STORYMIRROR

Abhishek Singh

Abstract

4  

Abhishek Singh

Abstract

ये दिल्ली अब मीरओ ग़ालिब की नही

ये दिल्ली अब मीरओ ग़ालिब की नही

1 min
356

रो रहे है बहुत से यहाँ क्या चाहते हो 

तुम भी हो नीरो तो बांसुरी बजाते हो 


कहते तो हो तुम की किसी को कोई खतरा नहीं

 फ़िर हमारे घर मे आकर हमारा पता पूछते हो


हम पर जोर आज़माते हो तो आज़माओ 

देखते है तुम भी किस हद तक गिरते हो


जो घायल हुए वो लोग अपने ही थे 

तुम तो लहू में भी मज़हब ढूँढ़ते हो 


कोन रुकेगा औऱ कौन जाएगा ये वक़्त बताएगा

देखते हैं तुम अपने तख़्त पे कितना उछलते हो


ये वीरान गालियाँ ये बंद दुकानें न कोई आवाज़ 

तुम किसी कोने में बैठ के मंद मंद मुस्काते हो


सच तो सामने आ ही जाते है लोगों के

तुम तो सियाही में में झूठ घोलते हो 


कुछ निशान हाथो से कभी नहीं जाते

देखे तुम कितना गंगा में नहाते हो 


आ ऐ दिल के कही और बस चले इस दिल्ली से 

जो तुम प्यार जताते हो हमें फ़रेबी नज़र आते हो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract