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Dr.Ankit Waghela

Abstract

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Dr.Ankit Waghela

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ये सपने!

ये सपने!

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ज़िंदगी भी करारी, है एक तरकारी,

क्या सपनो के छोंके लगे,

उम्रदराज हुए ,पर अभिव्यक्त करे

पलको के परदों पर है चले।


खग कुछ..है रात भर घूमे

ठग कुछ...है रेत में भोर बूने

हर कूचे हर कसबे के दीवाने

पुरपेच भागे चारपाई या मयखाने।


कुछ हैं अपने ,कुछ हैं पराए

जिम्मेदारियों तले कुछ है सजाएं

वह आए वह गए,रुके कुछ चंद हैं

वह स्वच्छंद है, वाह!इनके भी क्या छंद है।


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