैचेनी में, भाल पर चमकते श्वेत कण
कहां नजर आते हैं
मानवता मात्र किताबों के पन्नों पर सिमट कर
बिना आहट किये चुपचाप कुलबुलाती है
कुछ लोंगो की अतृप्त तृष्णा
और बहती हुई रक्त की धार
गंगा की पवित्रता को भी दूषित कर बहती जाती है
क्या कभी
कथित धर्म, जाति, समाज का अट्टहास
करता दसमुखी रावण
किसी राम के हाथों मारा जायेगा
या हमेशा ही
छलबल, धनबल और धूर्तता
के हाथों निरंतर ही मानव मानव के द्वारा
ऐसे ही छला जायेगा
या हम यूं ही अपने नंगे आने और नंगे जाने के बीच
तन ढकने का ढकोसला कर के
तलवारें भांजते रहेंगे
और क्रूरता, कपटता, धूर्तता और ओछपन के
दुर्गुणों को संजोये
अपनी आने वाली पीढी को भी इन्ही संस्कारों से
नवाजते रहेंगें
शहर के चौराहे पर लालबत्ती के इंतजार में
या सड़क किनारे बनी झुग्गियों में
झाकते नंगे बदनो पर फैकते चंद सिक्के
उन्हीं लोगों के मंदिर के प्रांगण में
परलोक की सार्थकता के बोझ तले
दानवीरता के बड़े बड़े शिलालेख दिख्खे
यही हमारी संवेदनाओं की
दूसरों की वेदनाओं को दृष्टिगोचर करने की
मानवता के आवरण लिपटी एक तश्वीर है
और
हम दो शब्दों में ही अपने को सार्थकता का प्रमाण पत्र देकर
संस्कृति की चाशनी से सहेज कर कह देते हैं
यह उनकी तकदीर है
खाली हाथों की दास्ताँन हम भी जानते हैं
और वह भी, कहां पलटाते हैं शास्त्रों के पन्नों को
खुद को करते हैं महिमा मंडित
फिर भी क्या सुन और क्या सुना पायेंगे
क्या क्या समेटेगें बंद मुट्ठी में
धन के ढेर, मन के कुबेर या आकांक्षाओं के बेर
एक दिन तो खाली हाथ आये थे
और खुली मुट्ठी लिए खाली हाथ ही तो जायेंगे
सिर्फ खाली हाथ जायेंगे।