ये खेल बस सोच का है
ये खेल बस सोच का है
मासूम सी एक कली खिली थी
उड़ने का सपना लेकर,
पर तोड़ दिया हौसला उसका
हाथ में किताबों की जगह
झाड़ू थमा कर।
क्या बस यही जीवन है उसका ?
घर बसाना ही है उद्देश्य जिसका ?
जिस उम्र में होनी चाहिए थी,
उसके पास नौकरी,
उसमें करती है वो
अपने पति की चाकरी,
क्या रोशनी और उजाले पर
हक़ है उसका,
या बन गयी वो,
अंधेरे में सिमट गया है
कल जिसका।
उड़ने की चाह गलत नहीं है
गलत सोच हमारी है,
क्यों नन्ही सी कलियों को
पैदा होने से पहले मार दिया जाता है,
साँस लेने से पहले ही
उनका दम घोंट दिया जाता है ?
माना बेटा कमाएगा,
पर बिना बेटी के कौन संभालेगा ?
ये खेल बस सोच का हैं,
गलत सोच जिनकी है
बस उसी को सही करना है.
इज्जत है वो आपकी
तो सिर पर बैठाओ,
डाँट डपट कर
पैर की जूती मत बनाओ।
हौसले की कमी नहीं है,
बस इज्जत का पर्दा है,
कम नहीं है वो
अपनी पर आ जाए तो
हर कोई उससे डरता है।
उन्हें उड़ने दो उन्हें जीने दो,
जीने की इस हिम्मत के साथ,
उन्हें अपने हिसाब से खिलने दो।
ये खेल बस सोच का है,
गलत सोच जिनकी है
बस उसी को सही करना है।।