यहाँ औरत होना गुनाह है शायद
यहाँ औरत होना गुनाह है शायद
माँ होना गुनाह नहीं है
पर बेटी की माँ होना गुनाह है
किसी की बेटी होना गुनाह है
किसी की बहन होना गुनाह है
किसी की बहू होना गुनाह है
तो फिर क्यों न कह दूँ ?
कि इक औरत होना गुनाह है
यहाँ हर युग में औरत को
देवी का दर्ज़ा दिया गया
वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों,
पुराणों में महिमामंडित किया गया
परंतु कराया गया कर्तव्यबोध
सीमा में बाँधकर रखा गया
बेड़ियों में जकड़ा गया
कभी प्रथा के नाम पर
कभी डराकर, तो कभी धमकाकर
ताकि इक औरत की सीमाएँ
उसको आत्मबोध कराती रहें
और दहलीज ना लाँघ सकें
जिससे समाज के ठेकेदार
मर्द का तमगा पहन सकें
और बने रहें स्वयंभू
साथ ही बनाये रखें औरत को
पैरों की धूल, समझे जूती
क्योंकि आज़ादी दी गयी जो
तो खुलेआम घूमेंगी स्वतंत्र
आसमान में उड़ने का ख्याल पालेंगीं
पालेंगीं ख़्वाब वतन पे मर मिटने का
कुछ ख़ुद के लिए, कुछ अपनों के लिए
कुछ समाज के लिए कर गुजरने का
और पाल सके हँसी ख़्वाब
जिसमें बेरोकटोक कहीं भी आ-जा सके
अपनी पसंद-नापसंद पहचान स
के
पर ये क्या?
अरे! तुम इतनी आज़ाद कैसे हो गयी?
कि घूमने लगी अपनी मनमर्जी से
करने लगी मनमाफ़िक फ़ैशन
अरे! कहा ना तुम जूती हो,
(जो रहती हैं पैर के नीचे
और कुचली जाती है हमेशा),
भोग की वस्तु हो,
पर हो तुम समाज का एक हिस्सा
जो प्रतिनिधित्व करता तो है अपनी समुदाय का
पर समान हक-हुक़ूक़ सभी को नहीं मिलते
जो उछलते हैं या बोलते हैं ज्यादा
तो रौंद दिए जाते है
बाहुबलियों, दबंगों के द्वारा
और रही बात तुम्हारी
तुम हमेशा रहोगी औरत
वो भी अबला!
सबला बनने के दिवास्वप्न निरर्थक है
और कदम से कदम मिलाना
ज़हर लग रहा कुछ को
रह जाते हैं घूँट पीकर
और बोलते ना कुछ
अपना रंग दिखा देते है समय आने पर
तुम जो जीना चाहती हो जी भर!
फिर से तुम्हें तुम्हारी औक़ात बतायेंगें
याद दिलायेगें तुम्हारे धर्म-कर्म
ये खुद श्रेष्ठ कहने वाले समाज के ठेकरदार
हाँ यही तो है असली बाधा तुम्हारी प्रगति में
हाँ यही है तुम्हारे संरक्षक,
भक्षक और प्रगतिबाधक
हाँ यही है
हाँ यही है
हाँ यही है